शहर आना होगा तुम्हारा
- अनीता मैठाणी
तुम कहते हो
शहर आना होगा तुम्हारा
मैं अकेले में मुस्कुरा उठती हूँ,
लजाकर भारी कदमों से
आईने तक चली जाती हूँ,
जिस तक,
मैं अब, जाती नहीं हूँ ।
खुद को निहारते हुए सोचती हूँ
कब से बालों को कलर नहीं किया
चांदनी सी झलकने लगी है,
फेसपैक सा कुछ लगाने का सोचती हूँ
फिर उंगलियों में दिन गिनती हूँ
आज ही सब कर लिया,
रंग ही है,
कब तक टिकेगा।
तुम्हारे आने से ठीक
एक दिन पहले का दिन तय करती हूँ।
अब तक जो कैलेण्डर
सिर्फ छुट्टियों के लिए देखती थी
उसे अब बार-बार, बिना बात देखती हूँ।
रोज आईने पर नजर उठती हैं,
तुम्हारे आने की खुशी से
जो निखार चेहरे पर आया है
काश वो तुम्हारे शहर से होकर
लौट जाने के बाद भी बना रहे
सोचती हूँ,
इंतजार करती हूँ।
तुम्हारे शहर आने के दिन
और फिर
चले जाने के दिन,
बाद भी तुम्हारी
कोई ख़बर नहीं है।
और फिर
तुम बताते हो कि;
काम बहुत था
समय का घोर संकट था,
इस कर
मिलना संभव नहीं हो पाया।
मुझे आस है फिर,
तुम्हारे, फिर आने की,
चुप सी मैं, तब तक,
जब तुम फिर कहोगे कि
शहर आना होगा तुम्हारा।