एकांत
- सोनिया बहुखंडी
जिद्दी पहाड़ों के बीच
घने देवदारु के नीचे “एकांत”
आदमखोर बाघ की तरह सुस्ताता है।
दूर गांव में कोलाहल जलती मशाल की तरह चमकता है
दब्बू आँखों में डर को समेटकर
शहर लांघ आता है “आदमखोर”
तुम्हारे ऑफिस के कमरे में….
घूरता है मुझे खा जाने के लिए।
अचानक शमशेर की कविताएं
बर्फ की तरह पिघलती हैं
और नदी बनकर मेरी मुझमे बहने लगती हैं।
तुम्हारा प्रेम चमकते तारों का सा भाल बन जाता है
और गिरता है मुझपर, एकान्त खुद को समाप्त कर देता है!
एकांत की मौत पर, तुम्हारी आँखों के तारे टूट कर
ख्वाहिश बन जाते हैं।
एकांत पुनर्जीवित होता है,
नदी के आंचल में तुम्हारे नीले कुर्ते का रंग गहरा नजर आता है।
शाम के दुपट्टे में दीपदीपाते हैं रौशनी के जुगनू
एकान्त हम दोनों का हाथ थामता है…
और फिर लांघता है शहर से गाँव
छोड़ देता है देवदारु के नीचे,
फिर गायब हो जाता है।
असल में एकान्त स्वभक्षी है, जो दो प्रेमियों के “एकात्म” बाद खुद को खा जाता है।