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कालीमाटी के रघुवीर सिंह बोले, ताड़का और सूपर्नखा तो मेरा पीछा नहीं छोड़ते

बड़ासी के रामलीला मंचन की रिहर्सल में पहुंचे रघुवीर तीन दशक से कर रहे ये भूमिकाएं

बड़ासी गांव। राजेश पांडेय

“पहली बार, रामलीला मंचन में सूर्पनखा और ताड़का की भूमिका के लिए तैयार होना, मेरे लिए ‘हादसा’ ही था। हां, ये भूमिकाएं निभाना मेरे लिए हादसा ही है, मैं एक तरह के फ्रेम में बंध गया हूं। ये भूमिकाएं तो मेरा पीछा ही नहीं छोड़तीं। अब 58 साल का हो गया हूं, इन किरदारों को मंच पर जीने के लिए बड़ी ऊर्जा की जरूरत होती है, क्योंकि दर्शक इनसे बड़ी अपेक्षाएं रखते हैं। मंच पर दमदार तरीके से राक्षसी आवाज और अट्टाहस के साथ प्रवेश करना आसान नहीं है। ये भूमिकाएं लगभग तीन दशक से कर रहा हूं।”

58 साल के रघुवीर सिंह खुशदिल व्यक्तित्व वाले हैं। कालीमाटी गांव में रहते हैं, जो बड़ासी से लगभग छह-सात किमी. दूर है। रात आठ बजे से बड़ासी गांव में 24 नवंबर माह से शुरू होने वाले श्री रामलीला मंचन की रिहर्सल के मौके पर हमने रघुवीर सिंह से मुलाकात की।

बताते हैं, “मैं उस समय 12 साल का था, जब बड़ासी में ड्रामा और रामलीला देखने के लिए अकेला ही अपने गांव कालीमाटी से आता था। अकेला, एकदम अकेला जंगल से होता हुआ। बिना डरे हुए, एकदम निर्भय होकर। जबकि उस समय घना जंगल था, रास्ता भी ठीक नहीं था।”

” रंगमंच की दुनिया में बड़े सितारे अमीचंद भारती जी, मुझे सम्मान और शाबासी देते थे। मैंने ड्रामों में द्वारपाल, सखियों के रोल किया। ड्रामे होने बंद हुए और रामलीला शुरू हो गई। मैंने हर उस भूमिका को किया, जो मुझे दी गई। मारीच – सुबाहु, मंथरा, बाली, अहिरावण, कुंभकर्ण के अभिनय को किया।”

“हमारे निर्देशक पूरण सिंह और चरण सिंह श्री राम-लक्ष्मण की भूमिका निभाते थे। मैंने दस साल इनके साथ ताड़का और सूर्पनखा का रोल किया। ये दोनों रोल तो ऐसे हो गए कि मरते दम तक मेरा पीछा नहीं छोड़ेंगे।”

“जिस दिन, मैं ताड़का का रोल करता हूं, सुबह से ही मेरे भीतर इतना उत्साह रहता है कि मुझे लगता है कि मैं उड़ने वाला हूं। मैं भगवान राम के दरबार में बैठकर हकीकत बता रहा हूं।”

“जब इस रोल को अदा कर देता हूं, तब मेरा मन शांत होता है। ताड़का का डायलॉग सुनाते हैं, कच्चा चबा जाऊंगी…,उनकी आवाज दमदार थी।”

एक किस्सा साझा करते हैं, “गूलरघाटी में रामलीला के दौरान ताड़का का अभिनय करते हुए मैंने मंच पर प्रवेश किया। भगवान श्री राम और लक्ष्मण के बाल रूप का अभिनय कर रहे बालक, ताड़का की वेशभूषा और अट्टाहस पर मंच छोड़कर भीतर चले गए। बड़ी मुश्किल से उनको मंच पर आने के लिए राजी किया।”

सूर्पनखा के अभिनय की एक लाइन को स्वरबद्ध सुनाते हैं, “मैं तो छोड़ आई लंका का राज, लक्ष्मण तेरे लिए…”। इस गीत को संगीतबद्ध करते हुए हारमोनियम पर गणेश भारती और तबले पर चरण सिंह संगत देते हैं।

गुरु वशिष्ठ की भूमिका पर कहते हैं, “जब मैं गुरुजी का चोला धारण करता हूं तो मेरे भीतर से ताड़का, बाली, कुंभकर्ण, सूर्पनखा, मंथरा, अहिरावण के किरदार गायब हो जाते हैं। मन शांत हो जाता है।”

जब आपको पहली बार किसी ने सूपर्नखा का रोल करने को कहा, क्या आपने मना कर दिया था, पर रघुवीर कहते हैं, जब पहली बार मेरे साथ यह “हादसा” हुआ, हां, मैं इसे “हादसा” ही कहूंगा।” उनके यह कहते ही पास बैठे सभी लोगों ही हंसी छूट जाती है।

रघुबीर बताते हैं, “उस समय हमारे रामलीला के साथियों ने कहा, हम सूपर्नखा और ताड़का के किरदारों के लिए बाहर से कलाकारों को बुलाते हैं। मैं उस समय मारीच और सुबाहु के रोल करता था। कुछ लोगों ने गुरुजी को यह सलाह दी है कि रघुबीर को यह रोल देते हैं।”

“मैंने सूपर्नखा, ताड़का के रोल के लिए हां तो कर दी, पर साथ ही सोच लिया कि मैं ऐसा उलटा पुलटा करूंगा कि मुझे फिर से ये रोल देने की बात कोई नहीं सोचेगा। मैं गांव के चौक से होता हुआ मंचन स्थल की ओर बढ़ने लगा।”

“मैं तरह-तरह की आवाजें निकालता हुआ। एक अनाड़ी की तरह, जो मन में आ रहा था,  उस तरह का शोर करता हुआ मंच की ओर बढ़ने लगा। मेरे राक्षसी आह्वान पर गांव में घरों के भीतर मौजूद लोग बाहर निकल आए और मंचन स्थल प्राइमरी स्कूल में इकट्ठा हो गए। उस समय श्रीराम लक्ष्मण की भूमिका पूरण सिंह और चरण सिंह अदा कर रहे थे।”

उस दिन हमारे गुरुजी अमीचंद भारती जी ने कहा, “रघुबीर या तो तुम इसे आशीर्वाद समझो या फिर मेरा श्राप, ये भूमिका तुम्हारा मरते दम तक पीछे नहीं छोड़ेगी।”

“मुझे तीन दशक हो गए, ये रोल निभाते हुए। मेरी आयु 58 साल हो गई। मेरे बस का नहीं रहा, इस तरह उछलकूद करते हुए। मैं तो रामलीला कमेटी से कह रहा हूं, किसी और कलाकार की व्यवस्था करो। इन भूमिकाओं में बहुत मानसम्मान और प्यार दर्शकों से मिलता रहा है।”

बेहद खुशदिल रघुबीर, जब भी अपनी भूमिका में होते हैं, उसमें अपना भरपूर देने का प्रयास करते हैं। वो “मैं तो छोड़ आई लंका का राज, लक्ष्मण तेरे लिए…” गाने को गाते हुए नृत्य करते हैं। उनका नृत्य यह प्रदर्शित करता है, वो अपनी भूमिकाओं के साथ पूरा न्याय करते हैं। वो रम जाते हैं, उस भूमिका में, जो उनको निभाने के लिए दी जाती है। रघुबीर जी को तहेदिल से सलाम…।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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