हाल ए हल्द्वाड़ीः “बचपन से सुन रहे हैं कि हमारे गांव तक रोड आएगी, रोड आएगी…,पर यह कब आएगी”
” मैं उस रात को कभी नहीं भूल सकता। बहुत तेज बारिश हो रही थी। गांव से सड़क तक जाने वाला कच्चा रास्ता बंद हो गया था। मेरी पत्नी प्रसव पीड़ा से व्यथित थीं। उनको जल्द से जल्द अस्पताल पहुंचाना था। अस्पताल गांव से बहुत दूर है और हमें तेज बारिश में ही जंगल का पांच किमी. ऊबड़ खाबड़ रास्ता तय करना था। ग्रामीणों के सहयोग से हम किसी तरह एक दूसरे के सहारे आगे बढ़ रहे थे। मुझे याद है, उस समय रात के 12 बजकर 20 मिनट पर, मेरी बिटिया ने रास्ते में ही बारिश में जन्म लिया।”
आठ साल पहले की यह बात सुनाते हुए करीब 35 वर्षीय गंभीर सिंह सोलंकी, ईश्वर का शुक्रिया अदा करते हैं। कहते हैं, मुझे हमेशा इसी बात का डर रहता है कि ऐसा किसी के साथ न हो। उनकी बिटिया अब आठ साल की हो गई है। पर, हल्द्वाड़ी गांव से अस्पताल अभी भी, पहले जितना ही दूर है और रास्ता भी उसी हाल में है। हालांकि, गांव वालों ने श्रमदान करके इसको यूटिलिटी चलने लायक बना दिया है, लेकिन जोखिम हमेशा बरकरार है।
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“हम बचपन से सुन रहे हैं कि हमारे गांव तक रोड आएगी, रोड आएगी, पर यह कब आएगी। मेरा भाई, गांव से पलायन कर गया। मैं भी, यहां से परिवार को लेकर चला जाऊँगा। मैंने थानो के एक स्कूल में बिटिया का एडमिशन करा दिया है। बेटे का भी वहीं एडमिशन करा दूंगा। आप यहां स्कूल भवन की हालत देख सकते हो। बच्चों को पढ़ाई के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ता है, ” यह कहते हुए सोलंकी भावुक हो जाते हैं।
किसान राम सिंह अपने गांव की सड़क और पानी की कहानी बताते हुए भावुक हो जाते हैं। कहते हैं, मैं अपना गांव छोड़कर नहीं जाऊंगा। मैं दिहाड़ी मजदूरी करके, झुग्गी झोपड़ी में रहकर गुजर बसर कर लूंगा। राम सिंह हल्द्वाड़ी गांव में रहते हैं।
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“अगर, हम गांव छोड़ देंगे, तो यहां भूमि बंजर हो जाएगी। मुझे कोई कहीं जगह भी दे देगा, तब भी अपने गांव से पलायन नहीं करुंगा। मुझे अपने गांव से बहुत प्यार है। पर, यहां पानी हो, सड़क हो, बच्चों के लिए स्कूल हो, स्वास्थ्य केंद्र होना चाहिए। स्वास्थ्य खराब होने पर महिलाओं को बहुत परेशानियां उठानी पड़ती हैं, ” राम सिंह कहते हैं।
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उत्तराखंड के देहरादून जिला के रायपुर ब्लाक के कृषि एवं पर्यटन की संभावनाओं वाले हल्द्वाड़ी और लड़वाकोट गांव के युवाओं से, जब तरक्की के मायनों पर बात करते हैं, तो उनका एक ही जवाब होता है, तरक्की का मतलब सड़क है। अभी तो सड़क हमारे लिए किसी सपने की तरह है।
यह बात तो सौ फीसदी सही है, इन गांवों तक सड़क बन गई तो शिक्षा, स्वास्थ्य, बाजार, कृषि मंडी, आजीविका, रोजगार से जुड़ी दिक्कतें काफी हद तक दूर हो जाएंगी। वहीं पर्यटन यहां स्वरोजगार लेकर पहुंचेगा, ऐसा गांववालों का मानना है।
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पिछली बार आपने हल्द्वाड़ी की पानी की कहानी पढ़ी थी, अब सड़क पर बात करते हैं। हल्द्वाड़ी व लड़वाकोट का रास्ता करीब दो किमी. तक एक ही है और फिर यह दो हिस्सों में बंट जाता है। लड़वाकोट ढलान और हल्द्वाड़ी के लिए ऊंचाई पर बढ़ना होता है। कच्चे रास्ते पर पहाड़ से भूस्खलन हो रहा है। मलबा कच्चे रास्ते पर जमा हो जाता है। बरसात में यह रास्ता चलने लायक नहीं है।
रास्ते में महिलाओं और बच्चों को जंगल की ओर रुख करते देखा। वो पशुओं के लिए चारा लेने जा रहे हैं। ईंधन के लिए सूखी लकड़ियां भी लेकर आते हैं। यहां अभी भी कई घरों में मिट्टी के चूल्हों पर ही खाना बनाया जाता है।
मैं जिस बाइक पर सवार था, उसको 23 साल के गजेंद्र चला रहे थे। गजेंद्र पहले पुणे के एक होटल में बतौर कुक काम करते थे। बताते हैं, करीब एक साल से गांव में खेतीबाड़ी कर रहे हैं। बाइक ने कई बार रास्ते पर जमे पत्थरों पर उछाल लिया। मैं कुछ घबरा गया।
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गजेंद्र ने कहा, मुझे पकड़कर बैठो। मैं तो इस रास्ते पर रोज ही बाइक चलाता हूं। बाइक संभलकर चलाओ, कोई दिक्कत नहीं होगी। वैसे भी रिस्क कहां नहीं है। बताते हैं, बाइक और यहां चलने वाली यूटीलिटी के टायर बहुत ज्यादा घिस जाते हैं।
कई बार तो सुबह पांच बजे बाइक से ही ऋषिकेश मंडी तक उपज पहुंचाने जाते हैं। ऋषिकेश मंडी यहां से नजदीक है।
गजेंद्र ने रास्ते से दिखने वाली घाटी के दर्शन कराए। पहाड़, नदियों और आबादी का शानदार नजारा पेश आता है यहां से। कहीं बादल हमसे नीचे घाटी के ऊपर घूमते दिखते और कहीं बहुत ज्यादा ऊंचाई पर पहाड़ों की सैर करते हुए।
मैं मन ही मन सोच रहा था, क्या यहां टूरिज्म को बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिए। क्या यहां होम स्टे योजना पर काम नहीं होना चाहिए। क्या इससे स्थानीय जैविक उत्पादों की यूजर्स (उपयोगकर्ताओं) तक पहुंच नहीं बनाई जा सकती। इस पर विस्तार से बात करते हैं, पहले सड़क पर चर्चा।
मैं भी क्या सोचता रहता हूं, हमारे सोचने से होता भी क्या है, यह बात मुझे तब ज्यादा निराश करती है, जब हम राजनीतिक संगठनों की इच्छा शक्ति को बहुत कमजोर पाते हैं। यह बात कहने में कोई हिचक नहीं है, कि यहां वोटों की राजनीति करने वालों पर निर्भर नहीं होना चाहिए और न ही उनकी ओर आशा भरी निगाहों से देखना चाहिए।
हल्द्वाड़ी गांव, की आबादी दूर- दूर बसी है। यहां पास में ही नदी है, हरे भरे खेत हैं औऱ इन सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि यहां के अधिसंख्यक लोग अपने घरों को छोड़कर कहीं नहीं गए। लोग यहां से नौकरी के सिलसिले में बाहर गए हैं।
यहां रास्ते में गजेंद्र से हुई बातचीत का उदाहरण भी मिल गया। हरि सिंह सोलंकी, अपनी यूटिलिटी का टायर बदल रहे थे। बताते हैं, इस रास्ते पर टायर पंक्चर होना आम बात है। टायर यहां तीन महीने भी नहीं चलते। खराब टायर पर गाड़ी चलाने से दुर्घटना हो सकती है। हर तीन माह में तीस हजार रुपये खर्चा, रखरखाव अलग से।
” गांव में तीन यूटिलिटी है, जिनमें से दूसरे दिन नंबर आता है। यहां इतनी सवारियां नहीं मिलतीं। देहरादून तक एक सवारी का किराया 150 रुपये यानी आना जाना 300 रुपये में होता है, यहां से पूरी गाड़ी भरकर नहीं जाती। मंडी तक सामान पहुंचाने के लिए पूरी गाड़ी का किराया 15-16 सौ रुपये है” ,हरि सिंह बताते हैं।
हल्द्वाड़ी से देहरादून की दूरी लगभग 35 किमी. है, पर किराया ज्यादा होने की वजह सड़क नहीं होना है। यही वजह है कि ग्रामीण सड़क के अभाव को, तरक्की में बाधा मानते हैं।
विधायक निधि से वर्ष 2018-19 में कच्चा रास्ता बनाने के लिए साढ़े चार लाख रुपये दिए जाने का बोर्ड दिखाई दिया। पर, गांव ने तो सड़क यानी पक्का रास्ता मांगा था।
ग्रामीणों ने करीब 90 वर्षीय बुजुर्ग बरफी देवी से मिलवाया। उनका कहना है, मैं तो बहुत साल से सड़क का इंतजार कर रही हूं। चुनाव में मतदान करते समय आप क्या सोचते हैं, पर उनका कहना है कि, मेरे गांव में सड़क और पानी पहुंच जाएं।
हम कच्चे -पक्के रास्तों से होते हुए पूरा गांव घूमना चाहते थे। ग्राम पंचायत के स्तर से सीमेंटेंड रास्ते बने हैं। पर, गांव के दोमंजिला पंचायत घर के भवन की स्थिति खराब है। छत का पलास्तर झड़ रहा है। भवन की हालत देखकर नहीं लगता कि यहां कोई बैठक या कामकाज हो रहे हैं।
70 वर्षीय बसंती देवी से जब पूछा कि आप कितने समय से देहरादून नहीं गए तो उनका कहना था, जब कभी स्वास्थ्य खराब हुआ, तभी देहरादून गए। सड़क बहुत खराब है। सड़क और पानी मिल जाएं तो अच्छा रहेगा।
ग्रामीण जय सिंह बताते हैं कि यहां तक सड़क बनाने के तीन सर्वे हो चुके हैं। ग्रामीणों का कहना है कि सर्वे तो एक बार में ही काफी था, बार-बार करने से क्या होगा। वही रास्ता है और दूरी भी उतनी ही, जितनी पहले और अब है। उन्हें लगता है कि चुनाव के आसपास सर्वे कराने से यह विश्वास दिलाने की कोशिश की जाती है, कि सड़क बन जाएगी।
अगर, सड़क बन जाती है तो आप किन अरमानों को पूरा कर पाएंगे, के सवाल पर युवा विक्रम सिंह कहते हैं, अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिला पाएंगे। रोजगार के लिए आसानी से शहर या अन्य स्थानों पर जा सकेंगे। फसलों को बाजार तक कम खर्चे पर पहुंचाया जा सकेगा।
स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतों पर अस्पताल तक पहुंचने में दिक्कत नहीं होगी। सड़क बनने से गांव का विकास होगा। किसी को भी रोजगार या शिक्षा के लिए अपना गांव छोड़ने की जरूरत नहीं होगी। बच्चों को 16 किमी. पैदल नहीं चलना पड़ेगा। वो अच्छी तरह से पढ़ाई कर पाएंगे।
ग्रामीण स्पष्ट करते हैं कि कोई भी दल हो, हमें किसी से कुछ लेना -देना नहीं है। पहले गांव को सड़क और पानी उपलब्ध करा दें, फिर वोट मांगने आएं। वो कहते हैं कि अब किसी के बहकावे में नहीं आने वाले।
सामाजिक कार्यकर्ता अरुण नेगी कहते हैं, पिछली बार वादा किया गया, सड़क बनाएंगे। चुनाव जीतने के बाद उनसे बात करने का समय भी नहीं मिल पाया। पता चलता है, आज वहां हैं और कल वहां हैं।
किसान चरण सिंह कहते हैं, हमारी जिंदगी सड़क का इंतजार करते हुए बीत रही है। हमें अपनी नहीं, बल्कि अपनी पीढ़ियों की चिंता है। क्या वो सुविधाएं नहीं होने पर, यहां रहेंगे।
संभावनाओं वाले गांव में सड़क नहीं होने से तमाम चुनौतियां पैदा हो गई हैं। सड़क कब बनेगी, यह गांव को नहीं मालूम, उनको तो इतना पता है कि इस बार फिर उत्तराखंड में 2022 के चुनाव में राजनीतिक दल आएंगे, अपने-अपने प्लान लेकर, अपने -अपने दावे और वादे लेकर…, गांव से एक बार फिर वोट और सपोर्ट के लिए।
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