ऐसा क्यों कहती हैं महिलाएं, अपने खेतों में हमारी दिहाड़ी दो रुपये भी नहीं है
खेती में कुछ ज्यादा नहीं मिलता, इसलिए महिलाओं को आत्मनिर्भर नहीं कहा जाता
राजेश पांडेय। न्यूज लाइव
बुटोल गांव की मीनाक्षी नौटियाल कहती हैं, ” अपने खेतों में हमारी दिहाड़ी तो दो रुपये भी नहीं है। जितना हम खेतों में हल लगवाने की मजदूरी देते हैं, उतना भी खेती में नहीं मिल पाता। वैसे, हम अपनी दिहाड़ी का हिसाब नहीं लगाते। जैसा कि आप कृषि में महिलाओं की मेहनत के मूल्यांकन की बात कह रहे हैं, उस हिसाब से हमारी दिहाड़ी कुछ भी नहीं है। पर, हम खुश हैं, क्योंकि हम अपनी खेती स्वयं कर रहे हैं। हमारी दिहाड़ी तो यह है कि हमारे खेत हरेभरे हैं। हमें पता है, हमारे बाद बच्चे खेती नहीं करेंगे, पर हम खेती इसलिए कर रहे हैं, ताकि हमारे बच्चे. आने वाली पीढ़ियां, यह ना कहें कि हमारे माता-पिता ने खेतों को बंजर रखा। इसलिए हम खुश हैं, और खेती कर रहे हैं, वैसे तो हमारी मेहनत का मूल्यांकन कुछ भी नहीं है।”
एक कृषि श्रमिक प्रतिदिन लगभग छह सौ रुपये दिहाड़ी लेता है, पर महिलाएं तो अपने खेतों में रोजाना कार्य करती हैं, क्या उनके पारिश्रमिक का हिसाब नहीं रखा जाना चाहिए। क्या उनके पारिश्रमिक को उनकी आत्मनिर्भरता नहीं माना जाना चाहिए, जैसे सवालों पर रुद्रप्रयाग जिले के गांवों में महिलाओं से बात की। ये महिलाएं सुबह साढ़े चार बजे से रात दस बजे तक खेतीबाड़ी, पशुपालन और घर परिवार की जिम्मेदारियां निभाने में व्यस्त रहती हैं। सवालों पर उनकी राय अलग-अलग थी।
इनमें से कुछ का कहना था, “हम कृषि में मेहनत तो खूब करते हैं, पर उतना अन्न नहीं मिलता, इसलिए हिसाब नहीं रखा जाता। ” कुछ का कहना था, “हमें आत्मनिर्भर माना जाना चाहिए, कृषि में हमारी मेहनत को समझा जाना चाहिए, पर यह तभी हो पाएगा, जब कृषि भरपूर लाभ का कार्य हो।”
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बुटोल गांव में महिलाओं से संवाद में, प्रमिला गोस्वामी कहती हैं, “हमारे लिए खेती फायदे का सौदा नहीं है। यह स्थिति तब है, जब हम खेतों में श्रमिक नहीं लगाते। हम अपनी खेती के साहब भी हैं और नौकर भी। अगर, हम श्रमिक लगाने लग जाएं तो खेती से कुछ भी नहीं मिलेगा। सात-आठ सौ रुपये एक दिन हल लगाने का पैसा देते हैं, पर अपने खाने के लिए भी अनाज नहीं होता। क्योंकि यहां बाहर से लाकर बंदर छोड़ दिए गए। ये बंदर इंसानों को खाने को दौड़ रहे हैं।”
पाट्यौ गांव की गोदांबरी नेगी बताती हैं, “पशुपालन में दूध की बिक्री करने वाली महिला के पास पैसे होते हैं। खेती करने वाली महिलाओं के हाथ में पैसे नहीं होते, इसलिए उनको आत्मनिर्भर नहीं माना जाता। महिला किसानों की अपने खेतों में मेहनत का हिसाब नहीं लगाया जाता है, न ही महिलाएं हिसाब लगाती हैं। पर, जो श्रमिक खेतों में काम करते हैं, उनके पैसों का हिसाब लगता है।”
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“महिलाओं के बारे में माना जाता है, अपने ही खेतों में तो काम किया है, यह घर की बात है। हिसाब लगाना तो दूर की बात, सोचा भी नहीं जाता। महिलाएं भी इस तरफ ध्यान नहीं देतीं, वो मानती हैं, ये उनके अपने खेत हैं। खेतों को बंजर नहीं रखना। वैसे भी खेतीबाड़ी से उनके घर में ही तो अनाज आएगा,” गोदांबरी नेगी बताती हैं।
पाट्यौ गांव की सरिता देवी के अनुसार, “खेती करने वाली महिलाओं को भी आत्मनिर्भर माना जाना चाहिए। खेतों में भी बहुत कुछ होता है। जिनके पास पशु नहीं होते है, वो किसान पुआल तक बेचते हैं। अनाज की बिक्री से भी पैसा मिलता है। पर, यह बात सही है कि महिला कृषकों के पास हर समय पैसा नहीं होता। जब अनाज बिकेगा, तभी पैसा आता है।”
खुमेरा गांव के संवाद में, राखी देवी बताती हैं, “हमारी मेहनत का हिसाब खेतों में कम उत्पादन को देखते हुए नहीं लगाया जाता है। हमें तो जिंदगीभर कृषि में मेहनत करनी है। चीनी, चाय पत्ती और घर के सभी सामान वो (पति) ही लाते हैं।”
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राखी की बात को आगे बढ़ाते हुए, खुमेरा की प्रधान अनीता देवी का कहना है, “यहां खेतों में इतना अन्न नहीं होता कि महिलाओं को आत्मनिर्भर माना जाए। पर, कोरोना काल में घर में रखा राशन ही काम आया था, जो हमने खेतों में उगाया था। पशुपालक सुधा देवी खेती पर निर्भरता का जिक्र करती हैं, “हम खेतों में दिनभर काम करते हैं, पर उतना नहीं होता। पर, क्या करें उनको तो खेती और पशुपालन से ही घर परिवार चलाना है। उनके संघर्ष के दौर में पशुपालन ही आजीविका का एकमात्र स्रोत बना।”
सुनीता देवी कहती हैं, “हमें आत्मनिर्भर इसलिए नहीं माना जाता, क्योंकि खेतों में मेहनत के बराबर तो घास भी नहीं मिलता। वहीं, विनीता का कहना है, “खेतों में काम बहुत होता है, पर जब अनाज नहीं होता, तो परिवार के लोग कहते हैं, तुम इतनी मेहनत क्यों करते हो।”
खुमेरा का सुनीता कहती हैं, “हम खेतों को बंजर नहीं छोड़ सकते, हमारे सामने अपनी पीढ़ियों के लिए खेतों की बचाने की चुनौती है। खेतों को बंदर बर्बाद कर देते हैं। मूसे (चूहे) जंगल से आने वाले जानवर फसलों को नुकसान पहुंचा रहे हैं। ”
खुमेरा की ही प्रमिला देवी की राय बहुत अलग है। कहती हैं, “हम महिलाएं आत्मनिर्भर हैं, क्योंकि जो भी खेतों में मेहनत कर रहा है, वो आत्मनिर्भर है। भले ही, खेतों में कम उत्पादन होता हो। पुरुष नहीं मानते कि हम आत्मनिर्भर हैं। वो तो यही कहते हैं, खेती में क्या हो रहा है, जो हम कमाते हैं, उसी से परिवार चलता है।”
वरिष्ठ पत्रकार गौरव मिश्रा का कहना है, पहाड़ की कृषि संकट में होने से सबसे ज्यादा प्रभावित महिलाएं हो रही हैं। यहां कृषि में अपेक्षित परिणाम नहीं मिलने के कारण ही, महिला किसानों के योगदान, श्रम और समय की कीमत का हिसाब नहीं लगाया जा रहा है, जैसा कि महिलाएं स्वयं बता रही हैं। हमें कैश क्राप की ओर बढ़ना होगा, उन फसलों का समर्थन करना होगा, जो कम जगह में, कम परिश्रम में अधिक लाभ दें। यहां कम परिश्रम की बात इसलिए की जा रही है , क्योंकि पहाड़ में कृषि की रीढ़ महिलाओं के पास अत्यधिक कार्यबोझ है। जंगली जानवरों से फसलों को बचाने के लिए सोलर फेंसिंग और अन्य उपायों के लिए किसानों को सहयोग करने की आवश्यकता है।
उत्तराखंड में महिला कृषक
2011 की जनगणना के अनुसार, उत्तराखंड में 64 प्रतिशत महिलाएं अपनी भूमि पर कृषि करती हैं, जबकि 8.84 प्रतिशत महिलाएं खेतों में श्रमिकों के रूप में कार्य कर रही हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में पुरुषों के रोजगार के लिए घरों से दूर जाने की वजह से कृषि कार्य में महिलाओं की जिम्मेदारी बढ़ गई। पर्वतीय जिलों में विषम भौगोलिक परिस्थितियों में कृषि आसान कार्य नहीं है।
संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (FAO) की एक रिपोर्ट के अनुसार, अगर ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं की भूमि, प्रौद्योगिकी और वित्तीय सेवाओं तक पहुंच हो, तो अन्य लोगों के अलावा, कृषि उपज में 20-30 प्रतिशत की वृद्धि हो सकती है, इस प्रकार खाद्य सुरक्षा में महत्वपूर्ण योगदान होता है। अधिकतर विकासशील देशों में महिलाएं लगभग 60-70 प्रतिशत खाद्य उत्पादन करती हैं।
यह तथ्य भी जानिएगा
वहीं, एक रिपोर्ट में कहा गया है, संयुक्त राष्ट्र ने इस तथ्य को माना है कि दुनियाभर में भूमि मालिकों में केवल 20 फीसदी महिलाएं हैं। ग्रामीण महिलाएं कृषि, खाद्य सुरक्षा औऱ भूमि व प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन मे बहुत अहम भूमिका निभाती हैं। दुनियाभर की आबादी के लगभग एक चौथाई ग्रामीण महिला किसान, दिहाड़ी मजदूर और छोटे कारोबारी हैं।
ग्रामीण इलाकों में आय के मामले में असमानता की खाई 40 प्रतिशत अधिक है, इसका मतलब यह हुआ कि पुरुषों के मुकाबले में महिलाओं की आमदनी काफी कम है। वहीं श्रम शक्ति में लैंगिक असमानता की खाई को वर्ष 2025 तक 25 फीसदी कम करने से ही वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 3.9 प्रतिशत की वृद्धि हो सकती है।
अगर ग्रामीण महिलाओं को कृषि संपदा, शिक्षा और बाजार की उपलब्धता में समान रूप से भागीदारी का अवसर मिले तो दुनियाभर में भूखमरी का सामना करने वाले लोगों की संख्या में 10 से 15 करोड़ तक की कमी लाई जा सकती है। कोविड-19 महामारी के दौर में खासकर ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं की आधी से ज्यादा संख्या प्रभावित हुई है।
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