उत्तराखंड में पलायनः राजधानी के पास का गांव, जहां अब बुजुर्ग ही रहते हैं
राजेश पांडेय। न्यूज लाइव ब्लॉग
‘‘ जब पानी ही नहीं मिल रहा है, तो खेती कैसे करेंगे। खेत खाली पड़े हैं। थोड़ा बहुत गुजारे के लिए सब्जियां उगाते हैं तो इनको जंगली जानवर नहीं छोड़ते। वैसे भी पूरा गांव खाली हो गया है। पर, मैं अपने गांव से कहीं नहीं जाऊँगा। मेरा जीवन यहां बीता है, मैं इसे छोड़कर क्यों जाऊं। मुझे पता है, जो लोग यहां से बाहर गए हैं, वो यहां लौटकर आएंगे,’’ 75 साल के बुजुर्ग चंदन सिंह कंडारी अपने गांव कलजौंठी में न्यूज लाइव से बात कर रहे थे।
कलजौंठी गांव में कंडारी जी और उनकी पत्नी श्रीमती कमला देवी रहते हैं। आईटीबीपी में सेवारत थे, पर कुछ कारणों से वर्षों पहले ही नौकरी छोड़कर गांव लौट आए थे। गांव में खेतीबाड़ी की, पशुओं को पाला और बच्चों को शिक्षित किया। कहते हैं, बच्चे रोजगार के सिलसिले में शहरों में रहते हैं। हमें अपने साथ ले जाना चाहते हैं, पर हम यहां से कहीं नहीं जाना चाहते। हमें यहां अच्छा लगता है।
अब इस उम्र में खेती बाड़ी में ज्यादा मेहनत नहीं कर सकते। पर, अपने सामने खेतों को बंजर होता नहीं देख सकते। यदि सिंचाई के लिए पानी मिल जाए तो कुछ पेड़ों को तो बचा ही सकते हैं।
कंडारी जी बताते हैं कि 90 के दशक में आम के 250 पेड़ लगाए थे, उनमें से अब 50 ही बचे हैं। अधिकतर पौधे पानी नहीं मिलने से सूख गए या फिर उनको जानवर खा गए। बचे हुए पेड़ों पर आम खूब लगते हैं, पर यहां से आम लेकर मंडी तक कौन जाएगा, वो सवाल करते हैं।
सरकार चाहे तो क्या नहीं हो सकता। गूल टूटी है, उसको न भी सही कराएं, पर हमें स्रोत से खेत तक पानी पहुंचाने के लिए पाइप तो दिया जा सकता है। गूल की मरम्मत करना, इससे झाड़ झंकाड़ हटाना हमारे बस की बात नहीं है। सिंचाई के पानी का स्रोत लगभग डेढ़ किमी. दूर है, वहां बहुत पानी है, पर शायद हमारे खेतों के लिए नहीं।
बताते हैं, लगभग 35 साल पुरानी पेयजल लाइन बदली जा रही है। पीने के पानी की फिलहाल कोई दिक्कत नहीं है। बिजली भी है, पर यहां तक सड़क नहीं है। अस्पताल भी यहां से दूर कोडारना में है।
दृष्टिकोण समिति के अध्यक्ष मोहित उनियाल के साथ 29 दिसंबर 2021 को कलजौंठी गांव जाने के लिए हमने वाया भोगपुर, कोडारना वाला रास्ता चुना। कोडारना तक सड़क है और उससे आगे लगभग साढ़े तीन किमी. जीप मार्ग है। मैंने पहली बार देखा कि इस तरह के रास्ते को जीप मार्ग कहा जाता है।
कोडारना में रोड़ी बिछाने का काम चल रहा था। बाइक को गांव में ही खड़ा करके करीब दो सौ मीटर रोड़ी वाले रास्ते को पैदल पार किया। थोड़ा सा आगे बढ़े तो महसूस किया कि यहां से थोड़ा सा जोखिम उठाकर बाइक या फिर चौपहिया से आगे बढ़ सकते हैं, पर रिस्क भरपूर है। इस रास्ते पर पर्वतीय रास्तों पर चल सकने वाले वाहन ही लेकर जाएं।
कलजौंठी उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल जिला की कोडारना ग्राम पंचायत का गांव है और नरेंद्र नगर विधानसभा क्षेत्र में आता है। कोडारना ग्राम पंचायत का एक और गांव है बखरोटी, जहां अब कोई नहीं रहता।
हम पैदल ही आगे बढ़े। कहीं जंगल से होकर और कहीं बरसाती गदेरे पार करके करीब एक घंटे में कलजौंठी गांव पहुंच गए। इन दिनों बरसाती गदेरे सूखे हैं, इसलिए कहीं कोई दिक्कत नहीं हुई।
कोडारना से कलजौंठी के रास्ते में ढलान अधिक है, मुश्किल से आधा किमी. चढ़ाई होगी। इसलिए मैं यह सोचता रहा कि जाते वक्त आसानी है, पर आते वक्त कितना कष्ट होगा। क्योंकि मुझे पर्वतीय रास्तों पर चलने का अनुभव बहुत ज्यादा नहीं है।
वो तो अच्छा था, सर्दियों के दिन हैं, नहीं तो यह यात्रा बहुत कष्ट देने वाली होती। हम पानी लेकर नहीं गए थे, जिसकी कमी रास्तेभर खलती रही।
खैर, आगे बढ़ते गए और पहुंच गए कलजौंठी गांव में, जो दो हिस्सों में बंटा है। एक हिस्सा जो पहले पड़ता है,वहां चंदन सिंह कंडारी, उनकी पत्नी कमला देवी और पूरण सिंह कंडारी, उनकी पत्नी रोशनी देवी रहते हैं। इन बुजुर्गों की वजह से ही हम कह सकते हैं कि कलजौंठी पूरी तरह से पलायन करने वाला गांव नहीं है।
इन्होंने क्यारियों में आलू, प्याज, सरसो, धनिया, मिर्च उगाई हैं। क्यारियों में डहेलिया और गेंदे के फूल खिले हैं। अमरुद, आंवला, अनार, आम के पेड़ हैं, जिनका सबसे ज्यादा लाभ जंगली जानवर उठाते हैं।
कमला देवी बताती हैं, उन्होंने खेत में मिर्च लगाई थीं, पर बंदर पौधों को नुकसान पहुंचा रहे थे, इसलिए सारे पौधे काटने पड़ गए। खरगोश आलू, प्याज की पौधों को जड़ों से उखाड़ देते हैं।
‘‘मेरा पूरा जीवन पशुओं की सेवा में बीता। उनकी देखरेख में समय कब बीत गया, पता नहीं चलता था। हमने पशुओं के लिए अलग से कमरा और गोशाला बनाई थी। करीब एक साल पहले सभी गायों, बछड़े-बछड़ियों को आश्रम को दे दिया। जब भी टीवी पर गायों को देखती हूं तो अपने पशुओं की याद आ जाती हैं, पर क्या करें हम मजबूर हैं। हमारे से अब उनकी सेवा नहीं हो सकती थी,’’ कमला देवी बताती हैं।
गांव का दूसरा हिस्सा-
बुजुर्ग चंदन सिंह कंडारी हमें गांव के दूसरे हिस्से में ले जाते हैं, जहां पसरा सन्नाटा बता रहा है कि किसी के लिए अपना घर-गांव छोड़ना बहुत आसान नहीं होता। पर, क्या करें रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधा किसको नहीं चाहिए। बुनियादी सुविधाएं जितनी अच्छी होंगी, उतनी ही बेहतर जिंदगी होगी। आखिर, वो क्यों न करें पलायन ।
करीब आधा किमी. चलने के बाद हम गांव के दूसरे हिस्से में थे, जिसमें प्रवेश के लिए तार से बुने गेट को पार करना था। बताते हैं कि जंगली जानवरों को गांव में घुसने से रोकने के लिए यह तारबाड़ की गई, पर ये नाकाफी है। हम यहां वर्षों पहले बने दोमंजिला मकान के सामने थे, जहां अब कोई नहीं रहता। घर के दरवाजे उखड़े हैं, छत पर घास उग गई है। बड़े पत्थरों को काटकर बनाई गईंं सीढ़ियों को देखकर लगता है, इनका लंबे समय से उपयोग नहीं हुआ। पशुओं को बांधने वाले स्थान पर झाड़ियों का कब्जा है।
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कंडारी जी बताते हैं, उनका बचपन, युवावस्था इस घर में बीते। यह तीन परिवारों का संयुक्त घर था। खेती बाड़ी, पशुपालन क्या नहीं था, हमारे गांव में। सब खुश थे, बच्चे पढ़ाई के लिए कोडारना जाते थे, यहां न तो तब स्कूल था और न अब है। पहले तो यह कच्चा रास्ता भी नहीं था। शार्टकट रास्तों से जोखिम उठाते हुए बच्चे स्कूल गए। सभी लोग गांव में थे, इसलिए खेती भी खूब हुई। अब कुछ नहीं बचा।
पहले के लोग शिक्षा के प्रति इतने जागरूक नहीं थे। नई पीढ़ियों को शिक्षा का महत्व पता है, इसलिए उनको गांव छोड़ना पड़ा। रोजगार के लिए तो बाहर जाना ही पड़ेगा। बताते हैं, इस गांव में दो परिवार, जिनमें चार लोग हैं, ही स्थाई तौर पर रहते हैं। उनके एक भाई भी यहां अपने मकान पर आते रहते हैं। यह गांव करीब सात-आठ साल पहले खाली होने लगा था।
यहां खंडहर में तब्दील हो चुके मकान देखे, सूनी गलियां देखीं। भवनों के पास और रास्ते में उगी झाड़ियां देखीं। लगता है कि लंबे समय से यहां लोगों की चहलकदमी नहीं हुई होगी। यह गांव पहले की तरह कब गुलजार होगा। यहां युवा और बच्चे कब लौटेंगे। शायद, इसका जवाब किसी के पास नहीं है। पर, रायचंद्र सिंह कंडारी को उम्मीद है कि एक दिन उनका गांव फिर से आबाद होगा।
हम सन्नाटे के बीच गांव में घूम रहे थे। चंदन सिंह जी, हमें सूनी गलियों से होते हुए एक घर में ले गए। यह घर उनके भाई रायचंद्र सिंह कंडारी का है। इस समय अपने घर पर आए थे। हमें बड़ी खुशी मिली, क्योंकि अभी तक हम तो यही मान रहे थे कि यहां कोई नहीं रहता। पर, रायचंद्र सिंह 15 दिन यहां और 15 दिन अपने रानीपोखरी स्थित घर में रहते हैं।
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रायचंद्र सिंह भूमि संरक्षण विभाग से वर्ष 2013 में सेवानिवृत्त हो गए थे। घर का आंगन दिखाते हुए बताते हैं कि यहां 35 पशु बंधते थे। दूध, दही, घी की कोई कमी नहीं थी। आठ-दस पशु दूध देने वाले थे। पशु दूर-दूर तक चरने जाते थे। एक घोड़ा था, जो सामान ढोता था।
बताते हैं, वो सामने बंजर पड़े खेतों को देख रहे हो, वहां मेरी ऊंचाई तक के गेहूं के पौधे उगते थे। यहां कुंतलों गेहूं उगा। अब यहां कोई खेती करने वाला नहीं है। इन दिनों यहां पास में ही कटहल, नारंगी के पेड़ लगाए हैं, पर जंगली जानवर इनको नुकसान पहुंचा रहे हैं।
रायचंद्र सिंह ने बताया, बच्चे बड़े हो गए और उनको रोजगार के लिए यहां से बाहर जाना पड़ गया। उनके बच्चे वहीं के स्कूलों में पढ़ते हैं। यहां रहकर तो बच्चों की पढ़ाई नहीं हो पाएगी, इसलिए सबको गांव छोड़ना पड़ गया। लोगों ने अपने संसाधन जोड़ जोड़कर भोगपुर, रानीपोखरी, भानियावाला में घर बना लिए।
‘‘हम तो सरकार से रोड की मांग करते हैं। यदि सड़क बन जाए तो आगराखाल से लेकर कोडारना होते हुए देहरादून तक जुड़ जाएंगे। आगराखाल होते हुए टिहरी, उत्तरकाशी, गंगोत्री, यमुनोत्री के लिए यात्री यहां से होते हुए जाएंगे। यहां से तिनली तक दस ग्राम सभाओं के लगभग पांच हजार लोगों की आजीविका संबंधी बहुत सारी दिक्कतें दूर हो जाएंगी। यहां टूरिज्म बढ़ेगा, लोग आएंगे, जाएंगे तो स्थानीय उत्पादों को घर पर ही बाजार मिल जाएगा। युवाओं के लिए आजीविका के साधन बढ़ेंगे तो वो फिर यहां से बाहर क्यों जाएंगे। यहां से देहरादून या नरेंद्र नगर तक कोई फल या अनाज ले जाने का किराया ही बहुत पड़ जाएगा, तो फिर किसान को क्या फायदा होगा,’’ राय चंद्र सिंह का कहना है।
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हम लौट आए, उस गांव से जो उत्तराखंड की राजधानी से मात्र 30-35 किमी. की दूरी पर है, यहां किसी की नजर नहीं पहुंची, क्योंकि उनका वोट तो शहर की ओर पलायन कर रहा है।
दृष्टिकोण समिति के संस्थापक मोहित उनियाल कहते हैं, राज्य निर्माण की अवधारणा के अनुरूप काम नहीं होने से पहाड़ के गांव खाली हो रहे हैं। जब रोजगार नहीं मिलेगा, स्कूल और स्वास्थ्य सेवाएं दूर होंगे तो पलायन करना मजबूरी हो जाएगा। उत्तराखंड राज्य को 21 वर्ष हो गए, पर राजधानी के पास के कई गांवों तक सड़क नहीं पहुंचे। पानी की दिक्कत बनी है। बातों से कुछ नहीं होता। कुछ तो करके दिखाना होगा।
हमें वापस डोईवाला जाने के लिए कोडारना तक सूरज अस्त होने से पहले लौटना था, नहीं तो पूरा रास्ता अंधेरे में पार करना होता। शुक्र है, हम पैदल चलते हुए लगभग एक घंटे में कोडारना पहुंच गए। फिर मिलते हैं, किसी और कहानी के साथ…।