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बडेरना में मुश्किलें तो हैं, पर संभावनाएं भी कम नहीं

पर्वतीय क्षेत्रों की बात करें तो वहां जैविक खेती को आय संवर्धन के लिए बेहतर विकल्प के रूप में देखा जाता है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था में कृषि और पशुपालन का योगदान बताने की जरूरत नहीं है, यह सभी जानते हैं।

हमने देहरादून जिला के उन पर्वतीय गांवों में जैविक खेती और पशुपालन से आय के बारे में जानने के लिए बडेरना खुर्द गांव का रुख किया।

बडेरना खुर्द (Baderna Khurd) रायपुर ब्लाक ( Raipur Block) के अंतर्गत हल्द्वाड़ी (Haldwadi) ग्राम पंचायत का गांव है। बड़ेरना खुर्द ही नहीं, बडेरना कलां एवं बडेरना मंझला नाम के गांव भी यहां है। इन गांवों में आबादी लगभग 450 से 500 के बीच बताई जाती है। अधिकतर लोग कृषि एवं पशुपालन करते हैं।

रोजगार और शिक्षा के सिलसिले में लोग ने देहरादून या फिर उन गांवों में बस गए, जहां से रोजगार एवं शिक्षा तक पहुंच आसान है।

थानो, जो कि देहरादून से एयरपोर्ट ( Dehradun Airport) के बीच सड़क मार्ग पर स्थित है, से बडेरना गांव के दो मार्ग हैं, एक तो जोखिम भरा है, पर यहां से दूरी ज्यादा नहीं है। मैं तो किसी को भी इस मार्ग से, जो कि होमगार्ड प्रशिक्षण संस्थान के सामने से होकर जाता है, से बडेरना जाने की सलाह किसी को नहीं दूंगा।

यहां से प्रकृति का सौंदर्य एवं जाखन नदी का विहंगम नजारा तो पेश आता है, पर खतरा मोल नहीं लेना चाहिए।

शुरुआत में पक्की सड़क है, पर इसके बाद चढ़ाई वाला खतरनाक कच्चा रास्ता है। लंबे समय से उम्मीद जताई जा रही है कि यहां सड़क बन जाएगी। मैंने कुछ युवाओं को आसानी से इस पर बाइक चलाते हुए, पर मैं कभी भी इस रास्ते से होकर बडेरना नहीं जाऊंगा।

जब आप चढ़ाई पर हों और बाइक बंद हो जाए तो क्या स्थिति होगी, सोच सकते हैं। मैं पहाड़ के ढलानों पर बाइक चलाने का आदी नहीं हूं, इसलिए मैं ऐसा सोच रहा हूं। मेरे साथी की बाइक रपट गई। उन्होंने खुद को किसी तरह संभाला। बाइक के हैंडब्रेक की वायर टूट गई।

मैंने अपने साथी से कहा, वापस चलो। मेरे बस की बात नहीं है। अब आप ही बताओ, कच्चे, ऊबड़ खाबड़ रास्ते पर बाइक को पैदल खींचना कहां की अकलमंदी है।

वैसे भी वहां मुझे न तो नौकरी का ऑफऱ मिला था और न ही मेरी सेवा शर्तों में वहां जाना लिखा था। मैं तो वहां रहता भी नहीं। मेरे साथी ने कहा, बस यहीं घबरा गए। यह तो कुछ भी नहीं है, पहाड़ के दुर्गम इलाकों में बाइक तो छोड़ो पैदल ही चढ़ उतर कर दिखाओ। तुम क्या जानो पहाड़ की पीड़ा को, पहाड़ में रहने वाले लोगों के सामने आए दिन आने वाली चुनौतियों को। तुम्हारे लिए तो पहाड़ दूर से ही अच्छे हैं।

पहाड़ के किसी गांव में कुछ समय बिताकर तो देखो। इसके लिए हौसला चाहिए दोस्त। स्कूल से घर और घर से स्कूल जाने के लिए ही बच्चे ऐसे रास्ते कई किमी. चढ़ और उतर लेते हैं। वो बोलते रहे और मैं चुपचाप उनको सुनता रहा।

खैर, किसी तरह हम बडेरना मंझला स्थित प्राथमिक स्कूल (Primary School) के पास पहुंच गए। वहां पक्की सड़क देखकर हमारी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। मेरी तो सांस फूल रही थी। प्यास लगी थी, पर राहत भी महसूस कर रहा था। चिंता इस बात की थी, वापस कैसे लौटेंगे इसी रास्ते से, वो भी बाइक के हैंडब्रेक की टूटी तार के साथ।

यहां तो कोई दूर दूर तक नहीं मिलेगा, बाइक की तार जोड़ने वाला। देखा जाएगा… हम अभी ऐसा सोच ही रहे थे कि एक महिला वहां से चारा लेकर घर लौट रही थीं।

हमने उनसे कहा, हमें बडेरना जाना है। उन्होंने कहा, आप यहां बडेरना में ही तो हो। हमने उस व्यक्ति का नाम बताया, जिनसे हमें मिलना था। उन्होंने कहा, आप इस समय बडेरना मंझला गांव में हो। इस पक्की रोड से होते हुए बडेरना खुर्द जाना होगा।

करीब दो किमी. होगा यहां से बडेरना खुर्द। उन्होंने हम से कहा कि आप इस रास्ते से गलत आ गए। आपको धारकोट होते हुए आना था। पक्की सड़क है और जोखिम भी कम है।

हमने इस गांव में कुछ ग्रामीणों से मुलाकात की, जिन्होंने बताया कि यहां घरों पर पाइप लाइन से पानी आता है, पर कई बार स्रोत से ही पानी लाना पड़ता है। स्रोत भी लगभग एक किमी. दूर है, यानी दस या 15 लीटर पानी लाने के लिए आपको दो किमी. चलना पड़ेगा। दिन में लगभग आठ से दस किमी. तो पानी की ही दौड़ है।

पशुओं के लिए भी पानी वहीं से लाना होता है। गर्मियों में तो पानी का संकट बढ़ जाता है। कृषि के लिए मौसम तो अनुकूल है, पर पानी बिन, खेती का क्या मतलब। पानी तो ऊपर वाले यानी ईश्वर की इच्छा पर है। यहां वर्षा जल आधारित कृषि है। यहां गेहूं, धान, हल्दी, अदरक की खेती होती है। इन दिनों खेतों में गेहूं लगा है।

एक ग्रामीण महिला ने, जिन्होंने अपना नाम प्रकाशित करने से मना दिया। उनका कहना था कि पशुओं के लिए चारे की कोई कमी नहीं है, पर ज्यादा पशुओं को पालने का कोई मतलब नहीं है। उनकी भैंस पांच लीटर दूध देती है, पर इस दूध को लेकर कहां जाएं, क्योंकि इस गांव में दूध इकट्ठा करने वाले वाहन नहीं आता। उनके गांव में दूध कोई नहीं खरीदेगा, क्योंकि सभी के पास पशु हैं।

पशुपालन से आय का जरिया हो, तो लोग पशुओं को पालने के लिए प्रोत्साहित होंगे, क्योंकि यहां चारे की कमी नहीं है। वैसे भी अधिकतर ग्रामीण कृषि करते हैं। एक घर में हमें चाय पिलाई गई। शानदार चाय बनाई थी उस बिटिया ने।

घऱ के पास सीढ़ीदार खेत और सामने हरियाली से समृद्ध पहाड़ के दर्शन। वाह, यहां की सुबह और शाम के तो क्या कहने।

वर्तमान में, जहां मैं रहता हूं, वहां ऐसा कुछ नहीं। वर्षों पहले हरे भरे खेतों के बीच से होकर गुजरती पगडंडियां थी, वो भी गायब हो गईं। खेतों में उग आए पक्के मकान। पगडंडियों की जगह नजर आती हैं दूषित पानी वाली नालियां, जिन्होंने साफ पानी वाली नहर को गायब ही कर दिया। उसकी जगह अब मोहल्ले से गंदगी ढोकर ले जाने वाली नाली है।

अब आगे का रास्ता पक्का था। यहां से बडेरना खुर्द की ओर जाने में हमें किसी जोखिम का सामना नहीं करना पड़ा। कुछ ही देर में हम थे बडेरना खुर्द गांव को जोड़ने वाली कच्ची सड़क के पास। शिव मंदिर के पास हमने बाइक खड़ी कर दी और गांव तक लगभग आधा किमी. पैदल ही चलने का निर्णय लिया, क्योंकि शुरू में ही रास्ते की हालत देखकर हमारी हिम्मत जवाब दे गई थी।

आखिरकार हम पहुंच ही गए बडेरना खुर्द गांव में। यहां हमने उन बेटियों से मुलाकात की, जिन्होंने अपनी मां, ताई और अन्य बुजुर्गों को पढ़ना- लिखना सिखाने की मुहिम शुरू की है। यहां पांच-छह घर हैं। यहां पानी बिजली की दिक्कत नहीं है। जब हम यहां पहुंचे तो उस समय अधिकतर लोग खेतों में गए थे।

हमने वहां हरीश खत्री जी से मुलाकात की। हरीश जी, कृषि और पशुपालन करते हैं। उनके पास गाय भैंस के अलावा छोटी बड़ी कुल मिलाकर करीब 30 बकरे बकरियां हैं। पत्नी और बच्चे भी खेती और पशुपालन में हाथ बंटाते हैं।

हरीश बताते हैं कि बकरी पालन आय संवर्धन का शानदार जरिया है। बकरी का दूध तो उतना नहीं हो पाता, पर बड़ा होने पर इनको बेचकर आय होती है। बकरी पालन में काफी मेहनत है। बकरियों के लिए यहां चारा पर्याप्त है। पास में ही जंगल में इनको चराने के लिए ले जाते हैं। हां, जंगल में गुलदार का खतरा रहता है।

उन्होंने बताया कि गाय भैंस पालने के लिए भी चारे की कोई कमी नहीं है, पर दूध कहां ले जाएं। यहां दूध लेने के लिए कोई वाहन नहीं आता। इसलिए लोग पशुपालन से हाथ खींच रहे हैं।

उन्होंने बताया कि यहां से लगभग सौ लीटर दूध फिलहाल हो सकता है, जैसे ही लोगों को यह विश्वास हो जाएगा कि दूध कलेक्शन के लिए गाड़ी नियमित तौर पर आएगी तो पशुपालन के लिए प्रोत्साहित होंगे। पशुपालन बढे़गा तो खेतों में डालने के लिए गोबर की खाद पर्याप्त मात्रा में मिल जाएगी। उनका सीधा सवाल था, जब पशुपालन से मुझे कोई आय नहीं होगी तो मैं पशु क्यों पालूंगा।

हरीश कहते हैं कि लोगों ने अपने खेतों की ओर ध्यान देना कम कर दिया है, जबकि खेती में यहां बहुत संभावनाएं हैं। हल्दी, अदरक की तो यहां कमाल की पैदावार है। उन्होंने यहां से मंडी ले जाकर अदरक, हल्दी बेची है और वहां से बदले में चावल लेकर आए। खेतों को बंदर, खरगोश, हिरन, जंगली सूअर नुकसान पहुंचाते हैं।

शाम करीब पांच बजे तक लोग खेतों से अपने घरों में पहुंच गए थे। हमने वहां बच्चों से बात की। बडेरना खुर्द के बच्चे जूनियर और इंटर कालेज की पढ़ाई के लिए धारकोट जाते हैं। डिग्री कालेज तो डोईवाला में है। धारकोट इंटर कालेज यहां से बच्चों के लिए तो दूर ही है। कोविड-19 संक्रमण के सम. बच्चों ने ऑनलाइन क्लास में उपस्थिति दर्ज कराई, पर कनेक्टिविटी की दिक्कत यहां बनी रहती है।

इस पूरी यात्रा में हमारे साथ थे शिक्षक मित्र जगदीश ग्रामीण जी और वीडियो, फोटो कवरेज में हमेशा की तरह सहयोग देने वाले सार्थक पांडेय। हम पहले से बहुत कम जोखिम वाली, कहीं पक्की तो कहीं कच्ची सड़क पर वाया धारकोट होते हुए थानो पहुंचे। यात्रा सुखद रही।

कुल मिलाकर बडेरना में जैविक खेती, पशुपालन, फल सब्जी उत्पादन की बहुत संभावनाएं हैं। हम शाम करीब छह बजे तक वहां रहे। शानदार पर्यावरण, स्वच्छ हवा और सूर्यास्त के अद्भुत नजारे ने हमारा मन मोह लिया। एक बार बडेरना से भी सूर्यास्त को देखिएगा, आपको बहुत अच्छा लगेगा। अगली बार, फिर किसी पड़ाव पर आपसे मुलाकात करेंगे… तब तक के लिए बहुत सारी शुभकामनाएं…।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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