Blog LiveFeaturedNews

संघर्ष के दिनः वो दो का नोट, जो मुझे 40 साल बाद भी याद है

शिक्षक डॉ. सुनील दत्त थपलियाल के संस्मरण ने नम कर दीं आंखें

राजेश पांडेय। न्यूज लाइव

“80 के दशक की बात है, मां ने मेले में कुछ खाने और खरीदने के लिए दो रुपये दिए थे। मेरी पेंट की जेब फटी थी, इसलिए दो रुपये के उस करारे नोट को मैंने हथेली में दबाकर रखा। मुझे वो नोट आज 50 साल की उम्र में भी याद है। वो दो रुपये, मां ने कोठार में रखे चावल से भरे बरतन में से निकालकर मुझे दिए थे। जीवन संघर्षों में गुजरा, इसलिए उन दो रुपयों की कीमत उस समय हमारे लिए क्या होगी, जब इस बारे में सोचता हूं तो सहम जाता हूं।”

” मां ने मेले में जाते वक्त, मुझसे कहा था, यह पैसे कुछ खाने, खरीदने के लिए हैं, पर यह भी ध्यान रखना कि घर में और भी कोई है। मां ने इशारे में ही, मुझे यह बताने की कोशिश की थी, जब आप बाहर होते हो, तो उस समय यह भी ध्यान रखना चाहिए कि आपके घर में भी कोई है।”

श्री भरत इंटर कॉलेज में भूगोल के शिक्षक डॉ. सुनील दत्त थपलियाल अपने जीवन का वो संस्मरण सुना रहे थे, जिसको वो शायद ही कभी भूल पाएं। बताते हैं, “हम, टिहरी गढ़वाल के भिलंगना क्षेत्र के हिन्दाव पट्टी स्थित अंथवाल गांव में रहते थे। मेले में शामिल होने के लिए दूर दूर से लोग पहुंचे थे। मैं भी दो रुपये के नोट को हथेली में दबाए हुए मेले में पहुंच गया।”

आवाज साहित्यिक संस्था मुनिकी रेती के संस्थापक डॉ. थपलियाल अपने बचपन का किस्सा बताते हैं, “मैं तेजी से दौड़ता हूं मंदिर के पास पहुंच गया। मंदिर में माथा टेका और फिर वहां चल रहे नृत्य में शामिल हो गया। नाचते वक्त भी, वो हथेली पेंट की जेब में ही थी, जिसमें दो रुपये का नोट दबाया था। मुझे नोट की चिंता ज्यादा थी। पर, कहते हैं न, जिसकी ज्यादा चिंता करो, वो चीज कब आपके हाथ से छूटकर चली जाए, पता ही नहीं चलता। ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ।”

“मैं देव डोली के वापस जाने के समय, मेले में उस स्थान की ओर जा रहा था, जहां के बारे में बताया गया था कि वहां सस्ते में जलेबी, मूंगफली, नारियल मिलते हैं। वैसे भी शाम हो चुकी थी, बस अंधेरा होने ही वाला था। अचानक मुझे आभास हुआ कि वो नोट, जिसकी मैं ज्यादा सुरक्षा और चिंता कर रहा था, मेरे हथेली से कब फिसला, मुझे पता ही नहीं चला।”

” मैं बुरी तरह घबरा गया। मुझे इस बात की चिंता नहीं थी कि मैंने कुछ नहीं खाया। चिंता इस बात की थी, मां पूछेंगी तो क्या जवाब दूंगा। घबराता हुआ, डरता हुआ, वापस चढ़ाई चढ़ते हुए मंदिर परिसर में पहुंच गया, जहां हम नाच रहे थे। मैं वहां अकेला ही था, जबकि अंधेरा हो चुका था। वहां जुगनू चमकने लगे थे। अंधेरे में बहुत कोशिश के बाद भी निराशा ही हाथ लगी। वापस लौट आया।”

” रास्ते में मिले कुछ लोगों से कहा, मुझे एक या दो रुपये उधार दे दो। पर, किसी ने कोई मदद नहीं की, बल्कि यह कहते हुए डांट अलग से दिया कि एक या दो रुपये ऐसे ही मिल जाते हैं। पैसे क्या पेड़ पर लगते हैं। आंखें नम हो गई थीं, लग रहा था कि जोरों से रो दूं।

उधर, घर में मां को मेरी चिंता होने लगी। उन्होंने आसपड़ोस में जाकर मेरी खबर लेनी शुरू कर दी। उनको पता था, मैं घर कभी देरी से नहीं पहुंचा, पर आज क्या हो गया। उनके मन में बुरे ख्याल आ रहे थे। वो बहुत चिंतित थीं।

आखिर, मैं घर पहुंच गया और मां ने पहले मुझे गले से लगाया और फिर मेरे गाल पर दो तीन तमाचे लगा दिए। वो कहने लगीं, तुझे कोई जानवर खा जाता तो मैं क्या करती। इतनी देर से क्यों आया। मैं रोने लगा, मां ने समझा कि इसके साथ कोई घटना हुई है। मां तो मां होती है, उनसे कुछ नहीं छिपता। उन्होंने मुझे फिर से गले लगा लिया। मैंने मां को पूरी व्यथा बता दी।

उन्होंने कहा, तो क्या हो गया। मैं कल फिर तेरे को कुछ पैसे देती हूं। खूब सारी जलेबी खरीदकर दूंगी तुझे। मैंने उस समय मां की नम आंखों से गाल पर लुढ़कते आंसुओं को देखा था। मुझे पता था, मां के पास पैसे नहीं है, फिर भी मुझे जलेबी खिलाने के लिए कह रही है।”

“दूसरे दिन, मां ने घर में रखा मंडुवा ले जाकर दुकानदार को बेच दिया। वहां से मिले पैसों से मुझे फिर से मेले में भेजा। मेले के बाद भी दुकानें कुछ दिन तक खुली रहती हैं। 50 पैसे में बहुत सारी जलेबियां आ गईं। मां और मैंने जलेबियों का स्वाद लिया।

आज मां इस दुनिया में नहीं हैं। पिता का साया तो बचपन में ही उठ चुका था। हमने मां के संघर्ष को करीब से देखा है। जिन्होंने अपने माता पिता के संघर्ष को देखा है, वो बच्चे कभी गलत राह पर नहीं चलते। हम आज भी कोई कार्य करते हैं, तो यह मानते हैं कि माता-पिता हमें देख रहे हैं। हम उनका मान, सम्मान बनाकर रखना चाहते हैं।”

ई बुक के लिए इस विज्ञापन पर क्लिक करें

Rajesh Pandey

उत्तराखंड के देहरादून जिला अंतर्गत डोईवाला नगर पालिका का रहने वाला हूं। 1996 से पत्रकारिता का छात्र हूं। हर दिन कुछ नया सीखने की कोशिश आज भी जारी है। लगभग 20 साल हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। बच्चों सहित हर आयु वर्ग के लिए सौ से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। स्कूलों एवं संस्थाओं के माध्यम से बच्चों के बीच जाकर उनको कहानियां सुनाने का सिलसिला आज भी जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। रुद्रप्रयाग के खड़पतियाखाल स्थित मानव भारती संस्था की पहल सामुदायिक रेडियो ‘रेडियो केदार’ के लिए काम करने के दौरान पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाने का प्रयास किया। सामुदायिक जुड़ाव के लिए गांवों में जाकर लोगों से संवाद करना, विभिन्न मुद्दों पर उनको जागरूक करना, कुछ अपनी कहना और बहुत सारी बातें उनकी सुनना अच्छा लगता है। ऋषिकेश में महिला कीर्तन मंडलियों के माध्यम के स्वच्छता का संदेश देने की पहल की। छह माह ढालवाला, जिला टिहरी गढ़वाल स्थित रेडियो ऋषिकेश में सेवाएं प्रदान कीं। बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहता हूं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता: बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी संपर्क कर सकते हैं: प्रेमनगर बाजार, डोईवाला जिला- देहरादून, उत्तराखंड-248140 राजेश पांडेय Email: rajeshpandeydw@gmail.com Phone: +91 9760097344

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button

Adblock Detected

Please consider supporting us by disabling your ad blocker