खेतों में खड़ा हरा गेहूं क्यों काट रहे किसान
आधा कच्चा, आधा पक्के गेहूं के गट्ठरों को घरों के आंगन में सुखाया जा रहा
रुद्रप्रयाग। उत्तराखंड में सबसे ज्यादा गेहूं उगाया जाता है, जो कुल खेती का 31 फीसदी है। इसके बाद धान 23 फीसदी व मंडुआ दस फीसदी क्षेत्रफल में है। रुद्रप्रयाग जिला के पोखरी रोड स्थित तल्ला नागपुर के कई गांवों में सीढ़ीदार खेतों में मौजूद गेहूं का अधिकांश हिस्सा अभी भी हरा है, जबकि अप्रैल के अंतिम सप्ताह से पहले ही कई इलाकों में गेहूं काटा जा चुका है।
खड़पतिया गांव में एक खेत में गेहूं काट रही पाखौ देवी बताती हैं, बारिश और ओले गेहूं को नुकसान पहुंचा देंगे। अभी एक दिन पहले ही बारिश ने हमें चिंता में डाल दिया था। हम चाहते हैं, फसल काटकर घरों तक पहुंचा दें। रही बात, फसल के पकने की, तो घर ले जाकर इसको धूप दिखा देंगे। अब जो भी कुछ उत्पादन मिलेगा, हमें स्वीकार करना होगा। हम कर भी क्या सकते हैं।
पाखौ देवी गेहूं को जल्द से जल्द घर पहुंचाने की एक और वजह बताती है, वो है, फसलों पर जंगली जानवरों का हमला। वो बताती हैं, बंदरों और जंगली सूअरों ने फसल को बहुत नुकसान पहुंचाया है। किसान जंगली जानवरों से सबसे ज्यादा परेशान हैं। गेहूं की फसल उजड़ते देखने से ज्यादा अच्छा है, इसको घर पहुंचा दिया जाए। सरकार नुकसान का न तो मुआवजा देती है और न ही फसलों की सुरक्षा के लिए कुछ उपाय करती है। यहां पाखौ देवी ही नहीं, बल्कि बड़ी संख्या में लोग कच्ची पकी फसल को घर ले जा रहे हैं।
पर, क्षेत्र के युवा किसान धर्मेंद्र बताते हैं, रुद्रप्रयाग पोखरी रोड का तल्लानागपुर क्षेत्र अधिक ऊंचाई पर होने की वजह से यहां नमी का स्तर ज्यादा है। यहां गेहूं की फसल अन्य स्थानों की तुलना में पहले बोई जाती है और सबसे बाद में काटी जाती है। अधिक ऊंचाई पर स्थित इस इलाके में मौसम ठंडा रहता है और ऊंची चोटियों से बर्फीली हवाओं का दौर चलता रहता है। जबकि रुद्रप्रयाग जिला के अगस्त्यमुनि, रुद्रप्रयाग और तिलवाड़ा, क्यूंजा घाटी में इसके मुकाबले नमी कम है और गर्मी इससे ज्यादा है।
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खड़पतिया गांव में किसान रणवीर सिंह के घर के आंगन में गेहूं की फसल के गट्ठर पड़े हैं। गेहूं के आधे कच्चे, आधे पके पौधों के तनों और बालियों (गेहूं के दानों वाले हिस्से) को दरांतियों से अलग किया जा रहा है।
रणवीर बताते हैं, हम गेहूं की बालियों को इकट्ठा कर रहे हैं और तनों को पशुओं को खिलाने में इस्तेमाल करेंगे। यहां मैदान के गांवों की तरह गेहूं के तनों से भूसा नहीं मिलता, क्योंकि यहां खेतों के सीढ़ीदार और ऊंचाई पर होने की वजह से भारी भरकम थ्रेसर नहीं ले जाया जा सकता। वैसे भी अधिकतर किसानों के पास उतना गेहूं उत्पादन नहीं होता कि उनको थ्रेसर की आवश्यकता पड़े।
उन्होंने बताया कि बालियों को धूप में सुखाकर इनको कूटा जाता है, जिससे गेहूं का दाना मिलता है। हालांकि, रणवीर का कहना है, उनको यह अंदाजा नहीं है कि कितनी जमीन पर गेहूं का कितना उत्पादन हो जाता है। पर, जो भी कुछ मिलेगा, वो बेचने की स्थिति में नहीं होंगे, घर में ही काम आएगा।
उधर, पाखौ देवी हर वर्ष गेहूं की फसल को नुकसान पहुंचने की बात कहती हैं, पर उनको मंडुआ की फसल में कुछ लाभ मिलने की उम्मीद है। उनका कहना है, पहाड़ में सभी फसल अच्छे से आय बढ़ा सकती हैं, अगर जंगली जानवरों की समस्या न हो।