Creativity
निहारना
उमेश राय
एकटक निहारना उसे,
हारना कहाँ?
बल्कि यहाँ कितना आनंद उमगता है,
उर में, सुर में, अंत:पुर में
दृश्य उभरता है…
बस वहाँ अकर्ता है…
एक रोज ‘पनाह’ माँगा था मैंने,
और मिला..
‘बेपनाह प्रेम’ !
प्रेम, बेपनाह ही होता है
महनीय है,नियति-नटी के नाटक से,
नीयत की असलियत…
इसी में रत हैं,
जीवन-चरण!
रण जो चलता है हमेशा,
दिखे-अनदिखे,
हम आचरण की आभा में,
गति-लय सरीखे.
स्वेद-कण, संवेद-क्षण,
संवादी प्राण-पण!
यहीं पाता समस्या का हल,
कर पहल,हिमनद-सा गल,
सरिता की सार-सुधा तभी
नम करती है,
मेरी माटी को,
सौंधे-सौंधे महक के साथ…
याद रखना,
महक पर हक मत जताना,
केवल,उसे पीना, जीना..
अपने समूचे आयाम में,
अनायास…