बात पुरानी हैः कोठार भरे रहने पर भी महिलाओं को भरपेट खाना नहीं मिलता था
80 साल की बुजुर्ग स्वारी देवी बोलीं, अब बहुत अच्छी है महिलाओं की स्थिति
राजेश पांडेय। न्यूज लाइव
“पहले के समय में महिलाएं जब भी मिलतीं थीं, तो यही बातें करती कि आज मुझे खाना कम मिला। अगर कुछ और खाने को मिलता तो मैं खा लेती। महिलाओं को कितना खाना दिया जाना है, उस समय उनके परिवार के बड़े बुजुर्ग ही तय करते थे, जबकि उस समय घरों में अनाज की कोई कमी नहीं थी, खेतीबाड़ी में आज की तुलना में ज्यादा फसल मिलती थी। कोठार भरे रहते थे, पर महिलाओं को भरपेट खाना नहीं मिलता था, ” ढिमकला गांव की स्वारी देवी पहले और आज के जमाने में क्या फर्क है, पर बात कर रही थीं।
रुद्रप्रयाग जिला के क्यूड़ी ग्राम सभा के ढिमकला गांव की करीब 80 वर्षीय स्वारी देवी कहती हैं, महिलाओं की स्थिति आज बहुत अच्छी है। अब महिलाएं अपनी इच्छा से खेतीबाड़ी और घर के कामकाज करती हैं। भले ही इन दिनों खेतों से ज्यादा कुछ नहीं मिल पाता, पर पहले की तरह महिलाओं को भूखे पेट नहीं रहना पड़ता। वो अपनी इच्छा से बाजार से खरीदकर कुछ खा सकती हैं, पहले ऐसा नहीं होता था। गढ़वाली बोली में अपनी बात कहते हुए स्वारी देवी, हमें बताती हैं, पहले के लोग अनाज को इसलिए इकट्ठा करते थे, ताकि ज्यादा से ज्यादा बाजार में बेचा जा सके। पर, अब जमाना बदल गया, इस समय पहले घर के लिए अनाज रखा जाता है, जो बचता है, उसको ही बेचा जाता है।
उनकी पुत्री माया, जो इन दिनों मायके में आई हैं, स्वारी देवी की बात को हिन्दी में रूपान्तरित करके बताती हैं। स्वारी देवी के अनुसार, पहले अधिकतर परिवारों में महिलाएं खेतों में पूरा दिन मेहनत करती थीं और खाना भरपेट नहीं मिलता था। झंगोरा मिला मट्ठा उबाल कर महिलाएं पीती थीं।
बुजुर्ग स्वारी देवी बताती हैं, पहाड़ में खेतीबाड़ी की स्थिति पहले की तरह नहीं है। पहले यहां क्या नहीं उगता था, अब भी बहुत कुछ उग सकता है, पर जीव जंतु (जंगलों से आने वाले जानवर) कुछ नहीं छोड़ते। हमारा राशन (अनाज) तो जीव जंतु खा जाते हैं। हमें तो लगता है, पहाड़ में कठोर परिश्रम करने वाले किसान जंगली जानवरों के लिए फसल उगा रहे हैं। अब बहुत सुविधाएं हैं, पर खेती से गुजारा नहीं होता। किसान खेतों में रातदिन काम करते थे। उन्होंने भी खेतों में बहुत काम किया, अब उम्र बढ़ने के साथ ताकत नहीं है खेतों में काम करने की। हमने अपने खेतों में चावल, कोदा, झंगोरा, कौणी, तरह तरह की दालें, काकड़ी, संतरा बहुत कुछ उगाया। कोठार भरे रहते थे। हमें बाजार से कुछ नहीं खरीदना पड़ता था। अब किसान को भी बाजार से अनाज, चावल, सब्जियां तक खरीदने पड़ रहे हैं।
उनकी पुत्रवधु राजेश्वरी बताती हैं, खेती को जानवर बहुत नुकसान पहुंचाते हैं। हमारे घर के आसपास उगने वाली फसल भी नहीं मिल पाती। सुबह चार बजे सोकर उठते थे, शाम पांच बजे खेतों में काम करते हैं। हमने उनसे पूछा, क्या आपको गुस्सा आता है, उनका जवाब था, गुस्सा किस पर करना। कुछ नहीं मिलता तो सुअर, बंदर खा जाते हैं।
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स्वारी देवी के अनुसार, जंदरी ( हाथ से अनाज पीसने वाली चक्की) घुमाकर रोज के लिए गेहूं पीसती थीं। उस समय बिजली नहीं थी, मिट्टी तेल के लैंप जलाते थे। दो से तीन किमी. दूर से पानी पीठ पर ढोकर घर लाते थे। पहले लोग पानी कम खर्च करते थे। अब जितना इच्छा हो, पानी खर्च किया जाता है। अब तो पानी घर पर ही पहुंच रहा है। पहले लैट्रिन बाथरूम नहीं होते थे। उस समय बहुत कष्ट था। लकड़ियां जलाकर चूल्हे पर खाना पकाते थे, गैस नहीं थी। चूल्हे का धुआं आंखों में लगता था, तब खाना बनता था।
साभार- रेडियो केदार