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Video: सड़क नहीं बनेगी तो क्या पलायन कर जाएगा यह गांव

उन्नतशील किसान भूपाल सिंह कृषाली ने वर्षों पहले नाहींकलां गांव से पलायन कर दिया और देहरादून जिला के कालूवाला में घर बनाकर खेतीबाड़ी शुरू कर दी। उनके लिए गांव वाले घऱ में, इस समय अगर कुछ है, तो वह है, बचपन से युवावस्था तक की यादें। पर, अपने गांव से जुड़े रहना, उनके लिए बहुत सकारात्मक पहलू है। बच्चों की शिक्षा के लिए भले ही गांव छूट गया, पर जैविक खेती की संभावनाओं ने गांव से रिश्ते को अटूट रखा। वह, अब फिर से, अपने गांव लौटना चाहते हैं।

तक धिनाधिन के घुमक्कड़ दल ने कुछ माह पहले उनसे कालूवाला गांव में मुलाकात के दौरान देहरादून जिला के रायपुर ब्लाक स्थित पर्वतीय गांवों में जैविक खेती की संभावनाओं पर बात की थी। तभी से हम नाहींकलां गांव में जाने की योजना बना रहे थे। महाशिवरात्रि के दिन हम उनके साथ नाहींकलां गांव पहुंचे, जहां उन्होंने करीब 80 साल पुराना पैतृक घर दिखाया। उन्होंने बचपन की यादों के साथ गांव की दुश्वारियों को साझा किया। जैविक खेती से लेकर टूरिज्म तक की संभावनाओं पर भी बात की।

हमने दशकों पुराने घरों को देखा, जिसको बनाने में पत्थरों, मजबूत लकड़ियों व टीन का इस्तेमाल किया गया है। हम उनके साथ पत्थरों से बनी सीढ़ियों पर चढ़कर कमरों में गए, जिनमें प्रवेश करते समय मेरा सिर टकरा गया। बहुत दर्द हुआ, क्योंकि मुझे अंदाजा नहीं था कि यहां कमरों की छतें शहरों की तरह ऊंची नहीं होंगी। यहां छत के अनुपात में ही बहुत छोटे दरवाजें और खिड़कियां हैं। दर्द मुझ पर ज्यादा देर तक इसलिए भी हावी नहीं रहा, क्योंकि मुझमें तो कुछ नया जानने, सीखने का उत्साह था।

कृषाली जी ने कहा, थोड़ा संभलकर रहना होगा। मैंने इतनी कम ऊंचाई की छतें, चौखटों के बारे में पूछ ही लिया। उनके जवाब ने मुझे सोचने को मजबूर कर दिया। कहते हैं कि मुझे लगता है कि पूर्वजों ने बहुत सोच समझकर ऐसा किया है, क्योंकि पर्वतीय क्षेत्रों में हवाएं बहुत तेज होती हैं। किसी भी भवन पर आंधी तूफान का प्रभाव इन छोटे दरवाजों और खिड़कियों की वजह से कम हो जाता है। कृषाली जी की, यह बात, वैज्ञानिक रूप से कितनी सही है, मैं साफ तौर पर नहीं कह सकता।

पर, उनके दूसरे जवाब ने मुझे बहुत प्रभावित किया। बताते हैं कि पूर्वजों ने घरों को मंदिर माना। जिस तरह मंदिर में प्रवेश करते हुए हम सिर झुकाते हैं, उसी तरह घर में प्रवेश के लिए भी सिर झुकाने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देते हुए दरवाजों को छोटा किया गया। हालांकि कृषाली जी, इसको पूर्णरूप से अपना विचार मानते हैं।

यह अच्छी बात है, पर कृषाली जी के जवाब से सहमत होते हुए मेरा एक सवाल है, जिन घरों को हमारे पूर्वजों ने मंदिर की संज्ञा दी, उनको छोड़कर लोग पलायन क्यों कर गए।

पलायन पर इस सवाल का जवाब जानने के लिए हमने नाहींकला में ग्रामीणों, विशेषकर महिला कृषकों से बात की। पूर्व प्रधान सोबनी देवी जी ने हमें बताया कि यहां खेती वर्षा पर निर्भर है, इस बार वर्षा नहीं हुई। अन्य गांवों में जहां खेतों को नहरों से सींचा जाता है, वहां जौ, गेहूं और मसूर जैसी फसल तेजी से बढ़ीं, पर यहां पौधे ज्यादा ऊंचे नहीं बढ़ पाए, कुल मिलाकर पूरी मेहनत बेकार हो गई। उनके साथ दीपा देवी जी, नीलम जी, भवानी देवी जी ने बताया कि पिछले साल बारिश अच्छी थी तो उपज ज्यादा थी।

इसके ठीक विपरीत नाहींकलां में थोड़ा सा ऊंचाई पर जाने पर, हमें जौ की लहलहाती फसल मिली। एक ही गांव में, फसल में बड़े अंतर पर सोबनी देवी जी ने बताया कि वहां भूमि में काफी नमी है। कृषाली जी बताते हैं कि यहां नमी वाली जमीन है, यहां की मिट्टी बारिश का पानी सोख लेती है। समतल भूमि पर ऐसा होता है। जबकि ढाल वाली भूमि पर पानी नहीं रूकता। जहां बारिश नहीं होने से फसल खराब होने की दिक्कत है, वह भूमि ढाल वाली है।

भवानी देवी और अन्य महिलाएं रोजाना सुबह पांच बजे कृषि एवं पशुओं की देखरेख में व्यस्त हो जाती हैं। कृषि में निराई, गुड़ाई सहित पशुओं के लिए चारा इकट्ठा करना, घर के कामकाज में उनका पूरा दिन व्यतीत होता है। कभी कभी तो खेतों से शाम करीब छह बजे तक घर लौट पाते हैं। परिवार के अन्य सदस्य भी कृषि में सहयोग करते हैं।

यह एक अनुमान है कि यदि एक परिवार से पांच सदस्य सुबह से शाम तक कृषि को समय देते हैं तो प्रतिदिन लगभग 60 घंटा कृषि एवं पशुपालन को देने के बाद भी कुछ ज्यादा हासिल नहीं हो पा रहा। एक तो फसल को पानी नहीं मिल पाता, वहीं जंगली जानवर भी नुकसान पहुंचाते हैं।

यहां विशेषरूप से मटर, राजमा, आलू, मिर्च, मसूर, जौ, धान, अदरक, हल्दी, प्याज, लहसुन, धनिया, गोभी की उपज होती है। संभावनाएं बहुत हैं पर पानी के बिना कुछ नहीं। छोटी क्यारियों, जिनमें लहसुन, गोभी, धनिया, मिर्च आदि उगा सकते हैं, उनको पाइप लाइन के पानी से सींचा जाता है।

यहां पाइप लाइन के जरिये बहुत दूर स्थित स्रोत से पानी आता है, पर इस पानी को पीने और नहाने के लिए इस्तेमाल नहीं करते। इसका इस्तेमाल बर्तन-कपड़े धोने, जानवरों को पिलाने, क्यारियों की सींचने में होता है। जब हमने पूछा तो जवाब मिला कि यह पानी स्वच्छ नहीं है। इसमें चूना मिला होता है, जो शरीर के लिए ठीक नहीं है।

नीलम जी बताती हैं कि हम तो गांव से लगभग दो सौ मीटर दूर वर्षों पुराने स्रोत से पीने का पानी लाते हैं। करीब एक बाल्टी या बंटा पानी, बहुत है पीने के लिए। हां, गर्मियों में जब पाइप लाइन से पानी बहुत कम आता है, तब यह स्रोत ही सहारा बनता है।

कृषक भूपाल सिंह हमें गांव के वर्षों पुराने जल स्रोत तक ले गए, जहां पानी को बड़ी सीमेंटेड टंकी में स्टोर किया जाता है। टंकी पर लगे नल से आप पानी भर सकते हैं। बताते हैं कि इस स्रोत ने नाहींकलां गांव को बचा रखा है। उनका कहना है कि पाइप लाइन वाला स्रोत चूना पत्थरों से निकलता है, इसलिए उसमें कैल्शियम ज्यादा है। यहां पथरी के मामले भी हैं। वह स्वयं पथरी से पीड़ित रह चुके हैं।

सेलाकुई स्थित एक कंपनी में जॉब करने वाले युवा विक्रम कृषाली कहते हैं कि उनका गांव बहुत सुंदर और संभावनाओं वाला है, पर मुझे इस बात का दुख है कि वर्षों पहले गांव को छोड़ना पड़ा। देहरादून जिला मुख्यालय से मुश्किल से 20 किमी. दूर स्थित हमारे गांव तक आने के लिए तीन-चार रास्ते हैं, पर एक भी रास्ता पक्का नहीं है। सनगांव से करीब पांच-छह किमी. सड़क बननी है, पर कुछ नहीं हो रहा। यह कच्चा रास्ता जोखिम भरा है, बाइक से आते जाते हैं।

विक्रम जी कहते हैं, सिंधवाल गांव वाला पुल बन गया, आगे रास्ता नहीं बना। थानो से वाया कोटला तक कच्चा रास्ता है, यह भी बहुत जोखिम वाला है। बच्चे आठवीं के बाद सिंधवाल गांव या सनगांव जाते हैं, करीब चार से छह किमी. एक तरफा रास्ता पैदल नापते हैं। पूरा दिन तो स्कूल आने जाने में लग जाता है। बरसात में तो बच्चे स्कूल ही नहीं जा सकते। अगर सड़क बनी होती तो मुझे यहां से नहीं जाना पड़ता। मैं जॉब के लिए यहां से रोजाना अपडाउन करता। आप बताओ, अपना घर छोड़ना कौन चाहता है। लोगों ने जॉब और बच्चों की शिक्षा के लिए पलायन कर दिया।

उनका कहना है कि गांव से काफी लोग जा चुके हैं, खेत खाली हो रहे हैं। बच्चों को शिक्षा के लिए लोगों को गांव छोड़ना पड़ रहा है। सड़क नहीं बनेगी तो दिक्कतें बढ़ेंगीं।

घुमक्कड़ दल में दृष्टिकोण समिति के अध्यक्ष मोहित उनियाल भी शामिल हैं, जो कुछ माह पहले भी नाहींकलां गांव आए थे। पर, उस समय मोहित जी, वाया सनगांव यहां आए थे। बताते हैं कि यह रास्ता बहुत जोखिम वाला है। बाइक भी ब़ड़ी मुश्किल से चल रही थी। बरसात में तो यहां बुरा हाल होता होगा। सड़क नहीं बनना तो व्यवस्था की सबसे बड़ी खामी है। उनका कहना है कि सड़क बन जाए तो यहां जैविक खेती की मार्केटिंग के साथ शिक्षा एवं स्वास्थ्य से जुड़ी दिक्कतें दूर हो जाएंगी। टूरिज्म को बढ़ावा मिलेगा।

स्रोत से आते समय हमें क्लास दस के छात्र पंकज मिले, जो बकरियां चराने ले जा रहे थे। पंकज बताते हैं कि उनके पास 11 बकरियां हैं। खेती और पशुपालन आय का माध्यम हैं। इस बार बारिश नहीं होने पर खेती नुकसान वाली है। बकरी पालन से आय की संभावना हैं।

पंकज बताते हैं कि यहां से करीब चार किमी. पैदल चलकर सिंधवाल गांव स्थित विद्यालय पहुंचते हैं। स्कूल के लिए रोजाना आठ किमी. पैदल चलते हैं। बरसात में खाला आ जाता है, रास्ता टूट जाता है। ऐसे में वापस घर लौट आते हैं, क्या करें। लॉकडाउन के समय ऑनलाइन क्लासेज चलीं, पर गांव में इंटरनेट कनेक्टिविटी की बहुत दिक्कत है। गांव से थोड़ा दूर जाकर पढ़ाई की। कभी पढ़ाई हो पाई और कभी नहीं।

गांव के पास ही करीब दस साल पहले अस्पताल भवन बना था। बताया जाता है कि यह चार बेड का है, पर यहां आपातकालीन स्थिति में रीलिफ के लिए संसाधन नहीं हैं। महाशिवरात्रि की छुट्टी पर अस्पताल बंद था, हालांकि ग्रामीण बताते हैं कि यहां डॉक्टर साहब नियमित रूप से आते हैं। स्टाफ भी ड्यूटी पर रहता है।

अस्पताल स्टाफ के लिए आवासीय व्यवस्था भी है, पर हमने अवकाश के दिन वहां किसी को नहीं देखा। इमरजेंसी में रोगियों को हिमालयन हॉस्पिटल या फिर देहरादून ले जाते हैं। ग्रामीणों ने बताया कि कई बार ऐसा हुआ है कि इमरजेंसी में रोगियों को बड़ी मुश्किलों से अस्पताल पहुंचाया गया। एक बार तो एक महिला ने अस्पताल ले जाते हुए रास्ते में ही बच्चे को जन्म दिया।

वहीं हमें जानकारी मिली कि अस्पताल भवन में कक्षा छह से आठ तक स्कूल चल रहा है। यह अच्छी बात है कि सरकारी भवन का इस्तेमाल हो रहा है।

हां, तो मैं बात कर रहा था, पलायन से खाली हुए एक भवन की। इसके एक कमरे के भीतर खिड़की पर मधुमक्खियों ने छत्ता लगा दिया, जिस पर से शहद टपक रहा है। कृषाली जी बताते हैं कि यहां लंबे समय से कोई नहीं रह रहा है, इसलिए मधुमक्खी का छत्ता बन गया। हालांकि यहां यह आम बात है।

कहते हैं कि यहां मधुमक्खी पालन की बहुत संभावनाएं हैं, इसलिए पुराने भवनों में एक विशेष प्रावधान है। भवन की पिछली दीवार पर छोटे छोटे छिद्र बनाए गए, जिनसे होकर मधुमक्खियां कमरे में आवागमन कर सकती हैं।

बाहर से बने इन छिद्रों वाले स्थान पर ही कमरे के भीतर दीवार पर खाली स्थान (ठीक किसी आले की तरह) बनाया गया। छिद्रों के जरिये आकर मधुमक्खियां यहां छत्ता बना लेती हैं। कमरे के भीतर खुले इस भाग को लकड़ी के फट्टे से ढंक दिया जाता था, ताकि मधुमक्खियां कमरे में न आ सकें। मधुमक्खी पालन की इस तकनीकी को मैंने पहली बार जाना। जल्द ही इसका वीडियो आपको दिखाएंगे।

लालटेन और बत्ती वाले लैंप की डिबिया को देखकर बचपन याद आ गया। मैंने क्लास छह तक घर में बिजली आने से पहले इन्हीं के सहारे पढ़ाई की। खेती में इस्तेमाल होने वाली पुराने औजार देखे। हल बनाने की आरी, रंदा, वसूला, हथौड़ी आदि को कमरे में बंद हुए वर्षों बीत गए।

करीब 80 साल पुराने भवन का अनाज भंडारगृह देखा, जिसमें रिंगाल से बनीं बड़ी टोकरियां दिखाईं, जो दिखने में बहुत सुंदर दिखती हैं। इन पर मिट्टी और गोबर का लेप किया गया है। इसमें मंडुआ, झंगोरा, मक्का, गेहूं, धान रखते थे। इनकी खासियत यह है कि इनमें रखे अनाज में कीड़ा नहीं लगता। यह एयरकंडीशन्ड का काम करता है, न तो गर्म रहता है और न ही ठंडा रहता है।

बिच्छूघास यहां भरपूर मिल जाएगी, जिसके पत्तों पर बने सुईनुमा कांटों की वजह से शायद इसे सिलवर नीडल कहा जाता है। बताया जाता है कि इसका साग बनता है, जो सर्दियों में काफी अच्छा रहता है। कृषाली जी बताते हैं कि उनको पता चला है कि इसकी चाय भी बनती है, जिसकी डिमांड का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि एक कप चाय का दाम एक हजार रुपये है। पर, इसकी चाय कैसे बनती है, इस प्रक्रिया को जानना बहुत आवश्यक है।

हमने रास्ते में नील के पौधे देखे, जिन पर गुलाबी फूल लगे हैं, जो बेहद आकर्षक लगते हैं।

हम कोटला गांव होते हुए नाहींकलां पहुंचे थे। थानो से वाया कोटला रास्ता कच्चा है, जो बहुत जोखिम वाला है। जीप, कार जैसे चौपहिया आ जा सकते हैं, पर बहुत अनुभवी ड्राइविंग की आवश्यकता है।

थानो से सीधे बिधालना नदी पर सिंधवाल गांव का पुल पार करते ही बाएं हाथ पर जंगल से होते हुए चढ़ाई वाला घुमावदार रास्ता आपको नाहीं कलां ले जाता है। रास्ते के दृश्य आपको प्रभावित करते हैं, पर गाड़ी चलाते समय सिर्फ और सिर्फ रास्ते पर ध्यान दीजिए। आप किसी सुरक्षित प्वाइंट पर गाड़ी रोककर प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद ले सकते हैं।

कोटला गांव में ठंडी हवाओं ने हमारा स्वागत किया। बीच में बिधालना नदी और दूसरी ओर पहाड़ पर बढ़ेरना मंझला व बढ़ेरना कलां गांव, बहुत शानदार नजारा पेश करते हैं। एक बात तो दावे के साथ कह सकता हूं कि यहां आपका तन और मन रीचार्ज हो जाएंगे, जैसा कि मैंने महसूस किया।

यहां उन्नतशील कृषक जगपाल सिंह जैविक खेती कर रहे हैं। यह खेती जैविक इसलिए हैं, क्योंकि साफ सुथरे स्रोत या फिर वर्षा से ही इसको पानी मिलता है। फसलों को कीट से बचाने के लिए भी उन्होंने रसायन का छिड़काव नहीं किया। वर्मी कंपोस्ट व गोबर की खाद से खेती की है। वर्मी कंपोस्ट के लिए पिट बनाए हैं। राजमा, मटर, आलू, मिर्च, लहसुन, प्याज, जौ, धान उगाते हैं। पानी की दिक्कत है।

उनका कहना है कि खेती किसी एक या दो व्यक्ति का कार्य नहीं है। विपणन का साधन हो जाए तो जैविक खेती में बहुत संभावनाएं हैं। रिवर्स पलायन के सवाल पर कहते हैं कि इस बारे में इसलिए नहीं कह सकता, क्योंकि जो यहां से बाहर चला गया, उनके यहां आने की संभावनाएं बहुत कम हैं, पर हम चुनौतियों को दूर करके संभावनाओं को को प्रबल करें तो यहां से पलायन को रोक सकते हैं।

हमने नाहींकलां में बच्चों नंदिनी, अवनी, आकृति, दिव्या से कविताएं सुनीं और उनसे अपना पुराना वाला सवाल… पेड़ घूमने क्यों नहीं जाता, भी पूछा।

इस बार के भ्रमण के वीडियो जल्द ही आपसे साझा करेंगे….। अगले किसी पड़ाव पर मुलाकात करें, तब तक के लिए आपको बहुत सारी शुभकामनाएं।

Key Words:- Villages of India, Dehradun, Villages of Uttarakhand, Mountain Village, Himalayan villeges, LIfe in village, Migration in Uttarakhand, Reverse migration in Uttarakhand, Organic farming in Uttarakhand, Organic states in India, upper talai, भारत के गांव, उत्तराखंड के पर्वतीय गांव, हिमालय के गांव, गांव का जीवन, उत्तराखंड में पलायन की स्थिति, उत्तराखंड में रिवर्स माइग्रेशन, उत्तराखंड में जैविक खेती, भारत में जैविक खेती, जैविक खेती के तरीके 

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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