सिमटना
उमेश राय
देखता हूँ आजकल,
सब कुछ सिमटा – सा है…
आदमी खुद में सिमटता हुआ,
घर, परिवार, समाज, राज्य, मानवता सिमटने की तरफ बढ़ते जा रहे…
संवेदना,सोच,सीमाएं संकुचित हो रहीं हैं लगातार…
इंसान कितना अकेला हो गया है !
कि खुद से भी मिलने का नहीं है वक्त उसके पास.
ये आपाधापी,भागते लोग,अनेक मुद्रा-निद्रा में रत…
पहचान कठिन हो गयी है ,
अंतस इतनी मलिन हो गयी है …
कर्म में बौनापन बढ़ता जा रहा,
अपनापन कहाँ,दिखावा छलता जा रहा…
‘सम्बन्ध’ में ‘सम’ नहीं है,
वर्गीकृत व विभक्त पहचान में जी रहे हैं लोग…
श्रद्धा नहीं,स्पर्धा में जीवन का आयाम लड़खड़ाता है,
स्पर्धा में स्नेहिल स्पर्श नहीं है मित्र!
द्वेष में कुछ भी सरस-शेष नहीं होता.
एक भीमकाय दुनियां में भटकाव है, छलाव है…
लगाव नहीं, अलगाव है…
मैं सिमटने नहीं, मिटने का आदमी हूँ,
प्रेम, संवेदना, करूणा के धरातल पर.
अगर, सिमटना ही है तो मुझे माँ की गोद में सिमटने दो…
बिना कहे, कुछ सहज कहने दो.
सृजन का जन, यहाँ सिमटकर भी,
अपरिमित विस्तार पाता है,
आखिर, प्रेम, सद्भाव, करूणा से
बड़ा क्या है?….