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काटल गांव की यात्रा: भीमल की छाल को फेंक देते हैं, पहले खूब इस्तेमाल करते थे

Exploring Katal Village: Silk Farming, Bhimal Trees, and Rural Challenges

राजेश पांडेय, देहरादून

काटल गांव (Katal Village) के बारे में मुझे केवल यही मालूम था कि वहां रेशम कीट पालन खूब होता है। पर, पहले कभी जा नहीं पाया। पिछले रविवार (20 अप्रैल 2025) को यहां पहुंचे तो पता चला कि इस इलाके में भीमल के पेड़ बहुत हैं। भीमल, पहाड़ में पशुपालन के लिए उपयोगी होने के साथ व्यावसायिक महत्व भी रखता है। पर, परंपरागत रूप से इस्तेमाल किए जाने वाली भीमल की छाल से बने रेशों को यहां अब महत्व नहीं मिल रहा है। ऐसा ग्रामयात्रा के दौरान बातचीत में सामने आया।

ग्राम यात्री मोहित उनियाल और आनंद मनवाल, ट्रेवल फोटोग्राफर सार्थक पांडेय के साथ मुझे भी गांवों को जानने का मौका मिलता है। मोहित उनियाल और आनंद मनवाल जनमुद्दों के पैरोकार हैं और लोगों से मिलने के लिए ग्राम यात्राएं करते हैं।

देखें-  काटल गांव की यात्रा का वीडियो

काटल गांव तक पहुंचने का रास्ता

रविवार सुबह, हमने काटल गांव (Katal Village) जाने का निर्णय लिया, जो देहरादून से लगभग 25 किमी. है। आपको देहरादून से यहां तक आने के लिए पहले थानो और फिर भोगपुर वाले रास्ते पर करीब आधा किमी. चलकर होमगार्ड प्रशिक्षण संस्थान की ओर मुड़ना होगा। इस संस्थान के सामने से होते हुए थोड़ा आगे चलकर ढलान है। पक्की सड़क है, रास्ता ठीकठाक है। इस सड़क से आपको विधालना नदी और उसके आसपास तलाई के खेत और मकान दिखते हैं, जो शानदार नजारा पेश कर रहे हैं। ढलान पार करते ही बाई ओर सिंधवाल गांव का पुल दिखेगा, पर आपको पुल पार नहीं करना है। बल्कि सीधे आगे बढ़ना है।

हम आगे बढ़े, सिंधवाल गांव के पुल से पहले ही सीधा रुख कर लिया। सिंधवाल गांव का पुल पार करके आप सिंधवाल गांव, नाहींकला, ढाकसारी जा सकते हैं। पर, हमें काटल जाना था, इसलिए पुल पार नहीं किया।

बरसात के दिनों में, काटल गांव ( Katal Village) तक पहुंचने में बरसाती खाले चुनौती बनते हैं। गर्मियों के दिनों में इनमें पानी ज्यादा नहीं होता। वर्षों पुरानी सिंचाई नहर है, जो भोगपुर वाली नहर की तरह दिखती है। जानकारी मिली कि यहां एक घराट भी थी, जो अब नहीं है। हमने वर्षों पुराने झूलापुल भी देखे। झूलापुल के नीचे से होकर काटल की ओर बढ़ते रहे। झूला पुल देखकर यह तो साफ हो गया कि पहले यह बरसाती खाले बहुत विस्तार लेकर बहते होंगे। तभी तो पुल का स्पान इतना ज्यादा है। झूला पुल पर इस पार से उस पार जाने का मोह नहीं छोड़ पाए।

जंगल और बरसाती खाले के किनारे होते हुए आखिरकार वहां पहुंच गए, जहां से हमें काटल गांव (Katal Village) के लिए पैदल चढ़ाई शुरू करनी थी। हालांकि सिंधवाल गांव के पुल के पास से आगे का रास्ता कच्चा ही है। जंगल के किनारे से होता हुआ नदी के पत्थरों और रेत कंक्रीट से भरा रास्ता। यहां संभलकर वाहन चलाने की आवश्यकता है, पर हमें तो मुश्किल से डेढ़ से दो किमी. ही चलना था।

काटल से दिखती धारकोट वाली सड़क

हां, तो मैं बात कर रहा था उस जगह की जहां से काटल गांव (Katal Village) का एक घर साफ दिखाई दे रहा है। वहीं सामने दिख रहा है थानो से धारकोट और फिर बड़ेरना जाने वाली सड़क। धारकोट बेहद सुंदर इलाका है, जहां से होकर अपर तलाई, हल्द्वाड़ी, लड़वाकोट, बड़ेरना, पलेड, अखंडवाणी भिलंग, जामनखाल, सोडा सरोली सहित कई गांवों से होते हुए देहरादून तक जा सकते हैं। हालांकि कई गांवों तक कच्चे मार्ग हैं, पर धीरे-धीरे सड़कों का जाल बिछ रहा है। हम तो इस पूरे मार्ग पर भ्रमण कर चुके हैं। इनका जिक्र आपसे पूर्व की यात्राओं में किया है।

खाले में रखे भीमल के केड़े

मनवाल बताते हैं, इस खाले का नाम ग्वाड़ी खाला है, जिसकी तस्दीक सामने सरकारी बोर्ड से होती है। यह खाला धारकोट से आ रहा है। ऊपर दिख रहा इलाका धारकोट है। खाले पर बना छोटा सा पुल, जो बहुत पुराना लग रहा है, को पार करने से पहले हम थोड़ा डर रहे थे। हालांकि इतना डरने की बात नहीं थी, फिर भी यह सीमेंटेड होने के बाद भी हमें जोखिमवाला ही दिखा। पुल के नीचे कम पानी में कुछ टहनियां रखी थीं, जिन्हें देखकर हमें समझने में जरा भी देर नहीं लगी कि ये भीमल की है। इनको स्थानीय लोग भीमल के केड़े कहते हैं।

पहाड़ में भीमल के रेशे आय का स्रोत

भीमल, जिसे पहाड़ में पशुपालन और आर्थिकी का बेहतर सहयोगी मान सकते हैं। मनवाल कहते हैं, हम इनको भीमल के केड़े कहते हैं।हमने भीमल के व्यावसायिक उपयोग पर चर्चा की। ग्राम यात्री मोहित उनियाल बताते हैं, ऋषिकेश के पास ढालावाला में भारतीय ग्रामोत्थान संस्थान ने भीमल के रेशों पर बहुत काम किया है। संस्थान ने ग्रामीणों को भीमल के रेशों से टोकरियां, चप्पलें और सजावटी सामान बनाने का प्रशिक्षण देकर उनको स्वरोजगार से जोड़कर आत्मनिर्भर बनाया है। भीमल के रेशों का व्यावसायिक महत्व है। मनवाल बताते हैं, भीमल के केड़ों को ईंधन के लिए इस्तेमाल किया जाता है। इसकी छाल से रेशा बनता है, वास्तव में यह वरदान है।

काटल गांव का पैदल रास्ता

हमने काटल गांव (Katal Village)में भीमल के बारे में बात करने का निर्णय लिया। करीब आधा किमी. की खड़ी चढ़ाई के बाद हम पहुंच गए काटल गांव के एक मकान पर। आधा किमी. की खड़ी चढ़ाई, जो पगडंडी वाली है। रास्ते में पटाल के टुकड़े और बजरी बिखरे हैं। जरा भी ध्यान से पैर नहीं टिकाया तो असंतुलित होकर सीधा नीचे गिरना तय था। मैं बार बार पीछे मुड़कर सार्थक को देख रहा था, जो लगभग 800 ग्राम के गिंबल में फंसाया हुआ इतने की वजन का कैमरा लेकर हमारे पीछे चलते हुए यात्रा का वीडियो और रास्तेभर के फोटो बना रहा था। कैमरा और गिंबल मिलाकर लगभग डेढ़ किलो से ज्यादा वजन लेकर पहाड़ की पगडंडी पर सधकर चलना आसान नहीं है। खासकर, मेरे और सार्थक के लिए, जो अक्सर शहर की सड़कों पर चलते हैं।

पटालों की छतें शानदार इंजीनियरिंग

मोहित उनियाल रास्तेभर में बिखरी पटाल और बजरी का जिक्र करते हुए कहते हैं, पुराने मकानों की छतों पर पटाल ही दिखती हैं। पहले घरों की छत डालने के लिए कितनी मेहनत की जाती थी। एक एक पटाल को इस तरह फिक्स करना कि आंधी, तूफान और बारिश में कुछ न बिगड़े। यह शानदार इंजीनियरिंग हमारे पूर्वजों के पास थी। अब तो सीमेंट और कंक्रीट की छतें बनती हैं। टीन की चादर की छतों पर बोल्ट कसने में उतना समय नहीं लगता, जितना पहले लगता होगा। पटाल की छतें आज भी खूब लुभाती हैं।

मेरी सांस फुलाती हैं इन गांवों की पैदल यात्राएं

हम बातें करते हुए ऊंचाई पर चढ़ रहे थे, मेरी सांस फूल रही थी। पर, यह यात्रा उतनी लंबी नहीं थी, जितना कि अपर तलाई से चित्तौर की थी। हम कंडोली से उमरेत, हल्द्वाड़ी से रगड़ गांव और वहां से वापसी, अपर तलाई के ऊपरी हिस्से से पलेड, नाहींकलां से बड़कोट, कंडोली से सेबूवाला, खरक, कंडोली से इठारना, कोडारना से कलजौंठी, कुशरैला से बखरोटी, अखंडवाणी भिलंग से जामनखाल के साथ ही, चिफल्डी, डोमकोट आदि पर्वतीय गांवों की लंबी पैदल यात्राएं कर चुके हैं।

खेती और जंगली जानवरों की समस्या

काटल गांव (Katal Village), जहां काफी दूरी पर मकान दिखाई देते हैं। हुकुम सिंह जी के मकान के सामने ढलान पर दूर तक खाली खेत देखना अच्छा नहीं लगा। हालांकि बताया गया कि गेहूं की फसल नहीं लगाई, क्योंकि बंदर, लंगूर, सूअरों के साथ और भी जंगली जानवर फसल को नुकसान पहुंचा रहे हैं।

हमने पहाड़ के गांवों में खाली पड़े खेतों के बारे में जब भी किसानों से बात की , तो यही जवाब सुनने को मिलता है।

कुछ लोग तो यह भी कहते हैं, “खेती करने वाले अधिकतर लोग तो रोजगार के सिलसिले में पलायन कर गए,जो लोग गांव में रह भी गए हैं, वो इसलिए खेती नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि उजाड़ ज्यादा है। इस वजह से जंगली जानवरों को केवल उनकी थोड़ी बहुत फसल दिखती है, जिस पर वो हमला बोल देते हैं।”

हमें उनकी बात को सरल शब्दों में समझने की आवश्यकता है। उनकी बात का जो मतलब मैं समझ पाया हूं, वो यह है कि गांव में अधिकांश जमीन पर खेती नहीं हो रही है। गांवों में कम हिस्से में ही खेती हो रही है। जंगली जानवर अपनी पूरी ताकत से थोड़ी सी खेती पर हमला करते हैं, जिससे किसानों को भारी नुकसान झेलना पड़ता है।

यदि पूरे गांव की जमीन पर फसल उगती तो, जंगली जानवरों का हमला इतना प्रभावी नहीं होता, जितना कि अब थोड़ी सी खेती पर हो रहा है।

हमें ग्राम यात्रा के दौरान एक बुजुर्ग महिला ने कहा था कि ” पहले खूब खेती होती थी, लोग अपने खेतों में रहते थे और जंगली जानवर जंगलों से बाहर नहीं निकलते थे। पहले, पशुपालन भी होता था। पशु चराने के लिए लोग जंगलों में जाते थे, इसलिए जानवर दूर ही रहते थे। अब जंगली जानवरों को खेतों में लोग नहीं दिखते, इसलिए वो खेतों और फिर घरों के आंगन तक पहुंचने से नहीं डरते।”

खाली खेतों में बोएंगे धान, हल्दी

काटल के ग्रामीण हुकम सिंह बताते हैं, यहां से पलायन तो नहीं हुआ, पर रोजगार के सिलसिले में तो जाना ही होगा। खेत खाली छूट गए। पर, सामने जो आप खाली खेत देख रहे हो, वो हमारे हैं, जिनको हमने गेहूं के सीजन में खाली छोड़ा है। गेहूं पर जंगली जानवर खूब हमला करता है। हमें मेहनत के बाद भी फसल नहीं मिलनी थी, तो मेहनत करके क्या फायदा था। पर, इस बार धान, हल्दी और फसलें भी बोएंगे। वो यह भी बताते हैं कि उनके कई खेत खाली हैं। सभी तो रोजगार के सिलसिले में यहां से शहरों की ओर चले गए। खेती के लिए लोग चाहिए, उनसे दूर स्थित खेतों की देखभाल नहीं हो पाती।

मेरी प्यारी बोई का जिक्र और पलायन पर बातें

यात्रा के दौरान हमारी गपशप जारी रही। मोहित उनियाल ने बताया, कुछ दिन पहले ही उन्होंने गढ़वाली फिल्म “मेरी प्यारी बोई” देखी थी। मुकेश धस्माना और सुरेंद्र भंडारी के निर्देशन वाली यह फिल्म 2004 में फिल्माई गई थी। 21 साल बाद फिर से पर्दे पर कुछ संशोधनों के साथ इसने वापसी की है। यह फिल्म पहाड़ में संघर्ष और यहां पलायन की पीड़ा को रेखांकित करती है। पलायन की वजह से खेत खलिहान खाली हो रहे हैं। फिल्म के एक डायलॉग का जिक्र करते हुए कहते हैं, यह बात सही है कि घर का चूल्हा जलता रहे तो वहां की मिट्टी बनी रहती है। इस डायलॉग का अर्थ गहरा है, यह पलायन से खाली हो गए गांवों, घर-आंगन से होने वाली पीड़ा का दर्शाता है। हम दुर्गम गांवों की बात नहीं कर रहे हैं, देहरादून से 25 किमी. दूर के गांवों को खाली होता देख रहे हैं।

मोहित कहते हैं, सभी को अच्छी शिक्षा , बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं, रोजगार और मूलभूत सुविधाओं का अधिकार है। कोई अपनी बेहतरी के लिए क्यों न पलायन करे। पलायन को रोकना है तो सुविधाओं और संसाधनों की पहुंच  पूरे पहाड़ तक पहुंचानी होगी।

शानदार है काटल गांव और वहां मिला आतिथ्य

आखिरकार पहुंच गए काटल गांव (Katal Village) में उस मकान के पास, जिसके एक हिस्से में पशुओं का बाड़ा है। मकान के रास्ते में भीमल की टहनियां रखी थीं। पास में ही, शहतूत, कटहल और भीमल के पेड़ों की कतार है। भीमल पर पत्तियां कम थीं, पर शहतूत और कटहल हरे भरे हैं। शहतूत के पेड़ों की वजह से ही तो यहां रेशम कीट पालन होता है। रेशम के कीट शहतूत की पत्तियां खाते हैं। भरी दोपहरी में पेड़ों की छांव और धीमी हवा का आनंद भरपूर है।

ग्रामीण हुकुम सिंह हमें देखकर प्रसन्न हो गए। यह हमारे पहाड़ के लोगों की खासियत है, अतिथियों का स्वागत खुश होकर करते हैं। ठंडा पानी और फिर गरमा गरम चाय के साथ अरसे, नमकीन और मठड़ी का स्वाद, शानदार रहा। मैंने तो दो अरसे खाए। पहाड़ की मिठाई अरसे मुझे पसंद हैं। बातचीत के दौर में हुकुम सिंह बताते हैं, सामने वाला पहाड़ धारकोट वाला क्षेत्र है। काटल गांव (Katal Village) हल्द्वाड़ी ग्राम पंचायत में आता है। यहां से 12वीं की पढ़ाई करने के लिए बच्चे धारकोट ही जाते हैं। यही कोई दो किमी. होगा, पर चढ़ाई तो आप देख ही रहे हो, खड़ी चढ़ाई है यहां से। जंगल का रास्ता है, जानवरों का खतरा भी रहता है।

पूरा इलाका भीमल का है, पर अब रेशा इस्तेमाल नहीं करते

ग्रामीण हुकुम सिंह बताते हैं, यह पूरा इलाका भीमल का है। काटल (Katal Village), सिमियांद, कोठार सहित आसपास के गांवों में भीमल बहुत है। इसके पत्ते जानवरों को पसंद हैं। भीमल की टहनियों को खाले के पानी में लगभग 20 दिन छोड़ देते हैं। इसकी छाल आसानी से निकल जाती है। छाल को हम वहीं फेंक देते हैं और केड़े आग जलाने के काम आते हैं। चूल्हे में केड़े तेजी से आग पकड़ते हैं और फिर दूसरी लकड़ियां जलती हैं। जबसे मिट्टी का तेल मिलना बंद हुआ, हम चूल्हे में केड़े ही जला रहे हैं।

भीमल की टहनियां तो आप वैसे भी जला सकते हैं, इनकी छाल निकालने की क्या जरूरत है, पर वो बताते हैं, छाल निकालकर यह करकरी हो जाती है, तेजी से आग पकड़ती है।

छाल को क्या फेंक देते हो, इसकी छाल यानी रेशों से तो बहुत तरह के उत्पाद बनते हैं। इसका रेशा तो बिकता भी है। पर, हुकुम सिंह कहते हैं, हमने इसके रेशों से रस्सियां बनाईं। मजबूत रस्सियां बनती हैं, जानवरों को बांधने के लिए। दही बिलोने वाली मथनी पर जो रस्सी लगती है, वो भी भीमल के रेशों से बनाते थे। टोकरियां बनाई जाती थीं। अब हम इसके रेशों का इस्तेमाल नहीं करते। वन विभाग की रोकाटोकी भी बहुत रहती है। गांव से तो युवा रोजगार के सिलसिले में शहरों में चले गए। हम इनसे कुछ नहीं बना सकते।

सहकारिता के मॉडल का सुझाव

मोहित उनियाल, उनको बताते हैं, भीमल का रेशा बिकता है, इससे चप्पलें भी बनती हैं। सजावटी सामान बनाया जाता है। इसकी डिमांड है। वो सुझाव देते हैं, इसके लिए आसपास के गांवों के लोग सहकारिता के मॉडल पर काम करें। भीमल का रेशा अधिक मात्रा में इकट्ठा करके उपयुक्त बाजार तक पहुंचाकर ग्रामीणों की आय का एक प्रभावी स्रोत विकसित किया जा सकता है। हुकुम सिंह उनकी बात पर सहमति व्यक्त करते हुए कहते हैं, यदि इसका बाजार है, तो काम किया जा सकता है।

यहां गोबर गैस का प्लांट भी था। रसोई में ईंधन की आपूर्ति का एक स्रोत यह भी है। हुकुम सिंह कहते हैं, दो टोकरी गोबर से काम चल जाता है। यहां से निकला गोबर खेतों में खाद के रूप में इस्तेमाल होता है। उनका कहना है, इसकी गैस पर दाल-चावल, सब्जी तो बना लेते हैं, पर रोटियां नहीं सेंकते। रोटियों में इसकी महक महसूस की है, इसलिए रोटियां मिट्टी के चूल्हे पर ही सेंकते हैं।

हमें पता नहीं था, दूसरे रास्ते से फोरव्हीलर भी पहुंचता है

उनसे विदा लेकर हम दूसरे रास्ते से होकर जाने के लिए कुछ आगे ही बढ़े थे कि वहां हमें जीप खड़ी दिखी। हमने पूछा, क्या यहां तक फोरव्हीलर आ जाता है। जवाब मिला, गाड़ी घर तक आती हैं। हालांकि रास्ता पक्का नहीं है। इस पर फोर व्हीलर कोई कुशल ड्राइवर ही चला सकता है। यह वाहन युवा अरुण का है, जो काटल गांव में ही रहते हैं। बताते हैं, अब चारधाम यात्रा की तैयारी चल रही है। चारधाम यात्रा पर पहाड़ के वाहन स्वामियों, चालकों, परिचालकों को बड़ी उम्मीद रहती है।

कच्चे चौड़े रास्ते से होते हुए हम वापस ग्वाड़ी खाला के पास खड़े अपने वाहन की ओर चल दिए। रास्ते में हमें ग्वाड़ी खाले के बहते पानी ने लुभाया। जहां कुछ देर बैठकर प्रकृति के सौंदर्य का आनंद लिया।

 

Rajesh Pandey

newslive24x7.com टीम के सदस्य राजेश पांडेय, उत्तराखंड के डोईवाला, देहरादून के निवासी और 1996 से पत्रकारिता का हिस्सा। अमर उजाला, दैनिक जागरण और हिन्दुस्तान जैसे प्रमुख हिन्दी समाचार पत्रों में 20 वर्षों तक रिपोर्टिंग और एडिटिंग का अनुभव। बच्चों और हर आयु वर्ग के लिए 100 से अधिक कहानियां और कविताएं लिखीं। स्कूलों और संस्थाओं में बच्चों को कहानियां सुनाना और उनसे संवाद करना जुनून। रुद्रप्रयाग के ‘रेडियो केदार’ के साथ पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाईं और सामुदायिक जागरूकता के लिए काम किया। रेडियो ऋषिकेश के शुरुआती दौर में लगभग छह माह सेवाएं दीं। ऋषिकेश में महिला कीर्तन मंडलियों के माध्यम से स्वच्छता का संदेश दिया। जीवन का मंत्र- बाकी जिंदगी को जी खोलकर जीना चाहता हूं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता: बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक, एलएलबी संपर्क: प्रेमनगर बाजार, डोईवाला, देहरादून, उत्तराखंड-248140 ईमेल: rajeshpandeydw@gmail.com फोन: +91 9760097344

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