Blog LiveFeaturedstudyUttarakhandVillage TourWomen

उत्तराखंडः 82 साल की बूंदी देवी पूछती हैं, क्या चुनाव हो गए?

उत्तराखंड की राजधानी देहरादून के पास रहने वाली बूढ़ी मां से संवाद का फासला सूरज-चांद की दूरी से भी ज्यादा

राजेश पांडेय। न्यूज लाइव

14 फरवरी को मतदान निपटने के साथ ही उत्तराखंड में चुनावी शोर शांत हो गया। दूसरे दिन की सुबह उन बहुत सारे लोगों के लिए थकान मिटाने वाली और आलस से भरी थी, जो दिनरात चुनाव का हिस्सा बने रहे। पर, भारत की आजादी से पहले जन्मीं 82 साल की बूंदी देवी के लिए यह सुबह वैसी ही थी, जैसी रोज रहती है। उनकी चुनाव में भागीदार नहीं रही, वो इसलिए क्योंकि न तो उनको  राजनीति जानती है और न ही सिविल सोसाइटी। बहुत सारे लोग उनको नहीं जानते। उनकी दुनिया खुद अपने आसपास ही बसती है। इंसानों को देखे हुए, उनसे बात किए हुए, उन्हें कई दिन, हो सकता है महीने, बीत जाते हैं।  वो खुद अकेली नहीं रहना चाहतीं, पर हमने उनको अकेला छोड़ दिया है।

देहरादून जिला के उमरेत गांव निवासी बूंदी देवी। फोटो डुगडुगी

जब हम उनके पास पहुंचे तो चुनाव पर बात होने लगी, उनका सवाल हमें चौंका देता है। वो पूछती हैं, क्या चुनाव हो गए। उनका यह प्रश्न, उन बहुत सारे सवालों को जन्म देता है, जिनका वास्ता रिश्तों, भावनाओं, संवेदनाओं, मनोदशा, सुरक्षा और भी न जाने, उन कितने शब्दों से है, जो मानवता की पैरवी करते हैं। क्या उत्तराखंड की राजधानी देहरादून से मात्र 35 किमी. दूर रहने वाली बूढ़ी मां और हमारे बीच संवाद का फासला सूरज-चांद की दूरी से भी ज्यादा हो गया है।

छह-सात किमी. पैदल दूरी पर हैं मतदान केंद्र

ग्राम पंचायत के चुनाव में उमरेत निवासी बूंदी देवी का मतदान केंद्र सिंधवाल गांव और लोकसभा, विधानसभा चुनाव का मतदान केंद्र नाहीकलां गांव है, जो उनके घर से पैदल छह-सात किमी. और वाहन से लगभग दस किमी. की दूरी पर हैं। बूढ़ी मां ग्राम पंचायत के वोट देने जाती रही हैं, पर विधानसभा चुनाव में नहीं। इस बार उनके पास कोई वोट मांगने नहीं आया। न ही मतदाता पर्ची पहुंची है। वो किसी विधायक को नहीं जानतीं। केवल प्रधान को जानती हैं। प्रधान यहां आए थे। उनका सवाल है,  जब कोई सुविधा नहीं देता, जब कोई पूछने नहीं आता तो फिर मेरे लिए उनको जानना क्यों जरूरी है।

देहरादून के उमरेत गांव में 82 साल की बूंदी देवी के घर की छत उखड़ रही है। छत पर तिरपाल बिछाई है, पर बरसात में कमरे में पानी टपकता है। फोटो- राजेश पांडेय
खंडहर जैसे कमरे में टपकता है बारिश का पानी

उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के ड्रीम प्रोजेक्ट सूर्याधार झील से चार या पांच किमी. की दूरी पर एक पर्वतीय गांव है,  उमरेत। सिंधवाल ग्राम पंचायत का यह हिस्सा, कहने को ही गांव है, क्योंकि यहां दूर-दूर तक घर और इंसान नहीं दिखते। एक घर है, जिसकी छत टपक रही है और प्लास्तर ने दीवारों का साथ छोड़ दिया है। जिस कमरे में बूंदी देवी रहती हैं, वो रहने लायक नहीं है। चूल्हे के धुएं ने दीवारों की इस तरह काला कर दिया है कि कमरा किसी अंधेरी गुफा की तरह लगता है।

कमरे की छत पर सरिये दिखाई देते हैं। प्लास्तर ने सरियों का साथ छोड़ दिया है। बारिश में खाट को कभी इधर, तो कभी उधर करना पड़ता है। उनके कमरे को मरम्मत की जरूरत है या यूं कहें इसको फिर से बनाने की आवश्यकता है। बारिश के समय कमरे में पानी न टपके, इसके लिए छत पर तिरपाल बिछाई है, पर यह बहुत ज्यादा राहत नहीं देती।

कमरे के एक कोने में मिट्टी का चूल्हा बना है, जिसके पास लकड़ियां रखी हैं। चूल्हे के ऊपर दीवार में गड़े सरियों पर लकड़ियां रखी हैं। चूल्हे के ताप से इन लकड़ियों की नमी दूर हो जाती है और ये आसानी से जलाई जा सकती हैं। कमरे में खाना बनाने के लिए कुछ बरतन रखे हैं। उन्होंने मिट्टी के फर्श की लिपाई की हुई है। लिपाई के लिए गोबर एक गांव से लाती हैं, जो उनके घर से बहुत दूर है।

देहरादून जिले के उमरेत गांव पहुंचे वरिष्ठ पत्रकार अश्वनी शर्मा को बूढ़ी मां बूंदी देवी ने भंगजीर खाने को दिया। फोटो- डुगडुगी
लो भंगजीर खाओ, इसकी चटनी बहुत अच्छी लगती है

इस कमरे में एक खाट बिछी है, जिस पर चादरें और लोई रखी थीं। उन्होंने कमरे में रखी एक बोतल उठाई, जिसमें चौलाई जैसे दाने भरे थे। हमारी हथेलियों पर ये दाने परोसते हुए कहने लगीं, यह भंगजीर है। इसकी चटनी बहुत अच्छी लगती है। इसे मैंने अपने खेत में उगाया है। भंगजीर स्नेहपूर्वक परोसी गई थी। हमने एक भी दाना बिना खाए नहीं छोड़ा। वो बताती हैं, इसे चीनी के साथ खाओ, तो अच्छा लगता है।

दूर पहाड़ पर कोई आकृति चलती दिखे तो समझो बूढ़ी मां घर में हैं

नवंबर, 2021 में उनसे पहली मुलाकात हुई थी। दूसरी बार, वरिष्ठ पत्रकार अश्विनी शर्मा, सामाजिक मुद्दों के पैरोकार मोहित उनियाल और प्रोग्रेसिव फार्मर भूपाल सिंह कृषाली के साथ उमरेत गांव की ओर बढ़ रहा था। सूर्याधार झील के दाईं ओर से सीधा कंडोली पहुंचे, जहां तक कार, बाइक जा सकते हैं। पर,यह रास्ता बड़ा जोखिम वाला है, वो इसलिए क्योंकि झील की तरफ वाले हिस्से पर पैराफिट्स नहीं हैं। कुछ दिन पहले एक कार झील में गिर गई थी।

देहरादून जिला के कंडोली से ऐसा दिखता है उमरेत गांव स्थित बूढ़ी मां बूंदी देवी का घर। फोटो- डुगडुगी

कंडोली से उमरेत का एक मात्र घर दिखता है, जिसमें बूंदी देवी रहती हैं। इस घर के आंगन में कोई चलती फिरती आकृति दिख जाए तो समझो बूढ़ी मां अपने घर में हैं। हमने दूर से ही उनको देख लिया और फिर पैदल सफर शुरू कर दिया। वैसे भी, उनके घर पहुंचने से पहले आप कंडोली में जरूर पूछ लें कि वो घर पर हैं या नहीं। यह पूछना इसलिए आवश्यक है, क्योंकि बूंदी देवी अपनी पेंशन लेने के लिए तीन माह में एक बार करीब 12 किमी. दूर भोगपुर जाती हैं।

उमरेत गांव जाने के लिए जाखन नदी को पार करते सामाजिक मुद्दों के पैरोकार मोहित उनियाल। फोटो- डुगडुगी
रास्ता बड़ा जोखिम वाला, नदी भी है रास्ते में

कंडोली  से उमरेत तक जाने के तीन रास्ते हैं। इस बार सबसे कम दूरी वाला रास्ता गांववालों ने बताया। यह रास्ता गहराई में बह रही जाखन नदी तक ले जाता है। इससे नदी तक जाना और वापस कंडोली तक आना जोखिम उठाने वाला काम है। जरा सा भी संतुलन बिगड़ा तो सीधे खाई में गिरने का खतरा है। यह रास्ता किसी चट्टान को काटकर बनाया लगता है। अच्छी तरह देखकर, पैरों को टिका टिकाकर आगे बढ़ना होगा।

उमरेत गांव जाने के लिए जाखन नदी को पार करते वरिष्ठ पत्रकार अश्वनी शर्मा। फोटो- डुगडुगी

थोड़ी देर में जाखन नदी के किनारे पहुंच गए। बड़े- बड़े पत्थरों से सजी जाखन का वेग ज्यादा नहीं है। इसको पैदल पार करने में फिलहाल इन दिनों कोई दिक्कत नहीं होगी। नदी पार करके जंगल में प्रवेश  किया और फिर एक खाला मिला। इसको आसानी से पार कर लिया। बरसात में नदी और इस खाले को पार करने की तो हम सोच भी नहीं सकते।

यह भी पढ़ें- 82 साल के ‘युवा’ से सुनिए सवा सौ साल पुराने गांव की कहानी

देहरादून के उमरेत गांव जाने का रास्ता बड़ा जोखिमवाला है। वरिष्ठ पत्रकार अश्वनी शर्मा और प्रोग्रेसिव फार्मर भूपाल सिंह कृषाली। फोटो- डुगडुगी

घने वन से होकर जा रहे संकरी, पथरीली पगडंडीनुमा खड़ी चढ़ाई पर अगर कोई हांफते हुए तेजी से सांसें ले रहा था, तो वो मैं था। हर एक चढ़ाई के बाद मोड़ देखकर अनुमान लगा रहा था कि उमरेत गांव पास ही है। पिछली बार जिस रास्ते से उमरेत गया था, यह वो नहीं था। जंगल में दिखता हर रास्ता शायद उमरेत तक पहुंचा रहा है, ऐसा मुझे लगा। करीब आधा घंटे में ही उस पगडंडी पर पहुंच गए, जो उमरेत और सेबूवाला को जोड़ती है।

उनकी खुशी देखकर लगा, मानो हमारा इंतजार कर रही थीं

अब हम बूढ़ी मां के सामने थे। उनसे मिलकर लगा कि वो हमारा इंतजार कर रही थीं। हमें अपने घर पर आया देखकर खुशी खुशी उन्होंने खाट पर बिछी दरी और चादर घर के आंगन में बिछा दी। कहने लगीं, मेरे घर पर आपको बैठाने के लिए जगह नहीं है। आप यहां बैठ जाओ। हम तो पहले से चाह रहे थे कि उनके घर के आंगन में बैठकर उनकी बातों को सुनें। उनके साथ कुछ समय बिताएं। कुछ देर के लिए ही सही, इस खाली घर में छाए सन्नाटे को दूर करें।

जब हम उमरेत गांव पहुंचे तो बूढ़ी मां बहुत खुश हो गईं, उन्होंने अपनी खाट पर बिछी दरी, चादर आंगन में बिछाकर हमसे कहा, यहां बैठ जाओ। फोटो- डुगडुगी
तारों की छांव और धूप की दिशा से समय का पता लगाती हैं

उनकी दुनिया रेडियो, मोबाइल फोन से दूर है। उनके पास घड़ी भी नहीं है। तड़के जागने वाली बूढ़ी मां तारों को देखकर पता लगाती हैं कि सुबह हो गई। हमने पूछा, क्या आप बता सकती हैं, समय क्या हुआ होगा। उन्होंने कहा, साढ़े 11 बजे होंगे। हमने घड़ी देखी तो मात्र 15 मिनट का अंतर था। आपको कैसे पता चला कि साढ़े 11 बजे हैं।

उमरेत गांव, देहरादून की सिंधवाल ग्राम पंचायत का हिस्सा है, जहां बूंदी देवी अकेली रहती हैं। उनसे बात करते वरिष्ठ पत्रकार अश्वनी शर्मा। फोटो- डुगडुगी

उन्होंने बताया, धूप-छांव देखकर पता चल जाता है। आपके पास मोबाइल फोन नहीं है, जब कभी जरूरत होती है तो कैसे बात करती हो। बताती हैं, कंडोली जाकर फोन करती हूं। हम हैरत में पड़ गए, कंडोली तक जाने में लगभग ढाई किमी. चलना होगा, वो भी एक किमी. की खड़ी चढ़ाई और घना जंगल पार करके। रास्ते में जाखन नदी भी है।

यह भी पढ़ें-  ये मुद्दे गायब क्यों? धीरे-धीरे खाली हो रहे गांवों पर बात क्यों नहीं होती चुनाव में!

12 साल की थी तब यहां आई थी, अब क्यों छोड़ूं अपना गांव

आपका राशन कैसे आता है, पर उनका कहना है कंडोली से यहां आने वाले लोग ले आते हैं। इधर, घास काटने के लिए कोई आ गया तो उससे विनती कर लेती हूं। परिवार के लोग भी राशन छोड़कर चले जाते हैं। वो श्यामपुर (ऋषिकेश के पास) और रानीपोखरी में रहते हैं। वो मुझे यहां से ले जाना चाहते हैं, पर, मैं अपना घर छोड़कर क्यों जाऊं।

देहरादून के उमरेत गांव  में 82 वर्षीय बूंदी देवी, घने वन में खंडहरनुमा मकान में अकेली रहती हैं। फोटो- राजेश पांडेय

यह भी पढ़ें- उत्तराखंडः पलायन के खिलाफ संघर्ष कर रहे इन योद्धाओं से मिलिए

जब मैं यहां आई थी, तब 12 साल की थी। अब बूढ़ी हो गई हूं। गजा, टिहरी गढ़वाल के पास मेरा मायका है। उस समय परिवार में बहुत सारे लोग रहते थे। हमारे पास पानी से चलने वाली घराट थी। खेतीबाड़ी होती थी, बहुत अच्छा था यहां का जनजीवन। जब मैं तीस साल की थी, जब पति की मृत्यु हो गई थी। मैंने अपने बच्चों को बड़ी मुश्किलों में पाला। उनको रोजगार के लिए, बच्चों की पढ़ाई के लिए यहां से जाना पड़ा।

देहरादून के उमरेत गांव में 82 साल की बूंदी देवी अकेली रहती हैं। उनका मकान घने वन में है और दूर-दूर तक कोई नहीं दिखता। फोटो- राजेश पांडेय
दुख तकलीफ में भगवान को पुकारती हूं

किसी दुख तकलीफ में आप क्या करती हो, क्योंकि आप तो यहां अकेली रहती हो, पर वो बोलीं, तब आसमान की ओर देखकर भगवान को पुकारती हूं। इंसान तो यहां नहीं दिखते, भगवान तो सब जगह हैं। आप आए हो, आपका स्वागत है। पर, मैं आपके लिए कुछ नहीं कर पा रही हूं। बूंदी देवी बताती हैं, यहां चारों तरफ जंगल है, जानवर तो दिखेंगे ही। बघेरा दिन में भी दिख जाता है। शाम होते ही खुद को कमरे में बंद कर लेती हूं। एक दिन सांप उनके कमरे से होकर दूसरी तरफ चला गया। वो तो अच्छा है यहां बिजली है। आप तो बहादुर हो, आप किसी से नहीं डरती। इतना कहने पर उन्होंने कहा, मैं पहले नहीं डरती थी। अब डर लगता है। पर, अपनी बात कहते हुए वो मुस्कुराने लगीं।

बूढ़ी मां ने घर की चौखट पर आम की पत्तियों की बंदनवार टांगी है, जो अब सूख गई है। इस बंदनवार पर उनको पूरा विश्वास है कि यह कमरे में किसी भूत या बुरी आत्मा को प्रवेश करने से रोक देगी। वो कहती हैं, यह भूत को आने से रोक देगा।

बुजुर्ग अकेले न रहें, यह हमारी सभी की जिम्मेदारी

हिमाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में लगभग ढाई दशक से विभिन्न मुद्दों पर पत्रकारिता कर रहे वरिष्ठ पत्रकार अश्विनी शर्मा का कहना है, पहाड़ में बहुत सारे गांवों में बुनियादी सुविधाएं नहीं हैं। बूंदी देवी के मामले में उनका कहना है, बुजुर्गों के साथ हमेशा किसी न किसी को रहना चाहिए। वो अकेलापन महसूस करेंगे, तो उनको तनाव का सामना करना पड़ेगा। बूंदी देवी की स्थिति बहुत गंभीर है, उनके लिए सरकार और समुदायों को आगे आना होगा। स्थानीय सामाजिक संस्थाओं को इस दिशा में काम करना चाहिए। उत्तराखंड में पलायन की स्थिति बहुत चिंताजनक है। पलायन पर बहुत सारी रिपोर्ट हैं, पर उन पर काम नहीं हो रहा है।

बूढ़ी मां ने हमें सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद देकर विदा किया। फोटो- डुगडुगी

सामाजिक मुद्दों के पैरोकार और राजीव गांधी पंचायतराज संगठन के उत्तराखंड प्रदेश संयोजक मोहित उनियाल का कहना है, यह हम सभी के लिए शर्मिंदा होने की बात है कि 82 वर्षीय बुजुर्ग महिला बूंदी देवी को दूर घने वन में खंडहर जैसे हो गए मकान में जीवन बिताना पड़ गया। इसमें राजनीतिक, सामाजिक एवं सरकारी स्तर पर बड़ी पहल की आवश्यकता है। बुजुर्गों की आर्थिक, सामाजिक सुरक्षा का ध्यान रखना सरकार के साथ ही समुदायों की जिम्मेदारी भी है।

प्रोग्रेसिव फार्मर भूपाल सिंह कृषाली नाहीकलां गांव के निवासी हैं, वो बूंदी देवी को काफी समय से जानते हैं। उनका कहना है कि पहाड़ के गांवों से बुनियादी सुविधाओं के अभाव में पलायन हो रहा है+। युवाओं को रोजगार और बच्चों की पढ़ाई के सिलसिले में गांवों को छोड़ना पड़ रहा है। उनके बुजुर्ग ही गांवों में रह गए हैं। यह स्थिति बहुत चिंताजनक है और दुखदायी है।

उमरेत गांव से सेबूवाला गांव की ओर जाते हुए जोखिम भरा है रास्ता। फोटो- डुगडुगी

हम वापस सेबूवाला गांव होते हुए लौटे। यहां तक एक पगडंडी से होकर आए, जिस पर संतुलन बिगड़ने का मतलब है सीधा खाई में गिरना। इस रास्ते में नदी को पुल से पार करने की राहत मिली। सेबूवाला गांव को ऊँचाई से देखना बहुत अच्छा लगा। जितना सुंदर गांव है सेबूवाला, उतनी ही यहां स्वरोजगार की संभावनाएं हैं।

ऊंचाई से ऐसा दिखता है सेबूवाला गांव, जो देहरादून जिले की सिंधवाल ग्राम पंचायत का हिस्सा है। फोटो- डुगडुगी
2011 की जनगणना के अनुसार उत्तराखंड की कुल महिला आबादी का 8.45 फीसदी यानी 4,18,285 एकल महिलाएं हैं। राज्य में कुल एकल महिलाओं में 92.57 फीसदी विधवा हैं, जबकि 3.85 फीसदी अविवाहित हैं। देहरादून, हरिद्वार और ऊधमसिंह नगर जिलों तथा पर्वतीय जिलों अल्मोड़ा, नैनीताल व पौड़ी गढ़वाल में एकल महिलाओं की संख्या अधिक है।

ई बुक के लिए इस विज्ञापन पर क्लिक करें

Rajesh Pandey

उत्तराखंड के देहरादून जिला अंतर्गत डोईवाला नगर पालिका का रहने वाला हूं। 1996 से पत्रकारिता का छात्र हूं। हर दिन कुछ नया सीखने की कोशिश आज भी जारी है। लगभग 20 साल हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। बच्चों सहित हर आयु वर्ग के लिए सौ से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। स्कूलों एवं संस्थाओं के माध्यम से बच्चों के बीच जाकर उनको कहानियां सुनाने का सिलसिला आज भी जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। रुद्रप्रयाग के खड़पतियाखाल स्थित मानव भारती संस्था की पहल सामुदायिक रेडियो ‘रेडियो केदार’ के लिए काम करने के दौरान पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाने का प्रयास किया। सामुदायिक जुड़ाव के लिए गांवों में जाकर लोगों से संवाद करना, विभिन्न मुद्दों पर उनको जागरूक करना, कुछ अपनी कहना और बहुत सारी बातें उनकी सुनना अच्छा लगता है। ऋषिकेश में महिला कीर्तन मंडलियों के माध्यम के स्वच्छता का संदेश देने की पहल की। छह माह ढालवाला, जिला टिहरी गढ़वाल स्थित रेडियो ऋषिकेश में सेवाएं प्रदान कीं। बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहता हूं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता: बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी संपर्क कर सकते हैं: प्रेमनगर बाजार, डोईवाला जिला- देहरादून, उत्तराखंड-248140 राजेश पांडेय Email: rajeshpandeydw@gmail.com Phone: +91 9760097344

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button

Adblock Detected

Please consider supporting us by disabling your ad blocker