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भूपाल सिंह कृषाली जी से जानिए- जैविक खेती में संभावनाएं

पर्वतीय क्षेत्र में आर्गेनिक खेती की संभावनाएं हैं, ऐसा अक्सर कहा जाता है। मैं यह कोई नई बात नहीं कह रहा हूं कि कृषि ग्रामीण अर्थव्यवस्था की धुरी है। ग्रामीण क्षेत्रों में आजीविका के प्रमुख स्रोत कृषि का संवर्धन होगा तो किसानों की आय में वृद्धि होगी।
पर, सवाल यह उठता है कि क्या कृषि उपज को खेतों से उठाकर बाजार तक पहुंचाने, किसानों को उनकी उपज का सही मूल्य दिलाने के लिए पारदर्शी, सजग और सतर्क मैकेनिज्म काम कर रहा है।
अगर, ऐसा कोई तंत्र कार्य कर रहा है तो फिर ग्रामीण क्षेत्रों में, खासकर पर्वतीय इलाकों में लोगों को अपनी कृषि भूमि,जिनमें आर्गेनिक उत्पादन की ढेरों संभावनाएं हैं, को छोड़कर आजीविका के लिए अपने घर, गांव से परिवार सहित या अकेले दूर क्यों जाना पड़ रहा है।
हम यह बात इसलिए भी कर रहे हैं,क्योंकि अक्सर पहाड़ से पलायन को रोकना, चुनौती के रूप में लिया जाता रहा है। हम यह कतई नहीं कहना चाहते कि किसी भी व्यक्ति को बेहतर अवसर मिलने पर घर से दूर नहीं जाना चाहिए, पर हम मजबूरी के पलायन को रोकने की बात तो कर ही सकते हैं।
रविवार को हमने उन सवालों के जवाब जानने की कोशिश की, जो आर्गेनिक खेती औऱ पलायन से जुड़े हैं।
तक धिनाधिन की टीम ने रविवार को कालूवाला ग्राम पंचायत निवासी भूपाल सिंह कृषाली जी से मुलाकात की, जो प्रगतिशील किसान हैं। उन्होंने आर्गेनिक फार्मिंग पर कार्य करने के साथ, नाहीं कलां और आसपास के कई गांवों के लगभग सौ से ज्यादा किसानों को जैविक फसलें उगाने के लिए प्रेरित किया।
टीम में शामिल डुगडुगी के संस्थापक व दृष्टिकोण समिति के अध्यक्ष मोहित उनियाल तथा सामाजिक कार्यकर्ता व शिक्षक जगदीश ग्रामीण भी विशेष रूप से शामिल थे।
वर्तमान में कालूवाला में रह रहे कृषाली जी, का अपने गांव नाहीं कलां से हमेशा की तरह अभी भी गहरा नाता रहा है। वहां उनका पुस्तैनी मकान और कृषि भूमि हैं। वहां जैविक हल्दी, अदरक उगाते हैं।
कृषक भूपाल सिंह नाहीं कलां क्षेत्र में वर्षों पहले चूना पत्थर की खानों के विरुद्ध चले आंदोलन में प्रमुख भूमिका में थे। लंबे संघर्ष के बाद चूना पत्थर का खनन बंद कर दिया गया था।
उन्होंने हमें बताया कि देहरादून जिला के डोईवाला औऱ रायपुर ब्लाक के पर्वतीय गांवों में जैविक खेती की बहुत संभावनाएं हैं। एक तो यहां अधिकतर कृषि भूमि जंगल के पास है और सिंचाई के लिए वर्षा जल पर निर्भरता ज्यादा है। वनों के पास होने के जहां फायदे हैं, वहीं नुकसान भी हैं।
वनों से पत्तियों की खाद मिल जाती है, जो खेती के लिए उपयोगी होती है, वहीं वर्षा जल में किसी भी रसायन के मिले होने की आशंका नहीं होती। हालांकि खेती के लिए वर्षा पर निर्भरता से समस्याएं भी पैदा होती रही हैं। वहीं, खेतों के वनों के पास होने से जंगली जानवरों के हमले बड़ा नुकसान करते हैं।
बताते हैं कि उनके गांव में चूना पत्थर की खान बंद होने से काफी युवाओं का रोजगार चला गया। चूना पत्थर का खनन बंद होना पर्यावरण के लिहाज से बहुत अच्छा था, पर युवाओं का रोजगार खत्म होना भी कोई अच्छी बात नहीं थी। हमने विकल्प के तौर पर इन युवाओं को जैविक कृषि की ओर प्रेरित किया।
उनकी उपज को मार्केट तक पहुंचाने के लिए गांव से दिल्ली हाट तक का रास्ता तय किया, जो काफी संभावनाओं वाला था। अब कुछ वर्ष से उपज को दिल्ली हाट नहीं ले जा पा रहे हैं। हमें उस समय के अनुसार, स्थानीय मार्केट और दाम नहीं मिल पा रहे हैं।
हम अपने खेतों को आर्गेनिक ही रखना चाहते हैं, क्योंकि कैमिकल से जहां स्वास्थ्य पर खतरा मंडराता है, वहीं एक समय बाद खेती बंजर होने का खतरा रहता है।
जैविक खेती की संभावनाओं पर और अधिक जानकारियों के लिए आप इस वीडियो को देख सकते हैं। इस वीडियो में खेत में कृषाली जी से बात की गई है। वीडियो में थोड़ा शोर सुनाई देगा, पर आप पूरा वीडियो सुनेंगे तो अच्छी जानकारियां मिलेंगी।

करीब 25 वर्ष तक उन्होंने यहां से जैविक उत्पादों को बसों, ट्रेनों से ले जाकर दिल्ली हाट में प्रदर्शित किया और इनकी काफी बिक्री हुई। बताते हैं, हम कुंतलों में आर्गेनिक अदरक, हल्दी और दालों को दिल्ली हाट पहुंचाते थे। किसानों को उत्पाद का सही मूल्य मिलता था और वो काफी खुश थे। वहां विदेशी पर्यटक भी खरीदारी के लिए आते थे।
हमें इस बात की बड़ी खुशी है कि नाहीं कलां में उगाई गई हल्दी विदेश तक पहुंची है। हमने विदेशियों को इसके औषधीय गुणों के बारे में बताया औऱ उन्होंने इसको खुशी खुशी खरीदा। अदरक की तो कमाल की पैदावार होती थी।
बताते हैं कि कुछ वर्ष से यह क्रम थमा है। वर्तमान में प्रोत्साहन के अभाव में ऐसा हो रहा है। अब किसान अपने इस्तेमाल के लिए कुछ उपज रख लेते हैं और बाकी को स्थानीय बाजारों में बेच दिया जाता है, पर उसका अधिक मूल्य नहीं मिल पाता। कई बार तो आर्गेनिक व सामान्य उपज एक साथ बिक रही है, एक ही भाव।
कैमिकल के इस्तेमाल से उत्पादित फसल की गुणवत्ता निश्चित रूप से आर्गेनिक से कमतर ही होगी। आर्गेनिक उत्पादों का सेवन स्वास्थ्य के लिए अच्छा होता है और इसको बहुत सतर्कता से उपजाया जाता है, तो इनका मूल्य निश्चित रूप से अधिक होना चाहिए।
हमारे एक सवाल पर उनका कहना था कि यह बात सही है कि आर्गेनिक खेती, पलायन को रोकने में कारगर हो सकती है, पर इसके लिए उपज को पूरी पारदर्शिता के साथ मार्केट से लिंक कराया जाए।
कृषाली जी का कहना है कि स्थानीय उत्पादों की स्थानीय स्तर पर प्रोसेसिंग औऱ ब्रांडिंग करने के लिए किसानों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। उनका सुझाव है कि गांवों में छोटी छोटी प्रोसेसिंग यूनिट लगा दी जाएं।
बताते हैं कि उत्पादों को खुला या साबुत बिक्री करने में किसानों को सही मूल्य नहीं मिल पाता। किसानों के समूहों के स्तर ही स्थानीय ब्रांड नेम से पैकेजिंग की जाएं तो आय संवर्धन की संभावनाएं बढ़ेंगी, क्योंकि इसमें किसानों और बाजार के बीच सीधा संबंध होगा।
खेतों में जंगली जानवरों से बचने के उपायों पर उनका कहना था कि हमने पूर्व में बांस की बाड़ लगाई थीं, जो सफल नहीं हो सकीं। खेतों पर दिन में बंदर व लंगूर हमला करते हैं औऱ रात को बारहसिंगा, हिरन व सूअऱ जैसे जानवर आकर फसलों को नुकसान पहुंचाते हैं।
हमने उन फसलों के लिए प्रोत्साहित किया, जिनको जंगली जानवर पसंद नहीं करते। हल्दी, अदरक और डायबिटीज रोगियों की औषधी किनगोड़ा की खेती की सलाह दी है।
हमने गांव में हल्दी, अदरक की खूब खेती की है। हम हल्दी के उसके औषधीय गुणों के बारे में जानते हैं और उनकी लोगों के चर्चा करते हैं। गांवों और आसपास के जंगलों में उगने वाली कई वनस्पतियों तथा उनके औषधीय महत्व की जानकारी ग्रामीणों को होती है। ये आय संवर्धन की संभावनाएं ही तो हैं।
उन्होंने कालूवाला गांव स्थित घर के पास आलू सहित कई सब्जियां उगाई हैं। पास ही, सफेद हल्दी की पैदावार हो रही है। बताते हैं कि सफेद हल्दी को अदरक की तरह छोटे टुकड़ों में काटकर सब्जी में डाल सकते हैं। इसमें कच्चे आम जैसी खुश्बू आती है।
वो अपने खेत से देहरादून में लगने वाली जैविक उत्पादों की हाट के लिए इस हल्दी की बिक्री कर रहे हैं। सफेद हल्दी को सूखाकर इसका पाउडर भी बना सकते हैं। इसकी खेती भी बहुत सरल है। इसको कोई जंगली जानवर नहीं खाता। आप पत्तियों की खाद डाल दीजिए और सफेद हल्दी का उत्पादन कीजिए।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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