
पलेड की चढ़ाई ने मेरी सांसें फुला दीं, बच्चे तो 16 किमी. रोज चलते हैं
” मेरा भाई,कक्षा सात में पढ़ता है, उसको स्कूल जाने और आने के लिए करीब 16 किमी. पैदल चलना पड़ता है। स्कूल से घर आने पर वह थक जाता है। करीब तीन से चार घंटे तो घर से स्कूल और स्कूल से घर जाने में लग जाते हैं।”
पलेड गांव के विशाल मनवाल, हमारे आग्रह पर हमें स्कूली शिक्षा की हकीकत बता रहे थे। विशाल और उनके भाई नीरज से हमारी मुलाकात पलेड गांव के रास्ते पर हुई। वो यहां गाय चराते हुए मिले। उन्होंने हाथ में जलते हुए उपले लिए हुए थे। इनसे मच्छरों को भगाने और जोंक से छुटकारे में मदद मिलती है।
विशाल ने मालदेवता स्थित राजकीय महाविद्यालय में स्नातक प्रथम वर्ष में प्रवेश के लिए आवेदन किया है। उनके गांव से मालदेवता जाने के लिए वाया द्वारा गांव, भी एक रास्ता है। पलेड से तीन किमी. पैदल और फिर वहां से यूटिलिटी से द्वारा होते हुए मालदेवता पहुंचते हैं, जो लगभग 16-17 किमी. का सफर बताया जाता है।
दूसरा रास्ता वाया धारकोट, थानो, बड़ासी, रायपुर से सीधा मालदेवता है, जो काफी लंबा है। पलेड गांव, लड़वाकोट ग्राम पंचायत का राजस्व गांव है। यह देहरादून के रायपुर ब्लाक में आता है।

पलेड गांव की किरण दसवीं कक्षा में पढ़ती हैं। धारकोट के राजकीय इंटर कालेज जाती हैं। करीब 16 किमी. पैदल चलने के बाद पलेड गांव के किरण और अन्य बच्चे थक जाते हैं। कहते हैं कि घर के कामकाज में भी सहयोग करते हैं। बारिश के दिनों में अक्सर स्कूल नहीं जा पाते।
बताते हैं कि लॉकडाउन के समय ऑनलाइन पढ़ाई हुई, पर कनेक्टिविटी नहीं हो पाती थी। इसलिए नेटवर्क तलाशने के लिए घर से दूर जाना पड़ता था। इन बच्चों का कहना है कि घर के पास स्कूल होता तो, उनकी पढ़ाई बहुत अच्छी होती।
शिक्षा के लिए पलेड गांव के बच्चों के इस संघर्ष को जानते ही, मैं सन्न रह गया। मेरे से तो पलेड गांव की चढ़ाई बड़ी मुश्किल से तय हो रही थी। बीच-बीच में रुकते हुए, पानी पीते हुए, तेजी से सांस लेते हुए, पेड़ों की छांव में भी पसीने पसीने होते हुए आगे बढ़ रहा था। मेरे लिए यहां रोज आना और जाना मुमकिन नहीं है।
एक सवाल मन को हमेशा कुरेदता है, वो यह कि क्या नीतियां, योजनाएं बनाने वाले अपने बच्चों को स्कूल के लिए इतनी दूर पैदल चलवाना मंजूर करेंगे। मैं जानता हूं कि यह कडु़वा और चुभने वाला सवाल है। हो सकता है कि इस सवाल पर, मुझे जमकर कोसा जाए। मैं यह सवाल करने का साहस इसलिए कर रहा हूं, क्योंकि इस गांव से स्कूल तक की पैदल वाली दूरी को बड़ी मुश्किल से नापा है।
देहरादून का पलेड ही नहीं, नाहींकला, बडेरना, अपर तलाई, चित्तौर, चकराता ब्लाक का खनाड़, टिहरी गढ़वाल के मरोड़ा, बाड्यौ, कूदनी तोक, हटवाल गांव ग्राम पंचायत क्षेत्र में भी हमने पढ़ाई के लिए ऐसा संघर्ष होने की बात सुनी है। कहीं -कहीं तो यह दूरी ज्यादा है।
कहा जाता है कि इन गांवों में बच्चों की संख्या ज्यादा नहीं है, इसलिए स्कूल दूर है। अपर तलाई का प्राइमरी स्कूल तो इसीलिए बंद कर दिया गया।
पर, सवाल उस व्यवस्था पर भी तो है, जो बच्चों को स्कूल से बहुत दूर कर दे। क्या नीति नियंताओं के पास बच्चों को राहत देने का कोई विकल्प नहीं है।
कोई भी नहीं चाहेगा कि उनके छोटे-छोटे बच्चे पढ़ाई के लिए इतना संघर्ष करें। वो तो उनके लिए डोर स्टेप पर स्कूल बस चाहेंगे। उनको निजी गाड़ियों से स्कूल भेजने की व्यवस्था करेंगे। करना भी चाहिए, पर जब आप पर देश और प्रदेश के सभी बच्चों की जिम्मेदारी है, तो मुंह नहीं मोड़ सकते।
विशाल और उनके भाई धीरज चाहते हैं कि उनका स्कूल घर के पास हो, पर उनके चाहने या नहीं चाहने से कुछ नहीं हो सकता, क्योंकि यह अधिकार तो प्रदेश सरकार और उसके सिस्टम के पास है। हालात तो यही बताते हैं कि अलग राज्य बनने के बाद भी सिस्टम ने इधर ध्यान नहीं दिया।

हम आगे बढ़े और किसी तरह हांफते हुए पलेड गांव पहुंच गए। हमने पलेड गांव जाने के लिए वाया धारकोट रास्ता तय किया था। पहले धारकोट के प्राइमरी, जूनियर हाईस्कूल व इंटर कालेज तक गए और वहां से वापस थानो से बडेरना वाले रास्ते पर आकर सफर शुरू किया।

हम उस दूरी को जानना चाहते थे, जो पलेड, लड़वाकोट के बच्चे स्कूल के लिए तय करते हैं। हम कार से वहां पहुंच गए, जहां से कच्चे, संकरे और जलधाराओं को पार करके पलेड तक जाना था। इस रास्ते पर बाइक चलाना हमारे बस की बात नहीं, मुझे ऐसा स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं है।
मेरे पैरों में जौंक चिपक गईं। यह ठीक उसी तरह था, जैसा टिहरी गढ़वाल के बाड्यौ में झेला था। जौंक को पत्तों से पकड़कर शरीर से अलग किया। जूते तक उतारने पड़ गए। घुटनों तक जौंक चिपकी मिली।

गांव में प्रवेश करते ही सीधे हाथ पर है, राजकीय प्राइमरी स्कूल पलेड का खंडहर जैसा भवन। इसे देखते ही मन में बोला, यह तो बच्चों और शिक्षकों के लिए बड़ा जोखिम है। मैं तो इस भवन में अपने बच्चों को बिल्कुल भी पढ़ने नहीं भेजता।
क्या कोई राजनेता, अधिकारी या नीति निर्माता अपने बच्चों को कुछ दिन यहां पढ़ने भेज सकते हैं, यदि नहीं तो फिर इस गांव के 12 बच्चों और दो शिक्षकों की चिंता उनको क्यों नहीं सताती।

अभिभावक कृष्णा देवी बताती हैं कि बच्चों को इस स्कूल में पढ़ने के लिए भेजना मजबूरी है, क्योंकि आसपास कोई स्कूल नहीं है। हमारा पूरा ध्यान स्कूल पढ़ने गए बच्चों पर लगा रहता है। विद्यालय भवन की छत से प्लास्तर गिरता है।


रविवार को विद्यालय बंद था, पर इसका गेट खुला था। गेट इसलिए भी खुला था, क्योंकि भवन की तरह गेट के सीमेंटेड पिलर भी खंडहर थे। दीवारों पर घास उग गई है। खिड़कियां और रोशनदान खस्ताहाल हो गए।

कमरों पर ताला लगा था। बरामदे का हाल, पूरे भवन की स्थिति को बता रहा था।
बरामदे की दीवार पर लिखा था, विधान सभा 23 डोईवाला, बूथ संख्या 18, यानी यह मतदान केंद्र भी है। मतदान के लिए यहां वोटर पहुंचेंगे, मतदान कराने वाले अधिकारी आएंगे। प्रत्याशी, उनके समर्थक भी यहां तक आ सकते हैं।
मतदान के दौरान और उससे पूर्व निरीक्षण के लिए भी अधिकारी पहुंचेंगे। इसके लिए उनको गांव की चढ़ाई पैदल ही चढ़नी होगी। वैसे कुछ ग्रामीण जोखिम उठाकर गांव तक मोटर साइकिल ले आते हैं।
क्या यह भवन, सरकारी सिस्टम और जनप्रतिनिधियों की संवेदनशीलता को दर्शाने के लिए काफी नहीं है ?
ग्राम पंचायत लड़वाकोट की प्रधान के प्रतिनिधि सैन सिंह कंडारी बताते हैं कि कई बार अधिकारियों एवं जनप्रतिनिधियों को बता दिया, पर कोई सुनवाई नहीं है।

यहां बच्चों को पढ़ने के लिए भेजना जोखिम है। छोटे बच्चों को लगभग आठ किमी. दूर धारकोट नहीं भेजा जा सकता। सरकार को यहां नया विद्यालय भवन बनाना चाहिए।
पलेड गांव में स्कूल से आगे गांव की ओर बढ़े तो पता चला कि यहां मिर्च, हल्दी, अदरक, अरबी, भंगजीरा की खेती होती है। यहां कृषि आजीविका का स्रोत है, पर खेती वर्षा जल आधारित है।

शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन जैसी बुनियादी सुविधाएं नहीं मिलने पर गांव से पलायन हुआ है। परिवारों के देहरादून या आसपास गांवों में बस जाने से कई घर खाली हो गए।

उनकी दीवारों पर पौधे उगने लगे हैं। दरवाजों पर ताले लटके हैं।
घरों के बाहर बनाए आलों में न तो कोई सामान रखा जा रहा है और न ही इनमें दीयों से जगमगाहट हो रही है। इनमें बेवजह उगने वाले पौधे सजने लगे हैं।
यह मजबूरी का पलायन है, नहीं तो अपने घर आंगन छोड़कर कौन जाता है। हम तो कहीं भी घूमने चले जाएं, शाम होते ही घर की याद सताती है।
इन घरों के आंगन सूने हैं। इन घरों के पास, न तो पशुपालन हो रहा है और न ही कोठारों में अन्न रखा जा रहा है।

पशुओं को चारा खिलाने के लिए बनाए गए कंक्रीट के ढांचे बिखरने लगे हैं। इन दीवारों से पलास्तर छूट रहा है। घरों की दीवारों पर बड़े शौक से बनाई गईं कलाकृतियों का रंग फीका पड़ने लगा है।

स्थानीय युवा, रोजगार के लिए देहरादून शहर तक की दौड़ लगाते हैं। उपज इतनी ही होती है, जितनी की, घर में काम आ जाए। जंगली जानवर शाम होते ही फसलों पर हल्ला बोलते हैं। बंदर, भालू, बारहसिंघा जैसे जानवर यहां पहुंचते हैं।
इनको खेतों से भगाने के लिए ग्रामीण कनस्तर बजाकर शोर करते हैं।
पलेड में खेतों में ज्यादा उपज हो भी जाए तो उसको शहर तक कैसे पहुंचाएं। या तो फसल को खच्चर से भेजा जाए या फिर सिर पर उठाकर वाहन तक पहुंचाएं।
ग्राम प्रधान प्रतिनिधि सैन सिंह कंडारी, क्षेत्रवासियों राय सिंह, पूरण सिंह, प्रेम सिंह का कहना है गांव के स्कूल भवन का पुनर्निर्माण होना चाहिए। गांव तक सड़क बन जाए तो जीवन आसान हो जाएगा।
पूर्व बीडीसी मेंबर प्रवीण बहुगुणा कहते हैं, गांव को सड़क और अन्य सुविधाएं चाहिए। अपर तलाई से पलेड तक का रास्ता काफी संकरा और खराब है। बच्चे इसी रास्ते से होते हुए धारकोट पहुंचते हैं। दिक्कतें बहुत हैं, पर समाधान की दिशा में पहल होती नहीं दिखती।
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