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लघु किसान नन्हे वर्मा से एक मुलाकात, दिल खुश कर दिया बंदे ने

सार्थक और मैंने, देहरादून से वाया दूधली डोईवाला जाने का मन बनाया। वो इसलिए, क्योंकि हम दोनों को ही यह रास्ता बहुत पसंद है। यहां सड़क के एक किनारे पर जंगल और दूसरी ओर प्रदूषित नदी सुसवा है। प्रदूषण ने इन नदी का जेंडर बदलकर, इसे नाला बना दिया। पर, अभी भी सैकड़ों परिवार इस पर निर्भर हैं।

जैसे ही हम बंजारावाला पहुंचे, बारिश भी हमारे साथ हो ली। बारिश का व्यवहार समझकर हमने अंदाजा लगा लिया कि यह हमें घर तक छोड़कर ही दम लेगी, पर ऐसा नहीं हो पाया। मोटरसाइकिल पर सवार हमें, खुद की कम, बैग में रखे लेपटॉप की चिंता ज्यादा सता रही थी। हम बाप-बेटे तो बारिश में जमकर भींगना चाह रहे थे। मैं बार-बार सार्थक से पूछ रहा था, लेपटॉप तो बच जाएगा न। वह भी तुरंत जवाब दे रहा था, कुछ नहीं होगा। मैंने सही तरीके से रखा है।

मुझे पता था कि अगर कुछ नुकसान हुआ तो सार्थक यह कहकर साफ बच निकलेगा कि, मैं क्या करूं, बारिश ही इतनी तेज थी। उसकी इस बात का मेरे पास कोई जवाब नहीं होगा। सिवाय, कुछ देर गुन गुन करके चुप हो जाने के।

दूधली से पहले ही बारिश कम हो गई।

आगे बढ़ ही रहा था कि दूधली पुलिस चौकी से कुछ पहले, सड़क किनारे बारिश में ही एक शख्स को सब्जियों के छोटे ढेर लगाकर बैठा देखा। मैंने पहले भी इनको यही देखा है। मैं इनसे बात करना चाहता था। जानना चाहता था कि सब्जियों के ये ढेर किसी परिवार की आर्थिकी को कैसे संभालते हैं। क्या इससे उनका गुजारा हो जाता है। क्या वो अपनी व परिवार की छोटी-छोटी इच्छाओं को पूरा कर पाते हैं। क्या वो खुश हैं, इस काम से। उनका रूटीन क्या है। इसी तरह के कुछ सवालों के जवाब जानना चाह रहा था।

उनके पास ताजी भिंडी, बैंगन और भुट्टे (मक्का) थे। नमस्कार और हालचाल जानने से शुरू हुआ वार्ता का क्रम काफी देर तक चला। बारिश के नाम पर कुछ छींटे ही पड़ रही थीं, इसलिए चिंता की कोई बात नहीं थी।

उन्होंने अपना नाम नन्हे वर्मा बताया। वो देहरादून में रेलवे स्टेशन के पास सिंगल मंडी इलाके में रहते हैं। अपने छोटे भाई के साथ, सामने ही लगभग 25 बीघा खेत को किराये पर लिया है। (किराये या बंटाई में खेत के मालिक को कृषि उपज से होने वाली आय का कुछ हिस्सा या कुछ निर्धारित रकम, इनमें से जो भी तय होता है, देना पड़ता है।)

दूधली के पास के खेत उनके पास लगभग आठ साल से हैं। यहां धान, गेहूं, मक्का, गन्ना और सब्जियां उगाते हैं। इससे पहले पथरीबाग में गोभी और अन्य सब्जियां उगा रहे थे।

दूधली रोड के पास सब्जियों की खेती। फोटो- डुगडुगी

क्या लाभ हो जाता है, पर मुस्कराते हुए जवाब देते हैं, रोटी मिल जाती है बस। करीब 55 साल के नन्हे वर्मा ने अपने पिताजी के साथ, 12 वर्ष की आयु से ही खेतीबाड़ी में हाथ बंटाना शुरू कर दिया था। पिता जी के बाद, घर परिवार की जिम्मेदारियों को इसी खेतीबाड़ी से निभाया। एक बेटी है, जिसकी शादी कर दी है। बेटी ने ग्रेजुएशन किया है। भाई के बच्चे भी पढ़ाई कर रहे हैं। खेतीबाड़ी में मेहनत करके अपना घर बनाया है।

बताते हैं कि अभी कुछ खेत खाली हैं, जिनको बरसात निकलते ही फसल के लिए तैयार करना है। मक्की, तोरी, भिंडी उगाने के बाद खेत की सफाई करनी पड़ती है। सफाई के बाद शलगम, राई, गोभी लगानी हैं।

पांच श्रमिकों का घर परिवार भी इसी खेती से चलता है। बरसात में खेती में बहुत ज्यादा काम नहीं होता। केवल भिंडी और अन्य सब्जियों को तोड़ना होता है। श्रमिकों को प्रतिदिन का ढाई सौ रुपया मिल जाता है। सुबह नौ से शाम करीब साढ़े पांच बजे तक काम करते हैं। लंच टाइम में करीब दो घंटे आराम के होते हैं।

वैसे तो अक्सर सब्जी, यहीं खेत के पास ही बिक जाती है। पर, जब सब्जी ज्यादा होती है, तो निरंजनपुर मंडी में ले जाते हैं। दूधली रोड पर काफी आवागमन होता है, इसलिए यहां खरीदारों की कमी नहीं है। वैसे भी, खेत के पास ही सब्जियां बिक जाती हैं, क्योंकि ये ताजी होती हैं।

एक बीघा में भिंडी के उत्पादन पर उनका कहना था, यह हिसाब लगाना थोड़ा मुश्किल है। अगर, धूप अच्छी हो तो एक बीघा में हर तीसरे दिन 25-30 किलो भिंडी तोड़ सकते हैं। यह एक डेढ़ माह की सब्जी है। ठंड आते ही, यह फसल खत्म हो जाती है। भिंडी को एक दिन बाद तोड़ना पड़ता है, भले ही बारिश आए या तूफान ही क्यों न हो।

बताते हैं कि यहां 1800 से दो हजार रुपये तक की सब्जी रोजाना बेच देता हूं। श्रमिकों को देने के बाद हमें भी पांच-छह सौ रुपये मिल जाते हैं। इससे घर के खर्चे निकल जाते हैं। मेहनत करने से क्या नहीं हो सकता।

नन्हे वर्मा के अनुसार, सब्जियों में ज्यादा सावधानी बरतनी पड़ती है। भिंडी में पांच से सात दिन में 1400 रुपये की दवाई पड़ती है, नहीं तो यह टेढ़ी हो जाएगी। कृषि विभाग वाले आते हैं, दवाइयों की सलाह देते हैं।

यहां पूरी खेती की सिंचाई सुसवा नदी से होती है। सुसवा में प्रदूषण की वजह आबादी बढ़ना बताते हैं। नदी के किनारों पर तमाम घर बन गए। नदी में गंदगी डाली जा रही है।

उन्होंने बताया कि पिछली बार हाथी ने एक बीघा मक्का की फसल तबाह कर दी थी। जंगली सूअर भी बहुत नुकसान पहुंचाते हैं।

नन्हे वर्मा ने हमारे हर सवाल का जवाब खुश होकर दिया। कहते हैं कि व्यक्ति कितना भी परेशान हो, कितना भी दुखी हो, कितना भी शरीर पर कष्ट क्यों न हो, पर उसको घबराना नहीं चाहिए। उसको अपना संतुलन बनाकर रखना चाहिए और अच्छे समय का इंतजार करना चाहिए।

दिक्कत तो होती है, सारे अच्छे दिन तो होते नहीं। थोड़ा कष्ट भी झेलना पड़ेगा। हमारे प्रभु श्रीराम ने तो 14 वर्ष कष्ट झेले, यह तो कुछ भी नहीं है। मैं यहां रोज बैठता हूं। मैं हर हाल में खुश रहता हूं। मुझे एकांत में रहना पसंद है, इसलिए घर से यहां चला आता हूं।

मन था कि नन्हे वर्मा से खूब बातें करूं, क्योंकि खेतीबाड़ी और उद्यमिता में किसी से कम नहीं हैं। अगर, ऐसा नहीं है तो वो धूप, बारिश, ठंड में जमीन पर बैठकर सब्जियां नहीं बेच रहे होते। सबसे बड़ी बात यह है कि उन्होंने अपने साथ, कुछ लोगों को रोजगार भी दिया है।

बारिश एक बार फिर हमारा साथ देने के लिए तैयार हो गई…। हमने नन्हे वर्मा जी से एक किलो भिंडी खरीदी और घर की तरफ बाइक दौड़ा ली। ताजी भिंडी का स्वाद काफी अच्छा था।

मैं तो आपसे भी कहूंगा, जब भी कभी दूधली रोड से होकर निकलें तो नन्हे वर्मा जी से सब्जियां जरूर खरीदिएगा।

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Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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