चाहना नदी का….
चाहना नदी की….
मैं नदी को देख रही थी
मैंने देखा-
नदी भी देख रही थी मुझे,
बहने के नाम पर
किलसती रेंगती सोच रही-
बहुत देखे हैं तेरे जैसे आदम
जो आये…..
कभी मेरे तट, कभी मुहाने तक चलकर
मेरे साथ कुछ कदम चले
मेरे पानी ने उन्हें देखा
कुछ जोर पकड़ा
यूं रफ्तार बढ़ाई
टूटती सांसों की परवाह किये बगैर
कहीं….. मेरे वजूद की लड़ाई में
साथ देने आये हों, या रहनुमा बनकर।
मैंने देखा घूर रही थी वो
कह रही हो ज्यों-
ये मेरी भूल थी,
मैं आदम को पहचान न सकी।
वो तो आया था यहाँ
रेत, पत्थर, बजरी और
कभी जमीन के लिए
सबकी आँखों में चाहत थी
यूं कहें लालसा थी मेरे लिए,
सब बाँध देना चाहते थे जिस्म मेरा
रवानी मेरी;
भर लेना चाहते थे
तिजोरी अपनी।
मैं पहचान कर भी
खामोश रही।
करती भी क्या घ्
आदम का बच्चा था!
इतिहास गवाह है
ये मेरे किनारे ही बसता रहा
सदियों से।
पुराने रिश्तों में उलझ गयी।
भूल गई कि बिसर गया है आदम
रिश्ता वो पुराना;
पाईप का पानी पीकर
और दुकान का राशन खाकर,
उसने तो मेरे बारे में इतना ही जाना,
कि नदियां तो होती हैं बस-
खनन, रेत, बजरी, पत्थर
बहकर आई लकड़ियां
और गोल पत्थर और हाँ
जमीन बटोरने के लिए।
नदी के वजूद की आज यहाँ
किसे जरूरत,
जितना जिससे हो सके
बटोर रहा है हर कोई।
ना हो इतने पर भी,
मेरे प्रवाह में मल मूत्र कहीं
तो कहीं कारखानों का जहर घोल रहा;
मुझे आज नदी से वो नाला बना रहा
कुछ गोल पत्थर देखकर
ये अंदाज-ए-बयां होता हैं
कि ये नाला कभी
नदी रही होगी।
कुछ बुद्धिजीवी भी आते हैं यहाँ
मोटा चश्मा चढाये,
अपनी काबिलियत साथ लिए;
नहीं-नहीं….
मेरे लिए नहीं….
रिसर्च के लिए …..
इलैक्शन के एजेण्डे के लिए
और कभी तब
जब विश्व जल दिवस
मनाया जाना हो;
ये ही हालात रहे तो ऐ नादानों!
वो दिन दूर नहीं जब
जल दिवस को
नल दिवस के रूप में
मनाने पर विवश हो जाओगे।
मैं सुन रही थी- नदी कह रही थी-
बस थोड़ी सी जगह दे दो
दिल में अपने
बहने को मुझे….
पूछो तो मुझे; कि-
मैं क्या चाहती हूँ;
मैं चाहती हूँ,
प्रवाह निरंतर, प्रवाह अनन्त,
बस बहना अहर्निश ….. अहर्निश !!!!
- अनीता मैठाणी