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ये मुद्दे गायब क्यों? धीरे-धीरे खाली हो रहे गांवों पर बात क्यों नहीं होती चुनाव में!

क्या गांवों को खाली होने से रोकने के लिए राजनीतिक इच्छा शक्ति खत्म हो गई

राजेश पांडेय। न्यूज लाइव ब्यूरो

क्या उत्तराखंड के पर्वतीय गांव धीरे-धीरे खाली हो जाएंगे, चिंतित करने वाला यह सवाल उस समय उठता है, जब हम लोगों को यह कहते सुनते हैं कि उन्होंने अपने खेतों को खाली छोड़ दिया है। यह सवाल तब उठता है, जब गांवों में परिवारों की संख्या पहले से कम हो जाती है। यह सवाल तब उठता है, जब हम गांवों में सिर्फ बुजुर्गों को ही देखते हैं। यह सवाल तब उठता है, जब छोटे बच्चों को स्कूल जाने के लिए कई किमी. पैदल चलना पड़ता है। और भी बहुत सारे सवाल हैं, जिनका जिक्र करना बहुत आवश्यक है। इन्हीं तमाम सवालों पर श्रृंख्लाबद्ध रिपोर्ट का पहला भाग…।

उत्तराखंड का अधिकतर भूभाग पर्वतीय और ग्रामीण है। उत्तराखंड का कुल क्षेत्रफल 53,483 वर्ग किमी है, जिसमें 52,581.08 वर्ग किमी ग्रामीण क्षेत्र और 901.92 वर्ग किमी शहरी क्षेत्र शामिल है। राज्य में 46035 वर्ग किमी. पर्वतीय तथा 7448 वर्ग किमी. मैदानी हिस्सा है।

यहां तक कि उत्तराखंड में 2022 के विधानसभा चुनाव के लिए 11,647 में से 8,294 मतदान स्थल ग्रामीण तथा 3,353 शहरी क्षेत्रों के लिए हैं। 2017 की तुलना में ग्रामीण मतदान स्थल कम हुए हैं और शहरी मतदान स्थलों की संख्या बढ़ी है। 2017 में शहरी मतदान स्थल 2,357 और ग्रामीण 8,497 थे। यहां से अनुमान लगाया जा सकता है कि गांवों का रूख शहरों की ओर हो रहा है। इस आधार पर कहा जा सकता है, गांवों की वोटर लिस्ट छोटी हो रही है। यह उस उत्तराखंड के लिए चिंता एवं चुनौती की बात है, जिसकी स्थापना ग्रामीण एवं पर्वतीय विकास की अवधारणा पर आधारित है।

उत्तराखंड में शहरी निकायों के क्षेत्रफल ने गांवों तक विस्तार लिया। देहरादून नगर निगम का ही उदाहरण ले लीजिए, इसमें देहरादून शहर के आसपास के 60 गांवों को जोड़ा गया। नगर निगम का एरिया साठ वर्ग किमी. ज्यादा हो गया। इन गांवों की आबादी तेजी से बढ़ रही है, नये भवन बन रहे हैं और कृषि क्षेत्र लगातार कम होता जा रहा है। नगर निगम बनाने के लिए शहरी क्षेत्रों को गांवों तक विस्तार देने की पूरी कवायद राजनीतिक है। यह कितना सही और कितना सही नहीं है, अलग बहस का मुद्दा है। पर, सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इन गांवों से शहर बन गए इन इलाकों में जनता के प्रतिनिधियों की संख्या कम हो गई। ग्राम पंचायत व्यवस्था में ग्राम प्रधान से लेकर वार्ड सदस्यों का प्रतिनिधित्व होता है, जो नगर निगम बनने से एक या दो पार्षद तक ही सिमट गया है।

हम पर्वतीय गांवों की बात कर रहे थे, जिनके खाली होने की चिंता में उत्तराखंड सरकार ने अगस्त 2017 में ग्रामीण विकास एवं पलायन आयोग का गठन किया, जिसके अनुसार, उत्तराखंड में ग्रामीण क्षेत्रों से हो रहा पलायन एक गंभीर समस्या है। 2001 तथा 2011 की जनगणना के आंकड़ों की तुलना में राज्य के पर्वतीय ज़िलों मे जनसंख्या वृद्धि बहुत धीमी गति से देखी जा रही है।

2001 और 2011 के बीच अल्मोड़ा तथा पौड़ी गढ़वाल जनपदों की आबादी में गिरावट राज्य के कई पर्वतीय क्षेत्रों से लोगों के बड़े पैमाने पर पलायन की और इशारा करती है।

पलायन की गति ऐसी है कि कई ग्रामों की आबादी दो अंकों में रह गई है। देहरादून, ऊधमसिंह नगर, नैनीताल  और हरिद्वार जैसे जिलों में जनसंख्या बढ़ी है, जबकि पौड़ी तथा अल्मोड़ा जनपदों मे यह दर नकारात्मक है। टिहरी, बागेश्वर, चमोली, रुद्रप्रयाग तथा पिथौरागढ़ जनपदों में असामान्य रूप से जनसंख्या वृद्धि दर काफी कम है।

आयोग ने नैनीताल जिला की रिपोर्ट में ब्लाकवार पलायन के आंकड़ें उपलब्ध कराए हैं, जिनमें 26 से 35 वर्ष तक की आयु के लोगों का पलायन ज्यादा है। यह वो आयु होती है, जब कोई रोजगार के लिए, अपने बच्चों की पढ़ाने के लिए परिवार सहित अपना गांव छोड़ देता है। हमारे पास देहरादून शहर से लगभग 30 से 35 किमी. दूरी के उन पर्वतीय गांवों के उदाहरण मौजूद हैं, जहां सुविधाओं के अभाव में पलायन हुआ है। ये गांव देहरादून और टिहरी गढ़वाल के हैं।

कृषि में बड़े हस्तक्षेप और नये नजरिये आवश्यकता

प्रस्तावित कृषि नीति 2018 के अनुसार, उत्तराखंड में कुल 6.98 लाख हेक्टेयर भूमि कृषि के अन्तर्गत है, जो कि कुल क्षेत्रफल का केवल 11.65 प्रतिशत है। 1.43 लाख हेक्टेयर परती भूमि तथा 3.18 लाख हेक्टेयर कृषि बंजर प्रतिवेदित है। राज्य की अर्थव्यवस्था का प्रमुख आधार कृषि का क्षेत्रफल राज्य स्थापना के बाद लगभग 16 साल में लगभग 72,000 हेक्टेयर कम हो गया है। इसकी वजह बताई गई है, राज्य बनने के बाद अवस्थापना सुविधाओं के विकास के लिए कृषि भूमि का आवासीय, शिक्षण संस्थानों, उद्योगों, सड़क आदि में परिवर्तन होना है। पर्वतीय क्षेत्रों में दैवीय आपदा, भूस्खलन होने, जंगली जानवरों से खेती को नुकसान पहुंचने, कम वर्षा एवं पलायन
आदि समस्याओं के कारण कृषि में रूचि कम होना और उत्पादन प्रभावित होने की जानकारी है।

उत्तराखंड में चुनावी घोषणाओं के बीच यह खबर आईना दिखाती हैं, क्या किसी को शर्म आई…

यह बात सही है कि पर्वतीय क्षेत्रों में सिंचाई सुविधा की कमी, छोटी एवं बिखरी जोतें तथा सीढ़ीनुमा खेतों के कारण विकसित तकनीकों एवं मशीनरी का उपयोग सीमित है। इसलिए वहां विभिन्न फसलों की उत्पादकता मैदानी क्षेत्रों की तुलना में आधे से भी कम है। परन्तु, यहां जैविक उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए उस मजबूत तंत्र की आवश्यकता है, जो खेत में पड़ी फसल को बाजार से जोड़ने, उपज की मार्केटिंग करने, परिवहन, श्रम एवं लागत तथा जैविक एवं सामान्य फसल के अनुरूप बाजार मूल्य निर्धारण करने में सक्षम हो। पर्वतीय कृषि में महिलाओं का योगदान महत्वपूर्ण है, पर उनको उपज का वर्तमान बाजार भाव बताने वाला कोई तंत्र राज्य में स्थापित नहीं हो सका।

अगली किस्त में हम बात करेंगे ग्रामीणों के सामने किस तरह की चुनौतियां आ रही हैं। आखिर वो पलायन के लिए क्यों मजबूर हैं।

जारी—2

 

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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