डोईवाला में 82 साल के बुजुर्ग 65 साल से चला रहे एक कारखाना
1947 में दंगों के दौरान गंगोह लौट गए उनके परिवार को डोईवाला के कुछ लोग वापस लाए
राजेश पांडेय। न्यूज लाइव
82 साल के मोहम्मद इशहाक बताते हैं, “मेरे पिता मोहम्मद इस्माइल लगभग 120 साल पहले डोईवाला आ गए थे। जड़ी बूटी का तेल निकालने के कारखाने में काम करने के लिए 1905 में अंग्रेज उनको लेकर आए थे, जबकि वो देहरादून से यहां नहीं आना चाहते थे। बाद में, हमारे पूर्वज देहरादून छोड़कर यहीं बस गए।”
“डोईवाला चौक पर लोहे के कृषि औजार बनाने के लिए दुकान खोली और लगभग 32 साल तक हमारा परिवार यहीं रहा। मेरा जन्म भी यहीं हुआ। 1947 में बंटवारे का झगड़ा शुरू हो गया। पिता को इस झगड़े का अंदाजा नहीं था। हमारा परिवार सबकुछ यहीं छोड़कर गंगोह, सहारनपुर लौट गया। वहां कोई झगड़ा नहीं था। शुक्र है कि हम सभी सुरक्षित वहां पहुंच गए। कुछ साल वहीं रहे।”
“वर्ष 1949-50 का समय था, डोईवाला से कुछ लोग गंगोह गए और हमारे परिवार को डोईवाला आकर फिर से काम शुरू करने को कहा। उन्होंने हमें यहां, आज जिस जगह पर हमारा कारखाना है, में जगह दी। पिताजी ने काम शुरू कर दिया। मैं उस वक्त छोटा था। उस समय मेरी उम्र 16-17 साल होगी, पिता का इंतकाल हो गया। हम अकेले पड़ गए। कारखाना चलाने की जिम्मेदारी संभालनी पड़ी। पर, मैंने बड़े शौक से कारखाना चलाया। अब लगभग 65 साल से यहीं इसी दुकान पर बैठकर काम कर रहा हूं। बेटे भी पूरा सहयोग करते हैं।”
डोईवाला के चीनी मिल रोड पर कारखाने की भट्टी के पास बैठे मोहम्मद इशहाक,पुराने दिनों को साझा कर रहे थे। वो डोईवाला के पुराने दिनों की बातें सुनाने के लिए हमेशा उत्सुक रहते हैं। उनके पूर्वज गंगोह से पहले देहरादून और फिर देहरादून से डोईवाला आए।
बताते हैं, “आज भी दुकान पर बैठता हूं, इस दुकान से मेरा बहुत लगाव है। एक-डेढ़ साल से इस काम में कुछ कमी आई है, बाहर से लोग आ रहे हैं, फेरी वाले आ रहे हैं, पर हम तो अपने ठीये पर ही मिलेंगे। पहले हम खुद दरातियां, कुल्हाड़े, गेंतियां बनाते थे, अब ये सबकुछ रेडीमेड आ रहा है। हल बनाने से लेकर लकड़ी के पहियों पर लोहा चढ़ाने का काम अब नहीं रहा। पर, कृषि औजारों पर धार देने का काम अभी भी होता है।”
मोहम्मद इशहाक कहते हैं, “काम तो पहले वाला ही है, फर्क मशीनों का हो गया है। हमने मशीनों से काम नहीं किया, हाथ से हो सकने वाले काम करते हैं। हमने सरकार से सहयोग नहीं लिया, न ही बैंक से कोई लोन लिया। जितना काम हो सकता है, उतना ही करते हैं। अब तो वैसे भी रेडीमेड औजार आ रहे हैं। पहले लोहे को भारी हथौड़े से पीटकर औजार बनाए जाते थे। अब तो केवल धार देने का काम हो रहा है। बैलगाड़ियों के पहिए लकड़ी के थे, जिन पर लोहे की परत चढ़ाई जाती थी।”
एक टाइम था, “जब किसान पूरा दिन यहां बैठकर अपने सामने कृषि औजार तैयार कराते थे। यहां किसान बैठे रहते थे। इससे हमारा हौसला बढ़ता था। कुछ लोगों को हम समय देते थे कि उस दिन आकर औजार ले जाना। अब तो किसी के पास समय ही नहीं है, वो चाहते हैं तुरंत हो जाए।”
मुझे गर्व होता है, “65 साल तक एक ही जगह पर कारखाना चलाने पर, अपने काम पर, ईमानदारी और मेहनत पर। यह मालिक का शुक्र है, इस उम्र में शारीरिक कठिनाइयां होने के बाद भी मुझे इस काम में कभी थकान नहीं हुई।”
बताते हैं, “मेरे बेटे तो इस हुनर को सीखे और अपने बच्चों को पढ़ाया लिखाया। पर, मुझे लगता है कि पढ़ लिखने के बाद बच्चे या तो कुछ और काम करेंगे या फिर इसी कारखाने का स्वरूप बदलेंगे। कारखाने को नया रूप देंगे। यहां वो फैक्ट्रियों से रेडीमेड सामान लाकर बेचेंगे।”