- डॉ. विवेक सिंह (एडिशनल प्रोफेसर)
अस्थि रोग विभाग (Orthopedic Department) एम्स ऋषिकेश - यह लेख एम्स ऋषिकेश की पत्रिका स्वास्थ्य चेतना में प्रकाशित हुआ है।
चिकित्सा विज्ञान की वह पद्धति जिसमे अस्थि एवं जोड़ों के रोगों का उपचार किया जाता है, इसको सामान्यतः ऑर्थोपेडिक चिकित्सा कहा जाता है।
ऑर्थोपेडिक प्रायः आपातकाल में आघात एवं हताहत रोगियों का इलाज करते हैं, जिसमे वे विभिन्न फ्रैक्वर (हड्डी का टूटना) तथा लिगामेंट की चोटों का उपचार करते हैं, यही चिकित्सक ओ.पी.डी. में हड्डी एवं जोड़ से संबंधित अन्य बीमारियां जैसे रीढ़ की समस्याएं, अस्थि कैंसर संक्रमण एवं अस्थि की जन्मजात बीमारियों का उपचार करते हैं। पिछले कुछ वर्षों में ऑर्थोपेडिक चिकित्सा भी आगे नई पद्धतियों में विभाजित हो गई हैं जिसमे चार मुख्य हैं-
1. पीडियाट्रिक ऑर्थोपेडिकः इसमें 16 वर्ष से कम उम्र के बालकों एवं बालिकाओं में अस्थि एवं जोड़ से संबंधित रोगों का उपचार होता है।
2. स्पाइन सर्जरी-इसमें रीढ़ की हड्डियों से संबंधित सभी रोगों को देखा जाता है।
3. ऑर्थोप्लास्टी-इसमें ऐसे जोड़ों का प्रत्यारोपण किया जाता है, जो किसी बीमारी या बढ़ती उम्र के कारण ख़राब हो जाते हैं।
4. ऑर्थोपेडिक ऑन्कोलॉजी- इसमें अस्थि से सम्बंधित कैंसर का इलाज किया जाता है।
इस लेख में हम पीडियाट्रिक ऑर्थोपेडिक से संबंधित कुछ बीमारियों पर चर्चा करेंगे।
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क्लब फुट (Club foot)- यह एक जन्मजात बीमारी है, जिसमें बच्चे के एक या दोनों पैर जन्म से ही अंदर की तरफ मुड़े हुए होते हैं, यदि इस बीमारी का उपचार समय पर न किया जाए तो बालकों को अत्यंत कठिनाई होती है एवं पैर के जोड़ किशोरावस्था तक आते-आते ख़राब होने लगते हैं।
यदि शिशु के पैर अंदर की तरफ मुड़े हों एवं एड़ी ऊपर की तरफ हो-तो तुरंत शिशु को चिकित्सक को दिखाना चाहिए।
प्रायः बालक जब दो सप्ताह का हो जाता है तो प्लास्टर कास्ट लगाकर पैरों को धीरे-धीरे सीधा किया जाता है। यह प्लास्टर प्रत्येक सप्ताह बदला जाता है। प्राय: 8-10 सप्ताह में बच्चे के पैर सीधे हो जाते हैं एवं उसके बाद बालक को एक प्रकार का जूता (Brace) दिया जाता है, जिसको बालक को रात को सोते समय 5 वर्ष की आयु तक पहनाना होता है।
यदि बालक को चिकित्सक को सही समय पर नहीं दिखाया जाता एवं माता पिता देरी करें तो जटिल शल्य चिकित्सा की भी आवश्यकता होती है, अतः क्लब फुट बीमारी से ग्रसित शिशु को जल्द से जल्द चिकित्सक को दिखाना चाहिए।
सेरेब्रल पाल्सी (C.P.): सेरेब्रल पाल्सी (CP-Cerebral palsy) नामक बीमारी एक शिशु को तब होती है, जब भ्रूण (शिशु) को विकसित होते दिमाग में ऑक्सीजन की कमी किसी कारण से हो जाए, जैसे कि जन्म लेते समय डिलीवरी में समस्या या शिशु का 09 माह से पहले जन्म लेना, अथवा जन्म के समय शिशु का वजन अत्यंत कम होना, इसके अलावा जन्म के बाद भी तीन वर्ष की आयु तक भी अगर बालक के विकसित होते मस्तिष्क में ऑक्सीजन की कमी हो जाए, जैसे पानी में डूबना, दिमागी बुखार होना आदि।
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C.P. से ग्रसित बालक की पहली पहचान तब होती है, जब यह बालक अपनी उम्र के हिसाब से विकसित नहीं होता। प्रायः बालक 06- 08 माह की उम्र में बैठने लगता है और 12-18 माह में चलने लगता है। 03 वर्ष की उम्र में बड़ों की तरह सीढ़ी चढ़ने लगता है।
यदि कोई बालक यह सारे कार्य करने में देरी करे तो उसको सेरेब्रल पाल्सी (C.P) हो सकता है, इस बीमारी में मांसपेशियां अकड़ी हुई होती हैं, जो कि जोड़ों को भी प्रभावित करती हैं । अलग-अलग उम्र में अलग दवाओं एवं छोटे-छोटे ऑप्रेशन के द्वारा काफी हद तक बालक को चलने योग्य एवं स्वावलम्बी बनाया जा सकता है।
हिप डिस्प्लेसिया (DDH)- DDH एक ऐसी जन्मजात बीमारी होती है, जिसमें शिशु का एक या दोनों कूल्हों के जोड़ अपनी जगह से हटे हुए होते हैं। यदि इस बीमारी का उपचार सही समय पर न हो तो धीरे-धीरे कूल्हे का जोड़ ख़राब हो जाता है, जिससे बालक को चलने में दर्द होता है एवं लंगड़ापन भी होता है।
दुनिया के कई देशों में DDH को सही समय में पकड़ने के लिए जन्म के फ़ौरन बाद शिशु के कूल्हे का अल्ट्रासाउंड किया जाता है, किन्तु भारत में अभी यह सुविधा प्रायः उपलब्ध नहीं है, और यदि है भी तो कुछ चुनिंदा अस्पतालों में ही।
बालक जब एक वर्ष का हो जाता है और चलना शुरू करता है, तो माता पिता को लगता है कि बच्चे के दोनों पैरों की लम्बाई एक समान नहीं है एवं उसे चलने में दिक्कत हो रही है। ऐसी स्थिति में जब बालक को अस्थि रोग विशेषज्ञ को दिखाया जाता है तो एक्स-रे के माध्यम से DDH का पता चलता है।
यदि बालक डेढ़ साल से कम उम्र का हो तो प्रायः प्लास्टर के माध्यम से कूल्हे का जोड़ अपनी जगह बैठाया जा सकता है। 2-3 वर्ष के बालक में बड़े ऑपरेशन की आवश्यकता पड़ती है।
यह बीमारी ला-इलाज नहीं है, किन्तु सही समय पर निदान एवं उपचार आवश्यक है।
ऑस्टिओमाइलाइटिस (OM):– ऑस्टिओमाइलाइटिस हड्डी का संक्रमण ऑस्टिओमाइलाइटिस (OM) बच्चों की हड्डी की एक गंभीर बीमारी है। यह बीमारी जन्मजात नहीं होती। हड्डी का संक्रमण सबसे ज्यादा पैर की हड्डी टीबिया, फीमर एवं हाथ की हड्डी हुमेरेस (Humerus) में सबसे ज्यादा होता है, शुरू में बालकों को दर्द एवं सूजन होती है एवं तेज ज्वर भी आता है। बच्चों को चलने में कठिनाई नहीं होती है।
शुरुआती समय में इसे एक्यूट ऑस्टिओमाइलाइटिस (Acute Osteomyelitis) बोला जाता है।
यदि बालक को इस स्टेज (6 हफ्ते) तक अस्थि रोग विशेषज्ञ को दिखा दिया जाए तो सिर्फ दवाइयों एवं छोटे से चीरे द्वारा पस को निकाल देने से काफी हद तक बीमारी पर काबू पा लिया जाता है। यदि समय पर इलाज न किया जाए तो बीमारी क्रॉनिक ऑस्टिओमाइलाइटिस (Cronic Osteomyelitis) में बदल जाती है, जो कि अत्यंत गंभीर समस्या होती है। इस स्टेज में हड्डी के कई सारे ऑपरेशन करने पड़ सकते हैं। कई बार हड्डी कमजोर होकर टूट भी जाती है, जिसको जोड़ना अत्यंत मुश्किल होता है।
चिकित्सक प्रायः ऑपरेशन के दौरान गली हुई अस्थि को निकालकर उस स्थान पर बोन सीमेंट भर देते हैं, जिससे एंटीबायोटिक दवा का रिसाव होता रहता है, जो कि संक्रमण को धीरे-धीरे खत्म कर देता है।
ऑस्टिओमायलाइटिस बीमारी उन बच्चों में अधिक होती है, जो सही आहार नहीं लेते, कमजोर होते हैं और जिनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होती है। अतः हड्डी के संक्रमण को रोकने तथा खत्म करने में एक अच्छी प्रोटीन, वसा एवं कार्बोहाइड्रेट युक्त संतुलित आहार भी अत्यंत आवश्यक है।
इस प्रकार हमने देखा कि बालकों में अस्थि से संबंधित रोग जन्मजात भी हो सकते हैं, एवं जन्म के बाद भी हो सकते हैं। अधिकतर रोग असाध्य नहीं है, अतः उनका सही समय पर निदान एवं उपचार कर लिया जाए।
- एम्स ऋषिकेश के अस्थिरोग विभाग में डॉ. विवेक सिंह का यह लेख एम्स ऋषिकेश की पत्रिका स्वास्थ्य चेतना में प्रकाशित हुआ है। डॉ. विवेक सिंह अस्थि रोग विशेषज्ञ हैं। स्वास्थ्य चेतना पत्रिका का प्रकाशन एम्स ऋषिकेश की आउटरीच सेल द्वारा किया जा रहा है।