खुद की ओर:बुद्ध
उमेश राय
धरती का प्रकाश-निधि,
अंधेरे में अभय खड़ा सर्जक!
जब सारे धर्म आवाज देते हैं,
आस्था व विश्वास को प्राथमिक बनाकर,
बुद्ध ने आत्म-दीप को बनाया महनीय…
खुद को टटोलो,
खुलो,मिलो…
आत्म-संवाद आज खत्म हो गया है बुद्ध!
बल-बलात्कार,हिंसा-प्रतिहिंसा,छल-छद्म,बहुरूपता बढ़ रही लगातार,
आओ,फिर एक बार……..
बुद्ध,बुद्धि से आबद्ध न रहे,
हृदय की सजगता में सन्नद्ध रहे,
प्रश्नचित्त क्या कभी प्रसन्नचित हो सकता है?
कभी नहीं…
बुद्ध,प्रश्नचित्त के समक्ष मौन है…
मौन भी परम संवाद है,
आत्म-साक्षात्कार का संवादी सुर….
बुद्ध, करुणा के प्रति विनत है,
सत्य के प्रति जागरूक..
प्रेम के प्रति उदात्त भी हैं वे. जरूर पढ़ें- समय के रोते-खोते पल- पलक
क्षुधित मानवता अब भी निहारती है तुम्हें प्रवाही पथ में,
आ जाओ, महाकरुणा के सागर,
नदी के विलय का रसायन है तुम्हारे पास…
जब चाह असीम है,
सुख की अभिलाषा उपभोग में देख रहा आज का निस्तेज मन..
खुद की थाह से दूर है राह उसकी,
एक अंतहीन अतृप्ति,अभाव,अहं में ग्रस्त है जीवन,
तब हे बुद्ध! तुम याद आते हो,
आना, महाभिनिष्क्रमण करना फिर-फिर…
आखिर, खुद की असीम संपदा से अनजान मानव,
भटक गया है असंतुलन की तुला में,
जहाँ न्याय नहीं, प्रेय नहीं,
हिंसक श्रेय है, अहं का गेय है…
अमृत का पेय कब का है रिक्त,
रिक्तता, सृजन नहीं कर सकती,
केवल, सृजन का भ्रम रचती है…
और भ्रम में भ्रमण, मनुष्यता का अतिक्रमण है….