तिरंगा लेकर स्वाधीनता की 75वीं वर्षगांठ मनाने कहां से आए ये बच्चे
बरसात में रपटने वाले, गिरती चट्टानों से बचने वाले बच्चों के साथ हल्द्वाड़ी से रगड़गांव की यात्रा
राजेश पांडेय। न्यूज लाइव
दसवीं कक्षा के छात्र, 14 साल के विकास सोलंकी पढ़ने के लिए अपने घर से लगभग छह किमी. दूर रगड़ गांव जा रहे थे। यह चार दिन पहले की बात है। उन्होंने स्कूल जाने के लिए बमेंडी गांव के एक छात्र के साथ सौंग नदी पार करने का प्रयास किया, पर जैसे ही दोनों नदी में घुसे, तेज प्रवाह में उनके पैर लड़खड़ा गए, दोनों कुछ दूरी तरह बहने लगे। ईश्वर का शुक्र है, किसी तरह वो बच पाए। उनके दोस्त की चप्पलें बह गईं। बदहवास विकास ऊंची चढ़ाई पार करके किसी तरह घर वापस लौटे। उनकी मां सुमति देवी बताती हैं, जब यह घर पहुंचा तो आवाज नहीं निकल रही थी। बुरी तरह थका हुआ था और काफी पूछने पर इसने घटना का जिक्र किया।
देहरादून जिले के डोईवाला विधानसभा क्षेत्र के गांव हल्द्वाड़ी के विकास, अपने भाइयों गौरव, सौरव और पड़ोसी राहुल के साथ स्कूल जाते हैं, पर उस दिन विकास उनसे आगे थे। जब उनसे पूछा कि स्कूल जाने के लिए तो सौंग नदी पर पुल बना है, ऐसे में नदी पार करने की जरूरत क्यों पड़ी। विकास बताते हैं, मैं स्कूल के लिए लेट हो गया था। नदी पार करके जल्दी पहुंच जाता।
सौंग नदी देहरादून और टिहरी गढ़वाल की सीमा का निर्धारण करती है। रगड़गांव (सकलाना) का राजकीय इंटर कालेज, सौंग नदी के किनारे टिहरी गढ़वाल के जौनपुर ब्लाक में है। यहां टिहरी गढ़वाल और देहरादून जिलों के तीन विधानसभा क्षेत्रों डोईवाला, रायपुर व धनोल्टी के 11 गांवों के बच्चों पढ़ने आते हैं। कुंड गांव, जो स्कूल से लगभग 12 किमी. है, वहां के बच्चे, जिनमें बेटियों की संख्या ज्यादा है, रगड़ गांव पहुंचते हैं।
विकास की मां सुमति, जिनके परिवार की आजीविका का स्रोत खेतीबाड़ी और पशुपालन है, बताती हैं, हमारे बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ हो रहा है। हमारे पास इतना पैसा नहीं है कि बच्चों को देहरादून में कमरा लेकर पढ़ा सकें। इंटर की पढ़ाई के लिए बच्चों को, या तो धारकोट भेजें या फिर रगड़गांव, दोनों ही बहुत दूर हैं। रास्ते में जोखिम बहुत है। बरसात के दो माह बच्चों को स्कूल जाने के लिए मना करती हूं। जब तक बच्चे घर नहीं लौट आते, तब तक चिंता में रहती हूं। ईश्वर से यह प्रार्थना करती रहती हूं कि मेरे बच्चे सुरक्षित रहें।
स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ पर हमने हल्द्वाड़ी के छात्रों के साथ रगड़गांव तक जाने का फैसला लिया। मोहित उनियाल के साथ हम विषम भौगोलिक परिस्थितियों वाले गांवों के बच्चों के साथ उनके स्कूल तक पैदल चलते हैं। मोहित सामाजिक मुद्दों के पैरोकार हैं और ग्रामीण विकास (Rural Development) उनका विषय है, जिस पर वो बड़ी शिद्दत से काम कर रहे हैं। वो गांवों में कृषि, शिक्षा, महिलाओं के मुद्दे, सामाजिक, आर्थिक विषयों पर बात करते हैं। इससे पहले भी वो हल्द्वाड़ी से धारकोट (आठ किमी.) और कंडोली से इठारना (छह किमी.) का पैदल सफर बच्चों के साथ पूरा कर चुके हैं।
सबसे पहला टास्क था, सुबह छह बजे तक हर हाल में डोईवाला से हल्द्वाड़ी के निचले हिस्से में पहुंचने का। 14 अगस्त की रात बारिश खूब हुई थी, एक बार लगा कि क्या हमें यात्रा स्थगित करनी पड़ेगी। पर, 15 अगस्त की सुबह चार बजे तक मौसम साफ था। साढ़े चार बजे बाइक पर हल्द्वाड़ी की यात्रा शुरू हो गई।
थानो तक पहुंचते पहुंचते अंधेरा ही था, यहां से हमें पहाड़ चढ़ना था। जैसे-जैसे ऊंचाई पर आगे बढ़ते गए, भोगपुर के पास से बहती विधालना नदी पहले से ज्यादा विस्तार लेती दिखती गई। हल्की बूंदाबांदी शुरू हो गई। धारकोट में नीम करौली वाले बाबा के मंदिर के पास पहुंचे और फिर शुरू हो गया, हल्द्वाड़ी गांव का वो रास्ता, जिस पर चलना जोखिम मोल लेने के बराबर है। लगभग चार किमी. का नुकीले पत्थरों से भरा ऊबड़ खाबड़ रास्ता कई जगह पहाड़ से भूस्खलन का डर दिखाता है। लगभग 25 किमी. का रास्ता दो घंटे में पूरा हुआ। सुबह साढ़े छह बजे हल्द्वाड़ी गांव के आंगनबाड़ी केंद्र पहुंच गए। कुछ बच्चे, जो कक्षा छह से आठ तक पढ़ते हैं, रास्ते में मिले, जो स्वतंत्रता दिवस मनाने के लिए लड़वाकोट गांव जा रहे थे। लड़वाकोट यहां से तीन से चार किमी. की दूरी पर है।
हमें बाइक खड़ी करके पैदल चलना था, वो भी हल्द्वाड़ी गांव में ही लगभग एक से डेढ़ किमी. ढाल पर। बरसात में फिसलन का डर रहता है,इसलिए पैरों को जमा जमाकर आगे बढ़ने की हिदायत मोहित से मिल रही थी। बरसात में गूल भरकर चलती हैं और इससे रंजीत सिंह की अनाज पीसने की पनचक्की (Water Mill) भी। यह पनचक्की उनके दादा के समय से है। रंजीत सिंह का बेटा राहुल भी रगड़गांव जाता है। राहुल दसवीं में पढ़ते हैं।
यहां सौरव, गौरव और विकास तीनों भाई, अपने स्कूल का रास्ता दिखाने के लिए हमारा इंतजार कर रहे थे। कुछ ही देर में राहुल भी वहां पहुंच गए। राष्ट्रीय ध्वज लहराते हुए हम स्वतंत्रता दिवस मनाने के लिए रगड़गांव के सफर पर थे। यहां से रगड़गांव का अधिकतर रास्ता तीखे ढलान पर है, जो कटे हुए नुकीले पत्थरों से ऊबड़ खाबड़ बना है। संभल संभलकर चलते हुए हमें सौंग नदी के किनारे पहुंचना था। हल्द्वाड़ी के ऊपरी हिस्से से सौंग किसी सफेद चौड़ी रेखा की तरह दिखती है।
स्कूल जाते बच्चों के हाथों में लहराता तिरंगा हमें गौरवान्वित कर रहा है। मोहित और हम बच्चों के साथ वंदेमातरम्, भारत माता की जय का उद्घोष कर रहे हैं। स्वाधीनता दिवस के समारोह में शामिल होने के उत्साह के सामने ऊबड़ खाबड़ रास्ता, जोखिम भरे गदेरों का तेज बहाव, पहाड़ से पत्थर गिरने का डर और नीचे घाटी में उफनती सौंग का खौफ कुछ भी तो नहीं है।
चारों बच्चे सेंडिल पहन कर चल रहे थे, मैंने पूछा इन रास्तों पर तो शूज पहनकर चलना चाहिए। वो बताते हैं, गदेरों को पार करने में शूज भींग जाते हैं, सेंडिल में दिक्कत नहीं होती। पर, सेंडिल के साथ दिक्कत यह है कि यह जौंक का काम आसान कर देती है। जौंक पूरे रास्ते पैरों में चिपक कर खून चूसती हैं। राहुल के अनुसार, बरसात के दिनों में 30-40 बार जौंक चिपक ही जाती हैं। पैरों पर निशान दिखाते हुए राहुल बताते हैं, ये जौंक के बनाए हैं।
हमारी यूनिफार्म पर खून के धब्बे लगना रोज का काम है। जौंक खून चूसने के लिए खाल में छेद कर देती है। फोड़े, फुंसियां निकल आते हैं। कई बार बुखार भी हो जाता है। डॉक्टर के चक्कर लगाने, स्कूल से छुट्टियां लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहता है।
एक तरफ पहाड़, दूसरी तरफ गहरी खाई वाले इस रास्ते पर इन बच्चों को चार से छह साल हो गए। उनको पता है, इन रास्तों पर कैसे चलना है, कहां रुकना है और किस बातों पर ज्यादा ध्यान देना है। पर, हमारे पास यहां के बारे में न तो उनके जैसा अनुभव है और न ही जानकारियां।
मैं गदेरा पार करते बच्चों का वीडियो बनाने में इतना खो गया, लापरवाह हो गया कि पता ही नहीं चला कि कब गदेरे में पड़े एक पत्थर पर पैर रखकर संतुलन खो बैठा। संकरे रास्ते पर बहती जलधारा पर धड़ाम हो गया। शुक्र है कि पीछे चलते मोहित उनियाल ने मुझे संभाल लिया, नहीं तो तेज बहाव के साथ गहरी खाई में जाने में देरी नहीं होती। शुक्र है, बच गया। आंखों के सामने तारे दिख रहे थे, एक बार लगा कि यात्रा यहीं पर समाप्त। अंगुलियों और बांह में थोड़ी खरोच आई। कुछ देर में, दो घूंट पानी पीया तो होश आया और फिर हाथों में तिरंगे फहरा रहे बच्चों के पीछे पैदल मार्च शुरू हो गया।
सोचता हूं, मेरे साथ पांच लोग थे, पर उस समय 14 साल के विकास की मनोस्थिति क्या होगी, जब वो सौंग के तेज बहाव से बच निकलने के प्रयास कर रहे होंगे। विकास सौंग से बाहर निकलकर किस हालत में होंगे। उन्होंने वहां से लगभग चार किमी. की तीखी चढ़ाई को कैसे पार किया होगा। ये वो सवाल है, जिसके जवाब मेरे जैसे शहर में पलने बढ़ने वाले नहीं जानते होंगे।
कहीं कहीं ऊंची घास के बीच से होकर निकले और कहीं जलभराव से होकर। बारिश में क्या हालत होती है, सौरव बताते हैं, हम छाते, बरसाती लेकर आते हैं। पर, ये काफी नहीं हैं। हमें पूरे भींग जाते हैं, बस्तों और किताबें- कॉपियां भी। बहुत संभलकर चलना होता है। ये छोटे बड़े गदेरे पार करना मुश्किल का काम है। सौंग में पानी बढ़ने पर पानी ऊपर तक आ जाता है। एक- दो जगह रास्ते बाधित हो जाते हैं। 12वीं पास करने तक इस छह किमी. को पार करना, हमारी मजबूरी है। इसके अलावा कोई विकल्प नहीं है। या फिर हम छुट्टियां लेकर घर बैठ जाएं।
इसी रास्ते पर गंधक पानी का स्रोत है, जिसको पर्यटन स्थल बनाया जाएगा, ऐसी जानकारी मिली। पर, पर्यटक स्थल बनाने के लिए इसको सड़क से जोड़ना बहुत जरूरी है। कहा तो जा रहा है कि द्वारा गांव से यहां तक सड़क बन जाएगी, पर कब तक, इसका जवाब शायद नहीं है। पास में ही रेस्टोरेंट चला रहे भगवान सिंह बताते हैं, यहां पर्यटन की काफी संभावना है, लोग अभी भी यहां पहुंच रहे हैं। यहां सौंग नदी पर बांध बनना है, जिससे देहरादून शहर को पेयजल सप्लाई की योजना है। इसी डैम के किनारे सड़क भी पहुंचेगी।
पर, हल्द्वाड़ी से यहां तक सड़क पर, कोई काम नहीं हो रहा, जबकि हल्द्वाड़ी तक यहां और धारकोट से सड़क बनाना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। इससे ग्रामीणों की आजीविका के बड़े स्रोत विकसित हो सकेंगे।
गंधक पानी स्रोत से रगड़ गांव स्कूल तक जाने के दो रास्ते हैं। इनमें एक रास्ता वाया सैरा गांव और दूसरा करीब दो किमी. आगे चलकर सौंग नदी पुल पार करके है। सैरा गांव वाला रास्ता थोड़ा लंबा है। सैरा गांव से भी बड़ी संख्या में बच्चे रगड़ गांव पहुंचते हैं।
यहां से आगे एक शॉर्ट रास्ता भी है, जिसमें सौंग नदी को पार करने की चुनौती है। बच्चे जल्दी जाने के लिए सौंग को पैदल पार करते हैं, जैसा कि विकास ने किया था। पर, हमने बच्चों को सौंग नदी पुल से ही पार करने की सलाह दी, भले ही स्कूल के लिए देर हो जाए।
राहुल बताते हैं, हम अक्सर स्कूल देरी से पहुंचते हैं। इन दिनों स्कूल का समय साढ़े सात से साढ़े 12 बजे तक का है। कभी प्रार्थना पूरी होने के बाद, तो कभी एक या दो पीरियड बाद पहुंच पाते हैं। शिक्षकों को पता है कि ये बहुत दूर से आ रहे हैं, ऐसे में डांट नहीं पड़ती। वैसे हम, स्कूल के लिए सुबह छह बजे तैयार हो जाते हैं। जाते हुए ढलान है, इसलिए एक घंटे में आराम से पहुंच सकते हैं, पर कई बार रास्ते में पड़े पत्थरों को हटाना पड़ जाता है। बारिश में तो बड़ी सावधानी से चलना पड़ता है, इसलिए देर हो जाती है। पहला पीरियड अंग्रेजी का होता है। पर, किसी भी खाली पीरियड में हमारे अनुरोध पर टीचर हमें पढ़ाने आ जाते हैं। यहां शिक्षक बहुत अच्छे हैं। शिक्षक हमारी मुश्किलों के बारे में जानते हैं।
क्या आपके रास्ते में जंगली जानवरों का खतरा है, पर सौरव कहते हैं, यहां ऐसा कुछ नहीं है। हालांकि, पास ही पहाड़ पर भालू रहते हैं।
पहाड़ से पत्थर गिरने का खतरा रहता है। एक जगह पहाड़ से भारी भूस्खलन हो रहा है, बड़े पत्थर रास्ते में पड़े हैं, सौरव हमारा ध्यान दिलाते हुए कहते हैं, कुछ महीने पहले राहुल बच गया। सेकंड का फर्क था। वो तो अच्छा हुआ राहुल दौड़ते हुए आगे निकल गया। राहुल बताते हैं, भगवान ने बचा लिया उस दिन।
उधर, सौंग के दूसरी ओर पहाड़ के रास्ते पर तिरंगा लेकर चल रहे बच्चे दिखाई दिए, जो भारत माता की जय, स्वतंत्रता दिवस अमर रहे का उद्घोष कर रहे हैं। हमारे साथ वाले बच्चे बताते हैं, ये सैरा गांव, कुंड, पसनी, ऐरल गांव, तौलिया काटल, बमेंडी के बच्चे हैं, जो स्कूल जा रहे हैं। सभी बच्चे यहां ग्रुप में स्कूल आते हैं। हमारी तरह ये बच्चे भी अपने घरों से तिरंगे लेकर स्कूल पहुंच रहे हैं। सामने नदी पार का गांव सैरा है, आते हुए आपको वहां से लेकर चलेंगे।
सौरव बताते हैं, आप रगड़ गांव तक ढाल होने की वजह से आसानी से पहुंच गए, पर हल्द्वाड़ी लौटते हुए इतनी ही चढ़ाई चढ़नी होगी। तब आपको वहां पहुंचने में लगभग दोगुना समय लगेगा। हम तो रोज यह रास्ता पार करते हैं, इसलिए हमें लगभग डेढ़ से दो घंटे लगते हैं। सुबह साढ़े नौ बजे से साढ़े तीन बजे तक के स्कूल टाइम में हम साढ़े पांच बजे तक घर पहुंच पाते हैं। अंधेरा भी हो जाता है। कुंड के बच्चों को तो 12 किमी. चलना होता है, वो रात आठ बजे तक ही घर वापस पहुंचते होंगे।
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आखिरकार हम पहुंच गए सौंग नदी के उस पुल तक, जिससे पार होते ही टिहरी गढ़वाल के रगड़गांव में प्रवेश होता है। स्कूल भी पास में है। विद्यालय में बच्चे स्वतंत्रता दिवस समारोह में सांस्कृतिक कार्यक्रम की प्रस्तुतियों की तैयारियां कर रहे हैं। प्रधानाचार्य परमानंद सकलानी से मुलाकात हुई। यहां 19 शिक्षक-शिक्षिकाएं हैं। छात्र-छात्राओं की संख्या 265 है। रगड़ गांव का विद्यालय भवन सौंग नदी बांध के डूब क्षेत्र में चिह्नित है, इसलिए इसका भवन कहीं ऊंचाई पर शिफ्ट होना है। इस समय जहां विद्यालय भवन हैं, वहां कभी चूना पत्थरों की खदानों में काम करने वाले श्रमिकों के कमरे थे। अभी भी वो कमरे मौजूद हैं, जिनको मरम्मत करके क्लास रूम और अन्य कार्यों के लिए बदला गया है।
कक्षा छह से 12वीं तक के विद्यालय परिसर में मुख्यभवन के सामने बच्चे पंक्तिबद्ध खड़े हैं। बच्चे राष्ट्रीय ध्वज लहराते हुए भारत देश का जयघोष करते हैं, स्वतंत्रता दिवस अमर रहे, सबसे प्यारा देश हमारा, भारत माता की जय, वंदे मातरम का जयघोष करते हैं। विद्यालय में अभिभावक और क्षेत्रीय जनप्रतिनिधि पहुंच रहे हैं। बाहर से आने वाले अतिथि अपने साथ बच्चों के लिए मिठाई ला रहे हैं।
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प्रधानाचार्य परमानंद सकलानी ध्वजारोहण करते हैं और राष्ट्र गान शुरू होता है। इसके बाद मां सरस्वती की वंदना के बाद सांस्कृतिक प्रस्तुतियां शुरू होती हैं। कक्षा छह से लेकर 12वीं तक के बच्चे बड़े उत्साह से प्रतिभाग कर रहे हैं। शिक्षकों ने बताया, हमें लग रहा था कि कहीं बारिश न हो, पर मौसम साफ है, इसलिए हर इच्छुक बच्चे को अपनी मेधा प्रस्तुत करने का अवसर मिल गया। विद्यालय में दोपहर एक बजे तक समारोह चला और फिर बच्चों को मिष्ठान वितरित किया गया।
लौटते हुए सौरव हमें सैरा गांव से ले जाना चाहते हैं। लौटते हुए हम सौंग नदी के दाईं और चल रहे हैं। रगड़ गांव बेहद सुंदर है, धान से हरेभरे खेतों के बीच पगडंडीनुमा पक्के रास्ते से होते हुए आगे बढ़ रहे हैं। घर लौटते बच्चों की लंबी लाइन है।
कुंड गांव के बच्चे भी हमारे साथ चल रहे हैं। सैरा गांव से पहले ही बच्चे अपने अपने गांव की राह पकड़ लेते हैं। सभी खुश हैं। रास्ते में पड़ने वालीं गांवों की दुकानों से चिप्स, समोसे, चॉकलेट खरीद रहे हैं।
सैरा गांव के दसवीं के छात्र सागर भी हमारे साथ चल रहे हैं। बातें करते हुए वो मोहित के दोस्त बन जाते हैं। कहते हैं, मैं भी आपके साथ कुंड गांव चलूंगा, वहां मेरा ननिहाल है। वो हमें अपने घर ले जाते हैं और एक कप चाय पीने का आग्रह करते हैं। हमने उनके परिवार से मुलाकात की। सागर और उनके भाई शेखर हमें नल से ताजा पानी पिलाते हैं, जो सफेद दिखता है।
हमें बताया गया कि पास में ही चूना पत्थरों के पहाड़ हैं, जिस वजह से पानी सफेद होता है, पर यह शुद्ध है। हम सभी इसे पीते हैं। क्या यहां पथरी के रोगियों की संख्या ज्यादा है। सागर की मां बताती हैं, ऐसा तो यहां कुछ नहीं है।
सैरा गांव से आगे चलकर सौंग नदी का पुल पार करके गंधक पानी के स्रोत पर पहुंचे, जहां भगवान सिंह जी के रेस्टोरेंट पर भात खाया और जी भरके गंधक के पानी में गोते लगाए। तन और मन रीचार्ज करके आगे बढ़ गए हल्द्वाड़ी गांव की ओर। बच्चे हमारे साथ रहे और पहले वाले ढलान जितनी ऊंचाई पार कराने में खासकर मेरा हौसला बढ़ाते रहे।
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हल्द्वाड़ी से रगड़गांव और वहां से हल्द्वाड़ी तक मेरा मोबाइल फोन एक बार भी नहीं चला। यहां बीएसएनएल का नेटवर्क काम करता है। सौरव बताते हैं, हम ऑनलाइन क्लास का फायदा नहीं उठा सकते। वो खाई पार एक छोटे पहाड़ की ओर इशारा करते हुए बताते हैं, कोविड के समय में हम वहां जाते थे। वहां थोड़ा बहुत चल पाता है इंटरनेट। उनके स्कूल में भी इंटरनेट और फोन काम नहीं करते। स्कूल के शिक्षक भी बताते हैं, उनको सरकारी डाटा फीड करना होता है, तो देहरादून जाकर ही कर पाते हैं।
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पूरे रास्ते मोहित मुझसे आगे ही रहे। पैरों पर जौंक के हमले होते रहे। रास्तेभर जूतों से जौंक हटाते रहे और आगे बढ़ते रहे। थकान खूब हुई और शाम साढ़े पांच बजे तक हल्द्वाड़ी में सौरव, गौरव व विकास के घर पहुंच पाए।
सफर यहां समाप्त नहीं हुआ, अभी तो कम से कम डेढ़ किमी. और पहाड़ चढ़ना था। धीरे धीरे ही सही पहाड़ चढ़ रहा था। आखिरकार मोहित और मैं पहुंच गए हल्द्वाड़ी में बाइक के पास तक। वहां से डोईवाला जाने के लिए फिर उबड़ खाबड़ रास्ता पार किया। पहाड़ से दिख रही घाटियां बादलों के हवाले नजर आईं। ऊपर ऊंचाई पर गांव और कस्बे बिजली की रोशनी से जगमग हो रहे हैं। धारकोट से आगे बढ़े तो जौलीग्रांट का इलाका बिजली की रोशनी में इस तरह दिखाई दे रहा था, मानो भवन सोने चांदी के बन गए हों।
फिर मिलते हैं किसी और पड़ाव पर…।
हम यहां रहते हैं-