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Video: एक गांव, जहां कोई नहीं रहता

सुबह आठ बजे से डुगडुगी पाठशाला में पढ़ाने गया। रविवार था तो केशवपुरी के बच्चों के साथ कुछ ज्यादा समय बिताया। गुनगुनी धूप ने आलसी बनाने में भरपूर साथ दिया। मन किया कि छत पर जाकर सो जाऊं। पर, परिवार वाले तो सोचते हैं कि छुट्टी है तो इसका जमकर दोहन किया जाए। पत्नी ने कहा, बहुत दिन हो गए, बहन के घर नहीं गए। वहां चले जाओ और हां.., याद रखना, भोगपुर से सरसो का तेल लेकर आना, सुना है वहां का कड़वा तेल बहुत शुद्ध है।

बाप बेटा यानी मैं और सार्थक चल दिए रानीपोखरी के पास डांडी गांव की ओर। मैंने मन बना लिया था कि आज कहीं घूमने नहीं जाऊंगा। धूप सेकूंगा और भरपूर आलसी बनकर दिखाऊंगा। पर, होनी को तो कुछ और ही मंजूर था। अरे, चिंता की कोई बात नहीं है, जो भी कुछ हुआ… अच्छा ही हुआ।

बहन के घर में चाय, बिस्कुट और गप्पों का आनंद ले रहा था। गप्पें तो मुझे बहुत पसंद हैं। इसी वक्त, शिक्षक मित्र जगदीश ग्रामीण जी का फोन आ गया। एक बार तो यह सोचकर घबरा ही गया कि जगदीश जी कहेंगे… चलो कहीं घूमकर आते हैं। जगदीश जी बहुत घुमक्कड़ हैं, पर घूमने के दौरान बहुत सारी जानकारियां इकट्ठी करते हैं। मैंने फोन उठाने से पहले ही सोच लिया था, बहाना बना दूंगा कि बहन के घर आया हूं।

मैंने जगदीश जी से कहा, बहन के घर आया हूं। वो बोले, कहां पर… मैंने कहा, डांडी गांव में। उन्होंने तुरंत कहा, मैं भी बहन के घर डांडी में ही आया हूं। उनकी बहन का घर भी डांडी में ही है। जल्दी बताओ कहा हो। मैंने उनको पता बता दिया और सादर आमंत्रित कर लिया। जगदीश जी को मिनट नहीं लगा और आते ही बोले, आज का प्रोग्राम क्या है। मैंने कहा, अब तो एक बज गया, कहां जाएंगे।

उन्होंने कहा, कोई बात नहीं, यहीं पास में है टिहरी गढ़वाल जिले का कुशरैला गांव। वहां चलते हैं, बहुत सुंदर गांव है। खाला पार करते ही देहरादून से टिहरी गढ़वाल जिले में। वहां उन लोगों से बात करेंगे, जो बखरोटी गांव से पलायन करके आए हैं।

मैंने उनसे कहा, हमें तो कोई नहीं जानता वहां, कोई हमसे बात क्यों करेगा। ग्रामीण जी बोले, तुम चिंता मत करो, बातचीत हो जाएगी। चलो तो भाई। मैंने सोच लिया कि अब कोई बहाना नहीं चलेगा। भाई, अब तो चलना होगा।

मैंने अपने बहनोई प्रशांत जी को राजी किया, उन्होंने तुरंत कह दिया, चलो घूमकर आते हैं। मैं भी काफी दिनों से कुशरैला की ओर नहीं गया। आपको बता दूं, मैंने कुशरैला गांव का नाम पहली बार सुना। जबकि ऋषिकेश में एक अखबार के लिए कई वर्ष रिपोर्टिंग की है।

डांडी से निकले और पहले ऋषिकेश की ओर आगे बढ़े। लगभग दो सौ मीटर चलकर बाईं ओर मुड़ गए बड़कोट माफी की ओर। कुल दो सौ मीटर चलने के बाद दाहिनी ओर कुशरैला का रास्ता है।

वाह, क्या नजारा है, मोटरसाइकिल ढाल पर आगे बढ़ रही है और हम खुद को हरियाली के बीच पा रहे हैं। मजा आ गया सीढ़ीनुमा खेतों को देखकर। कुछ आगे आए तो कच्चा रास्ता, वो भी ऊबड़-खाबड़, मैंने सोचा कि लगता है कि फिर से किसी और बड़ेरना मंझला गांव की ओऱ ले जाया जा रहा है। ग्रामीण जी तो कह रहे थे कि पास में ही, कोई दिक्कत नहीं होगी, यहां तो बाइक जवाब दे जाएगी।

कुछ देर बाद, एक मैदान सा नजर आया, जिसका रास्ता ढाल से होकर जाता है, पर मुझे तो चढ़ाई पर जाना था।

अब आ ही गया हूं तो वापस नहीं जाऊंगा। देखा जाएगा, मैंने बाइक को चढ़ाई की ओर बढ़ा लिया। ज्यादा नहीं चलना पड़ा, हम यहां एक गांव में थे, जहां एक प्राइमरी स्कूल का भवन है, जिस पर लिखा कुशरैला / बखरोटी। मैंने इस भवन पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। हर गांव में स्कूल होता है, यहां भी है, इसमें खास क्या है। मैं तो गांव में बच्चों और बुजुर्गों से बात करने के मकसद से गया था।

गांव के पास किसी भव्य इमारत का निर्माण हो रहा है। पूछा तो मालूम हुआ कि इंजीनियरिंग कॉलेज बन रहा है। एक ग्रामीण ने बताया कि कॉलेज बनने से गांव का विकास होगा। यहां तक सड़क बन जाएगी। बाहर से बहुत संख्या में बच्चे पढ़ने आएंगे। कहते हैं कि किसी क्षेत्र में कॉलेज, संस्थान, फैक्ट्री, सरकारी दफ्तर बनने से क्षेत्र का विकास होता है, क्योंकि वहां लोगों का आवागमन होता है।

यहां कॉलेज बनेगा तो बच्चे यहीं हॉस्टल में रहेंगे या आसपास किराये के कमरों में रहेंगे। जैसा कि देहरादून के प्रेमनगर के आसपास के मांडूवाला, बुधोली, जोगीवाला के पास रिंग रोड, ऋषिकेश रोड पर भानियावाला, जौलीग्रांट क्षेत्र, मियांवाला, बालावाला, लालतप्पड़, छिद्दरवाला, सेलाकुई, मसूरी रोड पर राजपुर, सहस्रधारा रोड, रायपुर क्षेत्र, गुमानीवाला, श्यामपुर आदि क्षेत्रों का विकास हुआ है, ऐसा ही कुछ यहां हो सकता है।

खैर, अब आगे की बात करते हैं। हमें मालूम हुआ कि बखरोटी गांव तो यहां से बहुत आगे है, जहां इस समय कोई नहीं रहता। गांव खाली है, लोग कुशरैला या बड़कोट माफी में आकर बस गए हैं। मेरी उत्सुकता अब बखरोटी गांव को देखने की थी। मैं जानना चाहता था कि तमाम संभावनाओं के बाद भी, उस गांव में ऐसी क्या चुनौतियां हैं, जिनकी वजह से लोगों ने अपने मकान, खेतों को छोड़ दिया।

मैंने पूछा कितना दूर होगा यहां से। ग्रामीण जी ने बताया, वहां नहीं जा सकते अब। बाइक का रास्ता नहीं है, पैदल जाने आने में शाम हो जाएगी।

मैंने फिर पूछा, कितना दूर है बताओ। मुझे जाना है उस गांव में। वो बोले, करीब ढाई किमी. होगा। पूरा रास्ता जंगल में से है और चढ़ाई है… वैसे भी उस गांव में कोई नहीं रहता। किससे बात करोगे, गांव के सभी लोग यहीं पास में रहते हैं, उनसे बात कर लेते हैं।

मैंने कहा, बात तो तभी कर पाएंगे, जब हम उन दिक्कतों को मौके पर जाकर महसूस करेंगे। लगता है, ग्रामीण जी, प्रशांत जी मेरी परीक्षा ले रहे थे। उन्होंने तुरंत कहा, तो बाइक को किनारे खड़ी कर दो और चलो बखरोटी के ऊबड़ खाबड़, पथरीले, जगह-जगह गदेरों वाले कच्चे रास्ते पर।

रास्ते में तुम्हें पशुओं को चराने वाले लोग मिलेंगे, उनसे बातें करेंगे। उनकी दुनिया हमारी तरह भागदौड़ वाली नहीं है, इसलिए जीवन को धीमे धीमे आगे बढ़ाने के तरीके पर बातें करेंगे।

हम आगे बढ़ गए, थोड़ा ही आगे बढ़े होंगे चढ़ाई पर, मेरी सांस फूलने लगी। पर उत्सुकता ने उत्साहवर्धन किया। कुछ ही दूरी पर जंगली खाला मिला, जो बता रहा था कि बरसात में जंगल में जल का प्रवाह व प्रभाव क्या होता होगा। बखरोटी के निवासी इस खाले को बरसात में कैसे पार करते होंगे। बच्चे तो पांचवीं पास करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए भोगपुर या रानीपोखरी के विद्यालयों में कैसे आते होंगे। मुझे तो सोचकर ही यह दृश्य डरा रहा है।

सांस फूलने के बाद भी मैं पूरी यात्रा को कैमरे की मदद से आप सभी तक पहुंचाने का इंतजाम कर रहा था। मैं बताने की कोशिश कर रहा था कि पलायन क्यों होता है, बखरोटी जैसे गांवों से। टिहरी गढ़वाल जिले का यह गांव, देहरादून जिला मुख्यालय और इसकी डोईवाला व ऋषिकेश तहसीलों के ज्यादा नजदीक है, न कि टिहरी जिला के नरेंद्रनगर व फकोट ब्लाक के। फिर भी यह टिहरी गढ़वाल जिले का हिस्सा।

कोडारना ग्राम पंचायत के गांव बखरोटी तक जाने वाला जंगली रास्ता, कुछ देर तक देहरादून ऋषिकेश मार्ग के समानांतर ही चल रहा था। मुख्य मार्ग पर चलने वाली गाड़ियों की आवाज साफ सुनाई दे रही थी। हम थोड़ा और आगे बढ़े, यही कोई एक किमी., जंगल घना होता गया। रास्तेभर जंगली में बिखरी पड़ी सूखी पत्तियां, जिन पर चलने में आवाज सुनाई दे रही थी।

कहीं कहीं एक तरफ ढांग से लगा रास्ता, केवल एक बार में एक ही व्यक्ति के लिए, क्योंकि दूसरी तरफ खाई, जरा सा भी असंतुलन, नुकसानदेह हो सकता था। हमें पता है कि हम निर्जन गांव में जा रहे हैं। इस रास्ते का इस्तेमाल इक्का दुक्का लोग ही करते होंगे, इसलिए इस रास्ते की हालत खराब है।

एक विचार तो यह भी आया कि सरकार यहां सड़क क्यों बनाएगी, किसके लिए बनाएगी। पर इसके उलट विचार यह है कि सरकार सड़क बनाएगी, तभी तो लोग यहां से आ- जा सकेंगे और एक गांव, जो बेहद सुंदर है, संभावनाओं वाला है, फिर से आबाद हो जाएगा। वहां से बहुत सारे परिवारों की यादें जुड़ी हैं, जिनको वो हर पल संजीदगी के साथ मन और मस्तिष्क में सहेज कर रखना चाहते हैं।

वो चाहते हैं कि उनका गांव अविरल गुलजार रहे। सुबह और शाम टिमटिमाते तारों वाले आसमां से संवाद में किसी का दखल न हो। सूरज की किरणें बिना किसी बाधा के गांव की मिट्टी को चूमकर हर घर- आंगन को रोशन कर दें और खुशियाली व हरियाली से भर दें।

मैं तो हांफ रहा था, मैंने बीच रास्ते में पूछा, कहीं पानी मिलेगा। ग्रामीण जी ने कहा, यहां तो नहीं मिलेगा। गांव में मिल सकता है पानी। यह सुनकर मुझे कुछ राहत मिली, पर मेरा सवाल बरकरार था, कितना दूर होगा गांव। ग्रामीण जी ने कहा, अभी चले ही कितना हैं। धीरज रखो, गांव अभी दूर है। मैंने कहा, यहां हवा टाइट हो गई, बुरी तरह हांफ गया, गला सूख गया, गांव अभी भी दूर है। पर, वापस नहीं जाना है, इसलिए देखा जाएगा।

मेरा बेटा सार्थक और प्रशांत जी मुझ पर हंस रहे थे। प्रशांत जी बोले, भैया आपकी डायबिटिज छू मंतर हो जाएगी, अगर इतना रोज पैदल चलोगे। भैया, सेहत ठीक हो जाएगी, आप धीरे-धीरे चलो। इधर उधर मत देखो, अपने रास्ते पर ध्यान दो। यहां तो शुद्ध वायु है, चारों तरफ हरियाली है, आनंद लीजिएगा। यह सोचना बंद करो कि गांव तक पहुंचने के लिए अभी बहुत चलना है।

हमें रास्ते में गदेरे दिखे, इनको देखने से लग रहा था कि ये बरसात में डराते होंगे। आखिरकार हम गांव पहुंच गए, जहां दोमंजिला भवन हैं। खिड़कियां और दरवाजे हैं। टीन की छतें हैं, घरों के सामने सुंदर आंगन हैं, पास ही बागीचे हैं, दूर तक खेत दिखाई देते हैं। खेतों के बीच में आम, अमरूद, आंवला, नींबू… के पेड़ खड़े हैं। कुछ खेतों में हल्दी बोई गई है। हल्दी इसलिए, क्योंकि जंगली जीव हल्दी को पसंद नहीं करते।

अरे, वो क्या है… दूर एक खंडहरनुमा भवन को देखकर मैं बोला। मैं पास पहुंचा तो पता चला कि यह तो बखरोटी का प्राइमरी स्कूल है, जो लगता है बच्चों का इंतजार कर रहा है। स्कूल की दीवार पर उसका नाम लिखा था, जो मिट रहा है, ठीक उसके अस्तित्व की तरह। तीन कमरों और बरामदे वाले विद्यालय के सबसे बड़े कमरे के ब्लैक बोर्ड पर आप चॉक से अभी भी कुछ लिख सकते हैं। लगता है कि ब्लैक बोर्ड चाहता भी है कि उस पर रंगीन चॉक से बच्चों के लिए कोई सुंदर सा फूल बना दिया जाए, जिसे देखकर उनके चेहरे खिलखिला उठें।

इस कक्ष की खिड़की से दिखता है नरेंद्रनगर शहर और पास ही खड़ा आम का पेड़। नरेंद्रनगर तो यहां से बहुत दूर है, शाम को यहां से नरेंद्रनगर को देखने से मन को कितना अच्छा लगता होगा। ठीक देहरादून की ऊंची छतों से मसूरी की टिमटिमाते तारों वाली जगमग को देखने की तरह।

मैं तो वर्षों पहले तक डोईवाला में अपने घर की छत से मसूरी में चमकती लाइटों को साफ-साफ देख लेता था, पर अब दिक्कत होती है, शायद प्रदूषण की वजह से। अरे भाई, उस आम के पेड़ को तो हम भूल ही जा रहे हैं, जो स्कूल के पीछे खड़ा होकर बच्चों को रिझाता होगा कि छुट्टी के बाद मेरे पास तुम्हारे लिए मीठे फल हैं। हां…अगर मन करे तो दोपहर की कक्षाएं मेरे पास बैठकर पढ़ सकते हो। मेरे पास बहुत सारी छाया है छोटे बच्चों के लिए।

गांव से वापस आकर हमने मुलाकात की, कोडरना ग्राम पंचायत के पूर्व प्रधान बुद्धि प्रकाश जोशी जी से। करीब 80 साल के बुजुर्ग जोशी जी का बचपन बखरोटी गांव में ही बीता। बताते हैं कि सरकार वहां तक सड़क बना देती है तो गांव लौट जाऊंगा, मेरे गांव में बहुत संभावनाएं हैं। वहां की मिट्टी बहुत उपजाऊ है, हमने ऊसर भूमि पर एक साल में तीन-तीन फसलें ली हैं। वर्षा आधारित खेती है, पर कृषि व बागवानी के क्या कहने। हमने कई साल पहले बखरोटी गांव को छोड़ दिया, पर स्रोत से आ रहे पानी का बिल आज भी भरते हैं। हमें अपने गांव में रहना था, इसलिए वहां पेयजल योजना को लेकर गए।

बताते हैं कि वहां बिजली नहीं है। जंगल का रास्ता है, रास्ते में गदेरे हैं, जो बरसात में बड़ी बाधा हैं। पांचवीं तक स्कूल 1978 में खुला था। उनको तो बचपन में करीब चाढ़े चार किमी. चलकर स्कूल आना पड़ता था। पांचवीं के बाद से स्नातक तक की पढ़ाई तो देहरादून या फिर ऋषिकेश में होती है। छठीं से इंटर कालेज तक की पढ़ाई के लिए भोगपुर या रानीपोखरी के इंटर कालेज हैं।

उन्होंने बताया कि बखरोटी ने आदर्श गांव के रूप में प्रसिद्धि हासिल की। हमारे गांव में कोई तंबाकू तक का नशा नहीं कर सकता था। सबसे अच्छा व्यवहार, अपनी संस्कृति एवं संस्कारों को बनाए रखा हमारे गांव ने। अब गांव में कोई नहीं रहता।

जोशी जी के सुपुत्र मदन मोहन जोशी जी, राजकीय शिक्षक हैं। बताते हैं कि गांव में वापस जा सकते हैं, पर आवागमन की सुविधा तो हो। उन्होंने बताया कि बखरोटी गांव में जैविक खेती एवं बागवानी की बहुत संभावनाएं हैं। पहले जब गांव में रहते थे, तब पानी की व्यवस्था नहीं थी। लोग कई किमी. चलकर स्रोत से घड़ों में पानी ढोते थे। पशुओं को पिलाने के लिए भी पानी स्रोत से लाना पड़ता था। बाद में पेयजल योजना स्वीकृत हुई। अब भी स्रोत से पानी आता है। गांव में जंगली जानवर, यहां तक कि हाथी भी भ्रमण करते हैं। दिक्कतें हैं और संसाधन व सुविधाएं नहीं थी, इसलिए मजबूरी में पलायन करना पड़ा।

Key Words- villages in india, Villages of Uttarakhand, Education in UttarakhandMountain village, villages of uttarakhand. migration

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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