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Challenges in Uttarakhand Journalism: दलीय राजनीति से प्रेरित हैं गुटों में बंटे पत्रकार, पर एक सच यह भी है

Challenges in Uttarakhand Journalism
राजेश पांडेय। देहरादून, 20 अक्तूबर, 2025
Challenges in Uttarakhand Journalism: उत्तराखंड के संदर्भ में बात की जाए तो यहां पत्रकारों के गुट दलीय राजनीति से प्रेरित होते दिखते हैं। निष्पक्ष पत्रकारिता का दंभ भरने वाले भी इस दायरे से बाहर नहीं आ पा रहे। अक्सर माना यही जाता है कि पत्रकारिता जनता की आवाज है, पर राजधानी में बैठे पत्रकारों के कई स्वघोषित मठाधीशों का जोर उस नजरिये पर ज्यादा होता है, जिसको उनका गुट विशेष हवा देना चाहता है। यहां पत्रकारों को सर्टिफिकेट देने का काम भी वही लोग कर रहे हैं, जो गुट विशेष के नजरिये से पत्रकारिता करते हैं।

विशेष रूप से दो भागों में विभाजित पत्रकार, जिनमें एक को सरकार की गोदी में बैठा हुआ माना जा रहा है, तो दूसरे को सरकार के हर निर्णय, क्रिया प्रतिक्रिया में कमी को उजागर करने वाला और कई मौकों पर तिल को भी ताड़ बनाने वाला माना जा रहा है।

सरकार कुछ अच्छा करे, जनहित में कोई सूचना प्रसारित करे तो उसका प्रसार क्यों नहीं किया जाना चाहिए। सरकार या उसके तंत्र के स्तर से कमियां हैं तो उसको भी जनता के सामने लाना चाहिए। यही पत्रकारिता का सर्वमान्य नियम है।

पर, जो बात गुटीय पत्रकारिता में देखने को मिल रही है, उसमें पूरी तरह से भांडगीरी, स्वामी भक्ति का आशय, दरबारियों वाला राग… साफ दिखता है। इनको न तो दिक्कतें दिखती हैं और न ही सरकारी स्तर से होने वाली कोई कमी। ये नेताओं और अफसरों को ईमानदारी, श्रेष्ठता, कमाल- बेमिसाल होने के सर्टिफिकेट बांट रहे हैं। यहां सर्वार्थ नहीं बल्कि स्वार्थ की बात पहले है। कहने में कोई गुरेज नहीं, इनमें से कई पत्रकारिता से इसलिए जुड़े, ताकि वो सरकार और उसको सिस्टम से जुड़ सकें।

अब, विरोधी मोर्चे का हाल यह है कि उसके चश्मे को कुछ भी अच्छा नहीं दिखता। ऐसा हो ही नहीं सकता कि सरकार जनहित में एक भी निर्णय नहीं ले, चाहे वो किसी भी दल की सरकार हो। गलत का विरोध होना चाहिए, पर अच्छे को शाबासी भी तो मिलनी चाहिए। पत्रकारिता का काम सिर्फ खबर पेश करना है, सिस्टम में मौजूदा खामियों और अच्छाइयों को दिखाना है। जनता की आवाज को बुलंद करना है। जनता की बात सिस्टम तक पहुंचाना है। किसी राजनीतिक दल या किसी व्यक्ति विशेष की चुनावी महत्वकांक्षा के लिए जनता को लामबंद करके सड़कों पर उतारना नहीं है। यह काम राजनीतिक दलों का है, पत्रकारों का नहीं। किसी के पक्ष में माहौल बनाना पत्रकारिता का उसूल नहीं है।

पर, अधिकतर बार यहां पत्रकारिता के केंद्र में सिर्फ सरकार और उसके सिस्टम का कामकाज, गुटीय राजनीति के साथ पक्ष या विपक्ष ही है। पत्रकार या तो उस पार हो या फिर इस पार, होना चाहिए, ऐसी बातें भी सामने आ रही हैं।

यह सही है कि पत्रकारिता सरकार और उसके सिस्टम की खामियों को उजागर करती है, राजनीतिक दलों की गतिविधियों को भी कवर करती है, ऐसा करना भी चाहिए, पर क्या केवल पत्रकारिता को इसी के इर्दगिर्द होना चाहिए। क्या, उसका मकसद किसी को उठाना या किसी को नीचे गिराने तक ही सीमित है।

सबसे हटकर, पत्रकारिता की एक विधा यह भी है

पत्रकारिता का एक स्वरूप और भी है, जो व्यवस्था की खामियों पर चोट करने के साथ जनपक्ष और डेवलपमेंट पर ज्यादा फोकस करता है। यह मौके पर पहुंचकर ग्राउंड रिपोर्टिंग पर जोर देता है। दुखद यह है कि उत्तराखंड की पत्रकारिता में इस विधा पर बहुत कम काम हो रहा है। पर, देशभर में कई पत्रकार इस पर काम कर रहे हैं, हालांकि इनकी संख्या कम है। जन पत्रकारिता के उद्देश्य को पूरा करने वाले यही पत्रकार हैं।

ग्राउंड जीरो पर जाकर जनता की आवाज को, उनकी पीड़ा को, मुश्किलों के साथ समाधान को, बेस्ट प्रैक्टिसेज को, इनोवेशन को… और भी बहुत सारी स्टोरीज को करने में मेहनत लगती है। पर, यहां राजधानी के एसी कमरों में आरटीआई, न्यूज क्लिप्स, अखबारों की कतरनों, रिपोर्ट्स को अपने हिसाब से ढालकर स्क्रिप्ट लिखना, कैमरे के सामने बोलना ज्यादा आसान मालूम पड़ता है।

पर, सलाम है उन पत्रकारों को, जिनका मकसद सिर्फ और सिर्फ जनपक्ष है, जनसंचार है, न कि किसी के स्वार्थ की पूर्ति के लिए अपना कंधा उपलब्ध कराना है।
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स्मार्ट फोन तो ठीक है, पर पत्रकारिता भी स्मार्ट हो

जब सोशल मीडिया नहीं था, उस समय प्रिंट, टीवी यानी इलेक्ट्रानिक मीडिया और रेडियो जर्नलिज्म ही थे। पर, तकनीक की प्रगति ने पत्रकारिता को नये आयाम दिए, जिनमें सोशल मीडिया, जिसे हम न्यू मीडिया भी कहते हैं, ने धमाल मचा दिया। अब जिनके भी पास स्मार्ट फोन हैं, वो सभी पत्रकारिता कर सकते हैं, ऐसा कहना सही नहीं होगा। सिर्फ स्मार्ट फोन और माइक होने भर से पत्रकारिता नहीं की जा सकती है, क्योंकि पत्रकारिता के अपने नियम और सीमाएं हैं। इन नियमों, जिनको हम आचार संहिता कहते हैं, को पहले समझना, मानना और फिर लागू करना सबसे पहली आवश्यकताएं हैं।

मैंने 1996 के दौर में पत्रकारिता शुरू की, तब सोशल मीडिया नहीं था। अखबारों और पत्रिकाओं की संख्या भी इतनी अधिक नहीं थी। खबरें और फोटो कंप्यूटर सिस्टम में लगे मॉडेम के माध्यम से प्रकाशन केंद्रों तक भेजे जाते थे। मॉडेम एक नेटवर्किंग डिवाइस होता है, जो कंप्यूटर को इंटरनेट से जोड़ता है। पर, अब तो सर्वर पर चल रहे सीएमएस, एफटीपी या इससे भी कुछ और तकनीक पर कमाल हो रहा है।

सोशल मीडिया ने पत्रकारिता को रियल टाइम बनाया, पर नुकसान भी कम नहीं किया

बात कर रहा था, पत्रकारिता के बदलते वक्त और पत्रकारों के बदलते व्यवहार और कार्यशैली की। सोशल मीडिया ने पत्रकारिता को आसान तो किया है, इसको रियल टाइम तो बनाया है, पर इसने इसको नुकसान भी कम नहीं पहुंचाया। अधिकतर लोगों में यह भ्रांति व्याप्त है कि स्मार्ट फोन ही पत्रकारिता के लिए काफी है। पर, जैसा कि मैंने पहले भी जिक्र किया है कि यह सच नहीं है, यह सच के करीब भी नहीं है। इस बात की तस्दीक पत्रकारिता के नाम पर हो रहे भ्रामक प्रचार, तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर पेश करने की प्रवृत्ति, अफवाह फैलाने की घटनाएं, झूठी सूचनाएं फैलाने, तथ्यहीन सूचनाएं प्रसारित करने, अपने स्वार्थ के लिए दूसरों की छवि बिगाड़ने का कुत्सित प्रयास करने, किसी के भी महिमामंडन को खबर सी शक्ल देने की प्रवृत्तियों से हो रही है। और भी, बहुत कुछ गलत हो रहा है पत्रकारिता की आड़ में। सोशल मीडिया पर यह जो कुछ भी चल रहा है, उसको पत्रकारिता नहीं कहा जा सकता, न ही इस कृत्य को करने वाले पत्रकार कहलाए जा सकते हैं।

पहले दौर में, पत्रकार घटनास्थल पर जाते थे और मौके के हालात को जानते थे, वहां उनको बहुत सारे सवालों के जवाब और तथ्य मिल जाते थे। यही बात उनको सच तक ले जाती थी। पत्रकार सूचनाओं के लिए दफ्तरों में जाते थे। लोगों से मिलते थे। अखबारों के दफ्तरों में विज्ञप्तियां लेकर लोग आते थे। दूसरे दिन के अखबार में क्या प्रकाशित होगा, लोग जानने के इच्छुक रहते थे। पर, अब यह बहुत कम देखने को मिलता है। अब तो सरकार अपने सोशल मीडिया पर सूचनाएं देती है। अधिकतर बार ये सूचनाएं ही खबरों की शक्ल में प्रकाशित होती हैं। पत्रकार मौके पर जाकर इन सरकारी बैठकों और कार्यक्रमों को कवर नहीं करते,क्योंकि उनके पास समय ही नहीं है।

कच्ची पक्की सूचनाओं की बाढ़ से बढ़ा प्रेशर, फटाफट खबरें देकर व्यूज पाने की होड़

सोशल मीडिया पर पक्की, कच्ची सूचनाओं की बाढ़ ने पत्रकारों पर प्रेशर बनाया है। वहीं, रियल टाइम न्यूज का दबाव अलग से हावी है। संशय इस बात का भी है कि विज्ञापन पाने के कंपटीशन में खबरों पर सेंसर लगता है, तभी तो आज का मीडिया पहले जैसा नहीं दिखता।

सोशल मीडिया के दौर में, मौके पर जाने वाले पत्रकार कम हैं, पर खबर प्रकाशित और प्रसारित करने वालों की बाढ़ है। इनमें अधिकतर वो लोग होते हैं, जिनके फोन तो स्मार्ट होते हैं पर उनको पत्रकारिता की बुनियादी बातों का भी ज्ञान नहीं है। कई तो कंटेंट को भी एडिट किए बिना वैसा ही प्रकाशित कर देते हैं, जैसा उनको मिला था। अपने पास से वैल्यू एडिशन तक नहीं करते। वैसे भी वैल्यू एडिशन वही कर पाएगा, जिसके पास अतिरिक्त तथ्य होंगे, जिनकी रिपोर्टिंग डायरी मजबूत होगी, जो मौके पर गया होगा। यहां खबर की कवरेज से ज्यादा फोकस उसको फटाफट प्रकाशित करके व्यूज बटोरने पर है। पूरा खेल व्यूज का है, जिसके लिए सोशल मीडिया पर जल्दबाजी का माहौल है।

वैसे, सच तो यह भी है कि वेबसाइट्स व सोशल मीडिया प्लेटफार्म्स पर खबरों और बाकी कंटेंट को प्रकाशित और प्रसारित करने वालों में से कई को यह भी नहीं मालूम रहता कि खबर अधिकारिक स्रोत से पुष्ट है या नहीं। उनका काम कॉपी पेस्ट, फॉरवर्ड करने तक सीमित है। हेडिंग, फोटो भी एक समान हो जाए, उनको कोई फर्क नहीं पड़ता। पत्रकारिता के सिद्धांतों की अनदेखी, रीडर्स के प्रति गैर जिम्मेदाराना रवैया अक्सर इसी तरह की पत्रकारिता में देखने को मिलता है। इनका सोशल मीडिया प्रोफाइल, अपने या किसी दूसरे के स्वार्थ को पूरा करने का माध्यम भी बनता है। यही पत्रकारिता के सामने सबसे बड़ी चुनौती है।

सोशल मीडिया के दौर में पत्रकारिता का उजला पक्ष

न्यू मीडिया, जो सोशल मीडिया पर संचालित होता है, वो कई मौकों पर दमदार दिखाई पड़ता है। हालांकि, यह कई दफा अनियंत्रित भी जान पड़ता है और कई बार नौसिखिये सा व्यवहार करता दिखता है, क्योंकि किसी के पास स्मार्ट फोन होना उसकी रिपोर्टिंग के स्मार्ट होने की गारंटी नहीं है। पर, यहां कुछ लोग मेहनत एवं ईमानदारी और पत्रकारिता की साख एवं उच्चतम स्तर को बनाए रखे हैं, इसलिए सोशल मीडिया जर्नलिज्म के उनके कंटेंट को पसंद किया जा रहा है।

कई पत्रकारिता को तमाशा बनाने वाले मनोरंजन के तौर पर भी देखे जाते हैं। मेरी राय में ये पत्रकारिता नहीं कर रहे, बल्कि व्यूज बटोरने की कोशिश कर रहे हैं, जिसमें आर्थिक उन्नति दिखती है।

अंत में, यह बात भी पूरी तरह पुख्ता तौर पर बता सकता हूं कि कुछ पत्रकारों ने सोशल मीडिया के सकारात्मक प्रभाव के दर्शन भी कराए हैं। इन पत्रकारों को वर्तमान दौर में पत्रकारिता का उजला पक्ष कहूं, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

ये पत्रकार स्मार्ट फोन के साथ सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स का इस्तेमाल पुष्ट सूचनाओं को जन जन तक पहुंचाने, फैक्ट चेक के साथ अफवाहों पर विराम लगाने, प्रभावितों एवं पीड़ितों की अभिव्यक्ति को अधिकतम प्रसार देने, समस्याग्रस्त इलाकों एवं व्यक्तियों की आवाज सरकार और उसके सिस्टम तक पहुंचाने, जागरूकता बढ़ाने, सरकारी सिस्टम की खामियों, लचरता, लापरवाही को उजागर करने, गलत फैसलों के खिलाफ जनता की अभिव्यक्ति को प्रसार देने, हर समुदाय के हित को प्राथमिकता देने, कानून विरोधी व भ्रष्टाचार की गतिविधियों को उजागर करने जैसी कई जिम्मेदारियों को पूरा करने में कर रहे हैं।

ये पत्रकार देश के संविधान में प्रदत्त अधिकारों एवं व्यवस्थाओं को बनाए रखने के लिए अपने कर्तव्यों को पूरा करने में पीछे नहीं हैं। ये पत्रकार ही पत्रकारिता को जिंदा रखने वाले, उसकी साख को बनाए रखने वाले हैं।

* ये मेरे अपने विचार हैं, हो सकता है कि इनसे कोई सहमत न हो।

Rajesh Pandey

newslive24x7.com टीम के सदस्य राजेश पांडेय, उत्तराखंड के डोईवाला, देहरादून के निवासी और 1996 से पत्रकारिता का हिस्सा। अमर उजाला, दैनिक जागरण और हिन्दुस्तान जैसे प्रमुख हिन्दी समाचार पत्रों में 20 वर्षों तक रिपोर्टिंग और एडिटिंग का अनुभव। बच्चों और हर आयु वर्ग के लिए 100 से अधिक कहानियां और कविताएं लिखीं। स्कूलों और संस्थाओं में बच्चों को कहानियां सुनाना और उनसे संवाद करना जुनून। रुद्रप्रयाग के ‘रेडियो केदार’ के साथ पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाईं और सामुदायिक जागरूकता के लिए काम किया। रेडियो ऋषिकेश के शुरुआती दौर में लगभग छह माह सेवाएं दीं। ऋषिकेश में महिला कीर्तन मंडलियों के माध्यम से स्वच्छता का संदेश दिया। जीवन का मंत्र- बाकी जिंदगी को जी खोलकर जीना चाहता हूं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता: बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक, एलएलबी संपर्क: प्रेमनगर बाजार, डोईवाला, देहरादून, उत्तराखंड-248140 ईमेल: rajeshpandeydw@gmail.com फोन: +91 9760097344

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