आदमी में गांव
नीलम पांडेय “नील”
किसी पुरानी किताब
के कई छुटे पन्ने धुमिल
स्याही के आखरों जैसे
क्ई गांव बुढ़ा गये और
कुछ पलायन में खो गये,
व निगल गयी,आधुनिकता ।
सही में विकास की राह
कई बार बेमानी होती है
सीधे सरल लोग जो हैं
गुम जाते व खो जाते हैं
और कौन रिझेगा सपने सरीखी
बातों से, गर पढ लिख जाएंगें ।
पुराने बुढे गांव भी एकबार
पहल कर जायेंगें, यदि
भुल से कदम बढ जाते
उन पगडंडियों में कभी
तो टुटे बचे अवशेष आज
कई कहानियां कहती हैं ।
कहीं मौन सहमति में लोग
अनायास आज को गले
लगाने के हौसले बस
चाहे अनचाहे ही सही
अब बुलंद कर रहे हैं ,मन
के लिबास बदल रहे हैं ।
बस बातों में गावं कभी
राजनीति ,कभी धरम में,
बजट पालिसी के पन्नों
व विकास की भाषा से
गरीब की पीठ में चने भुनते
बड़े ही फल फूल रहे हैं ।
जहां मिट्टी कुरेदो उधर एक
नया उगता नेता,और पद हैं,
पदों की राह चाह में वादे
और विकास टटोलता आदमी
ऐसे ही गांव में कहीं आदमी
आदमी में गांव शायद बचा है ।