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गारे व फूस से बनी रसोई, मिट्टी का चूल्हा, दूध का रेट और समझदार भैंसें

आपको मिलवाते हैं मीर हमजा से, जो खैरी गांव में जंगल के पास रहते हैं। वन गुर्जर मीर के पास 20 पशु हैं, जिनमें गाय-भैंस शामिल हैं। उनके दस पशु दूध दे रहे हैं। एक पशु प्रतिदिन दोनों टाइम दस लीटर दूध देता है।

मीर हमजा दूध को डोईवाला की एक डेयरी में बेचते हैं। कहते हैं, पशुओं की देखरेख में इतना व्यस्त रहते हैं कि समय ही नहीं मिलता कि कोई अन्य काम भी किया जाए। कभी कभार कोई काम मिल जाता है तो कर लेते हैं। कुछ दिन उन्होंने ड्राइविंग भी की।

उन्होंने बताया कि लगभग आठ से दस साल हो गए, पर दूध का रेट नहीं बढ़ा। हमसे आज भी गाय का दूध 32 रुपये और भैंस का दूध 40 रुपये लीटर लिया जाता है। उनके हिसाब से दूध का रेट 60 से 65 रुपये प्रति लीटर होना चाहिए। पर, यह रेट कब मिलेगा, पता नहीं।

बताते हैं कि गुर्जर परिवारों को लागत एवं मेहनत के हिसाब से दूध का रेट नहीं मिल पा रहा है। पशु आहार के दाम बहुत बढ़ गए थे। हमारे पशु जंगलों में चरते हैं, पर उनको खली, चोकर, दाना तो खिलाना पड़ता है। पशुओं की पूरी देखरेख करनी होती है।

कहते हैं कि गुर्जर पशुपालक दूध में कोई मिलावट नहीं करते। हम शुद्ध दूध बेचते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हमारे पशु जंगलों में चरते हैं, इसलिए वो जो भी कुछ खाते हैं, शुद्ध खाते हैं।

मीर हमजा से हमारी मुलाकात उस समय हुई, जब ग्वाला भाइयों चैतराम और गोविंद राम से बात करने पहुंचे थे। जानिए उनसे क्या बात हुई-एक दिन की दिहाड़ी 65 रुपये के लिए रोजाना 20 किमी. पैदल चलते हैं 65 साल के बुजुर्ग

मीर का घर खैरी में जंगल के पास है। उनके घर तक जाने वाला रास्ता कच्चा, पथरीला और बारिश में दलदल वाला है। यहां और भी परिवार रहते हैं, पर उनके लिए सड़क कब बनेगी, कहा नहीं जा सकता। पर, सुकून की बात यह है कि खैरी वनवाह की तरह यहां बिजली-पानी का अभाव नहीं है। बिजली भी है और पानी के नल भी लगे हैं।

तय समय पर जंगल से लौटकर खूंटों पर खड़े हो जाते पशु

शाम के छह बजे हैं। पाइप लगाकर पशुओं के लिए सीमेंट से बने हौज में पानी भरा गया है। पशु जंगल से लौटने ही वाले हैं। मीर बताते हैं कि पशु जंगल से लौटकर सबसे पहले पानी से भरी हौज पर पहुंचेंगे।

कुछ ही देर में भैंसों का झुंड एक लाइन में जंगल से बाहर निकला और सीधे पानी से भरे हौज की ओर बढ़ा। मीर ने हमें बताया कि हमारी भैंसे खुद ही जंगल चली जाती हैं और ठीक टाइम पर घास चर कर वापस लौटती हैं।

सबसे पहले आकर पानी पीती हैं और फिर सीधे अपने खूंटों पर पहुंच जाती हैं, जिनको हम बांध देते हैं। सुबह फिर भैंसों को जंगल की ओर भेज देते हैं।

मीर ने जैसा हमें बताया, वैसा ही हमने देखा कि पशु अपने खूंटों पर खुद पहुंच रहे हैं। यहां सबकुछ स्वचालित था, इसमें किसी ने पशुओं को उनके खूंटों की ओर नहीं हांका था। जबकि, हमने कई बार पशुओं को खूंटा तोड़कर खेतों में दौड़ लगाते देखा है।

खैरी में रहने वाले शबीर अहमद बताते हैं कि गुर्जर पशुओं को बांधकर नहीं रखते। शहर या गांवों में पलने वाले पशु हमेशा बंधे रहने की वजह से एक बार खुलने पर दौड़ लगा लेते हैं। पशुओं को चरने के लिए बाहर ले जाना चाहिए। खूंटों पर बंधे रहकर उनमें बेचैनी बढ़ती है। उनकी मनोदशा बहुत अच्छी नहीं रहती। इसका प्रभाव दूध की गुणवत्ता पर भी पड़ता है।

हमारे पूछने पर मीर ने बताया कि गुर्जर अपने पशुओं को नहीं बांधते। हमारे पास पशु ज्यादा होते हैं, इसलिए इनके लिए हवादार बाड़े बनाते हैं। बाड़ों को चारों तरफ मजबूत बल्लियों से कवर कर देते हैं। पशु बाहर नहीं निकल पाते।

पर, मेरे पास बाड़ा नहीं है, इसलिए पशुओं को बांधना पड़ता है। ऐसा नहीं करेंगे तो रात में इनके आसपास के खेतों में घुसने का डर बना रहेगा।

कभी जंगल से नहीं भी लौटते पशु

मीर ने बताया कि कई बार ऐसा भी होता है कि उनके पशु जंगल से तय समय पर नहीं लौटते। दो -तीन बाद लौटते हैं। नदी किनारे चरते या बैठे रहते हैं। इस स्थिति में हमें वहां जाकर इनकी निगरानी करनी पड़ती है। वहां जंगली जानवरों का डर भी रहता है।

वैसे भी, हम दिन में एक या दो बार इनको देखकर आते हैं। हमारे कुछ साथी अपने पशुओं को साथ लेकर जाते हैं और साथ लेकर वापस लौटते हैं। गायों को जंगल अकेले नहीं भेजते, क्योंकि जंगली जानवर इन पर हमला कर सकते हैं।

गन्नों में उगी घास पशुओं के लिए काटतेः इस दौरान हमें कुछ लोग घास लाते हुए मिले। हमें बताया गया कि गन्ने की फसल के बीच में उगी घास पशुओं के लिए काटकर लाते हैं। खेत मालिक भी चाहते हैं कि यह घास काट ली जाए। इससे उनके खेतों में अनावश्यक उगी घास हट जाती है।

बच्चों को खूब पढ़ाएंगे

यहां रहने वाले सभी बच्चे नजदीकी राजकीय प्राथमिक पाठशाला में पढ़ाई करते हैं। हमने बच्चों को यहां सड़क पर दौड़ते हुए, पशुओं की देखरेख में हाथ बंटाते हुए देखा। मीर कहते हैं कि वो बच्चों को खूब पढ़ाना चाहते हैं। पढ़ाई लिखाई से बच्चों को भविष्य बहुत अच्छा हो जाएगा।

मिट्टी, गारे की रसोईः पक्के घर के सामने लॉकडाउन के समय पारंपरिक रसोई बनाई है, जिसको मिट्टी, गारे, फूस और लकड़ियों से बनाया गया है।

कहते हैं कि यह हमारी पहचान है, इसको नहीं भुला सकते। खाना हम इसी रसोई में बनाते हैं।

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Rajesh Pandey

उत्तराखंड के देहरादून जिला अंतर्गत डोईवाला नगर पालिका का रहने वाला हूं। 1996 से पत्रकारिता का छात्र हूं। हर दिन कुछ नया सीखने की कोशिश आज भी जारी है। लगभग 20 साल हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। बच्चों सहित हर आयु वर्ग के लिए सौ से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। स्कूलों एवं संस्थाओं के माध्यम से बच्चों के बीच जाकर उनको कहानियां सुनाने का सिलसिला आज भी जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। रुद्रप्रयाग के खड़पतियाखाल स्थित मानव भारती संस्था की पहल सामुदायिक रेडियो ‘रेडियो केदार’ के लिए काम करने के दौरान पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाने का प्रयास किया। सामुदायिक जुड़ाव के लिए गांवों में जाकर लोगों से संवाद करना, विभिन्न मुद्दों पर उनको जागरूक करना, कुछ अपनी कहना और बहुत सारी बातें उनकी सुनना अच्छा लगता है। ऋषिकेश में महिला कीर्तन मंडलियों के माध्यम के स्वच्छता का संदेश देने की पहल की। छह माह ढालवाला, जिला टिहरी गढ़वाल स्थित रेडियो ऋषिकेश में सेवाएं प्रदान कीं। बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहता हूं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता: बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी संपर्क कर सकते हैं: प्रेमनगर बाजार, डोईवाला जिला- देहरादून, उत्तराखंड-248140 राजेश पांडेय Email: rajeshpandeydw@gmail.com Phone: +91 9760097344

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