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चकराता के खनाड़ का दलदल वाला रास्ता, किसानों की मुश्किलें, वर्षों पुराने भवन
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राजेश पांडेय
करीब 25 वर्षीय राहुल भट्ट, चकराता के खनाड़ गांव में खेतीबाड़ी करते हैं। इस बार उनकी टमाटर की खेती को बहुत नुकसान पहुंचा। टमाटर की, जो क्रैट पिछली बार हजार रुपये थी, इस बार 50 रुपये तक पहुंच गई, इसमें 40 रुपये प्रति कैरेट को विकासनगर मंडी तक पहुंचाने की रकम भी शामिल है।
उनको एक क्रैट यानी लगभग 25 किलो टमाटर दस रुपये में बेचने पड़ गए। टमाटर साइज में काफी छोटे थे। इस बार,उनके लिए खेती करना या नहीं करना, बराबर ही रहा। नुकसान की वजह पता चली कि राहुल ने जो बीज लगाया था, वो कामयाब नहीं हो सका। फसल को पानी भी जरूरत के मुताबिक नहीं मिल पाया।
बताया गया कि राहुल की तरह कुछ और लोगों को भी नुकसान हुआ। हमें रास्ते में एक जगह टमाटर का ढेर पड़ा मिला, जो किसी ने फेंका हुआ था।
राहुल बताते हैं कि फसल का रेट मंडी से तय होता है। हमें वही रेट मानना होता है, जो मंडी से पता चलता है। फसल को लोडर से मंडी पहुंचाते हैं। एक क्रैट में कितना टमाटर आता है, पर सूरत राम भट्ट बताते हैं कि यह टमाटर के साइज पर निर्भर करता है।
लोडर का रेट 40 रुपये प्रति क्रैट है, चाहे सहिया भेजो या फिर विकासनगर। जबकि सहिया से विकासनगर लगभग 30 किमी. है। इस गांव से लगभग 300 क्रैट टमाटर मंडी भेजा जाता है।
पर, खनाड़ के ही एक ओर किसान कलम सिंह वर्मा, ने भी इसी वर्ष टमाटर उगाया, पर उनको लगभग साढ़े पांच सौ रुपये क्रैट का रेट मिला। बताते हैं कि बीज की पड़ताल करना बहुत जरूरी है। वो सोलन, हिमाचल प्रदेश से बीज लाते हैं। बीज और दवाइयों के बारे में कृषि विभाग से भी संपर्क करते हैं।
खनाड़ के अधिकतर परिवारों की आजीविका खेती पर निर्भर है। यहां जमीन उपजाऊ है, पर फसल वर्षा पर निर्भर है। यहां मुख्य रूप से टमाटर, राजमा, मक्का, मटर, मंडुआ, अरबी (गागली), अदरक खूब होते हैं। बागवानी में सेब, अखरोट प्रमुख हैं।
खनाड़ गांव देहरादून जिला के चकराता ब्लाक का पर्वतीय हिस्सा है। चकराता छावनी परिषद में आता है। खनाड़ यहां से करीब 26 किमी. दूर कुराड़- खनाड़- सिचाड़ ग्राम पंचायत का राजस्व गांव है। 20 अगस्त, 2021 को देहरादून से ही बारिश हमारे साथ खनाड़ गांव तक पहुंची।
घुमावदार सड़क पर ग्वाासा पुल से होते हुए टाइगर फाल की ओर बढ़ते हुए दावा पुल के पास से हमें बाईं ओर खनाड़ गांव जाने वाले कच्चे पथरीले रास्ते पर आगे बढ़ना था। यह रास्ता मझगांव की ओर जाता है।
पर्वतीय क्षेत्र में खराब रास्ता बारिश में कितना जोखिम भरा होता है, बताने की जरूरत नहीं है। यह रास्ता इतना ही चौड़ा है कि एक बार में केवल एक लोडर या कार, जीप जैसा छोटा वाहन।
ऊपर पहाड़ से पत्थरों के गिरने का जोखिम अलग से था। खनाड़ से लौटते हुए सामने से रही यूटीलिटी का टायर पंक्चर हो गया। हमें आगे बढ़ने के लिए रास्ता नहीं मिला। टायर बदलने के बाद ही हमें रास्ता मिल पाया।
दावा पुल से करीब तीन किमी. बाद पहुंच गए कुराड़ गांव। यहां युवा खेम सिंह की चाय, बिस्किट और डेली नीड्स की दुकान पर स्थानीय ग्रामीणों से मुलाकात हो गई। कुछ लोगों से जब सड़क के बारे में पूछा तो उनका कहना था कि सड़क पास हो गई है, बन जाएगी। पूछने पर पता चला कि सड़क बनने की बात वो भी काफी समय से सुन रहे हैं। कुल मिलाकर, यहां सड़क का इंतजार हो रहा है।
पास में ही, सिचाड़-कुराड़ का राजकीय प्राथमिक विद्यालय है, जो ओएनजीसी के सौजन्य से 2004 में स्थापित हुआ है, ऐसा भवन के गेट पर लगा बोर्ड बता रहा है। हाईस्कूल की पढ़ाई मिंडाल में होती है और उसके बाद इंटर कालेज और डिग्री कालेज चकराता में हैं। चकराता के गांवों के बड़ी संख्या में छात्र-छात्राएं विकासनगर, देहरादून के कालेजों में भी पढ़ाई करते हैं।
हमें खनाड़ गांव जाने के लिए करीब डेढ़ से दो किमी. पैदल नीचे घाटी की ओर चलना था। बारिश हो रही थी, पर मेरे पास छाता नहीं था। दुकानदार खेम सिंह ने मुझे अपना छाता दे दिया। कहा, गांव से आकर लौटा देना। यहां हमें जितने भी लोग मिले, सभी बहुत अच्छे और सहयोग करने वाले थे। हमें चाय, पानी और भोजन के लिए लगभग सभी लोगों ने पूछा। उनका कहना था कि आप हमारे मेहमान हैं। आप हमारे गांव से भोजन करके ही जाओगे।
जैसे-जैसे हम नीचे की तरफ खनाड़ गांव की ओर बढ़ते, रास्ता खराब होता चला गया। बारिश में इसके अधिकतर हिस्से को दलदल कहें तो ज्यादा अच्छा होगा। पर, मैं इस रास्ते पर चलने वक्त काफी उत्साहित था, क्योंकि मैं पहली बार चकराता के किसी गांव के सफर पर था। मेरे पैर दलदल में धंस रहे थे। कई बार तो गिरते-गिरते बचा। जैविक एवं नगदी फसल की अपार संभावनाओं वाले इस गांव तक सड़क नहीं बनना, जनप्रतिनिधियों एवं सरकारी सिस्टम की गंभीरता को बताने के लिए काफी है।
यहां किसी आपात स्थिति में राहत पहुंचाने के लिए स्वास्थ्य केंद्र तक नहीं है। खराब सड़क पर रोगी को किसी तरह कुराड़ पहुंचाओ और फिर चकराता लेकर दौड़ो।
पहले तो खनाड़ गांव तक जाने के लिए पगडंडी ही थी। हमें बताया गया कि जो चौड़ा रास्ता दिख रहा है, वो भी कुछ साल पहले गांव वालों ने ही खुद से बनवाया। गांव तक राजनीतिक दलों के नेता पहुंचते जरूर हैं, पर सड़क किसी ने नहीं बनवाई। गांव तक सड़क कब पहुंचेगी, किसी को नहीं मालूम।
हमें गांव की ओर जाते समय आशाराम भट्ट मिले, जिन्होंने पीठ पर टोकरी बांधी थी। वो टोकरी में कुराड़ गांव तक धनिया, मूली छोड़कर आए थे। उनको बरसात में फसल को पीठ पर लादकर कुराड़ तक पहुंचाना पड़ता है। अन्य दिनों में, लोडर गांव तक पहुंच तो जाता है, पर जोखिम भरे कच्चे, उबड़खाबड़ रास्ते से होकर। कुल मिलाकर, लगभग दो किमी. सड़क बन जाए, तो गांव में खेती बाड़ी से आर्थिक हालात बदलेंगे, ऐसी उम्मीद है।
राहुल के अनुसार, गांव तक खच्चर से भी सामान पहुंचाया जाता है। एक कट्टे का 40 रुपये किराया है। ऐसे में हमारे गांव तक पहुंचते पहुंचते सामान का मूल्य बढ़ जाता है।फसल को भी खच्चर से कुराड़ तक लाते हैं।
किसान सूरत राम भट्ट ने राजमा का एक किलो बीज बोया है, जिसमें बारिश एवं धूप अच्छी होने की स्थिति में उनको उम्मीद है कि 50-60 किलो उत्पादन मिल जाएगा। बताते हैं कि अरबी फायदे की फसल है। इसका रेट मन (एक मन में 40 किलो) के हिसाब से मिलता है। पिछली बार यह 900 रुपये मन था। उनको सबकुछ बढ़िया होने की स्थिति में करीब 70 से 80 कट्टे अरबी मिल जाएगी। बरसात अच्छी होने पर अरबी शानदार फसल है।
खनाड़ गांव के रास्ते में राहुल ने हमें एक झाड़नुमा पेड़ दिखाया, जो लाल रंग के दानों से भरा था। उन्होंने बताया कि यह गंगारू (जैसा कि मुझे सुनाई दिया) है। मुझसे कहा, इसको चखकर देखो। मैंने कुछ दाने तोड़कर चख लिए। रसभरे ये दाने हल्के मीठे हैं। मैंने तो इन दानों को भी निगल लिया। गंगारू नाम भी मुझे बहुत पसंद आया।
ऊपर से नीचे की ओर आबादी वाला हिस्सा दिखा, जो खनाड़ गांव का ही हिस्सा है। इन घरों की छतों पर गोल सफेद निशान लगे हैं, जो स्वामित्व योजना के तहत लगाए गए हैं, ऐसा मैंने अंदाजा लगाया।
वर्षों पुराने एक, दो और कहीं तो तीन मंजिला घरों की ढालदार छतें स्लेट से बनी हैं। कुछ घर ऐसे भी हैं, जो सामान्य रूप से शहरों की तरह बने हैं, जिनकी छतों को कंक्रीट से बनाया है। हमें बताया गया कि स्लेट की छतों वाले घर बहुत पुराने हैं, इनमें तीसरी और कुछ में तो चौथी पीढ़ी रह रही है।
पुराने घरों में लकड़ी का इस्तेमाल ज्यादा हुआ है। फर्श भी लकड़ी का है और छत भी लकड़ी की, जिस पर स्लेटनुमा पत्थर बिछा है। स्लेट को इस तरह बिछाया गया है कि घर में पानी नहीं घुस सकता।
घरों की बाहर से दिखने वालीं दीवारों में नक्काशी कमाल की है। छोटी-छोटी खिड़कियों से हरियाली से भरे पहाड़, ढालदार खेत, पेड़ पौधे तो कमाल के दिखते हैं। सूरत राम भट्ट के घर भोजन करते हुए मैं खिड़की के पास ही बैठा था।
हम जैसे शहर की सड़कों पर धूल फांकने वाले, गाड़ियों का धुआं उड़ाने वाले, शोर सुनने के आदी लोगों, को जब भी प्रकृति की गोद में जाने का मौका मिलता है, तो पागल से हो उठते हैं। हम उसी समय निर्णय कर लेते हैं कि अब तो बस यहीं रहना है। यह दुनिया, हमारी दुनिया से बहुत अलग है।
पर, जब हम यहां रहने वाले लोगों की असल चुनौतियों को समझते हैं, मौसम और विषम भौगोलिक परिस्थितियों से उनके संघर्ष को देखते हैं तो फिर लौट जाते हैं अपने उसी शहर और मोहल्ले की ओर, जहां हम धूल फांकते हैं, धुआं उड़ाते हैं, शोर मचाते और सुनते हैं। कुल मिलाकर हम शहर की भागदौड़ वाली रफ्तार में इतना व्यस्त हैं कि हम यहां से कहीं जा ही नहीं सकते, भले ही यह रफ्तार हमारा सुकून, शांति सबकुछ छीन रही हो। हम किसी भी दुनिया में चले जाएं, बामुश्किल ही इन सबसे हमारा पीछा छूटेगा।
गांव में सुनीता देवी ने हमें मीठा करेला की बेल दिखाई। इस समय करेला नहीं लगा है, उस पर फूल दिखते हैं। बताती हैं कि सड़क खराब होने पर कई बार खेतों से उपज बाजार तक नहीं पहुंच पाती। खेतों की सिंचाई के लिए पानी बारिश से मिलता है। पशुपालन भी होता है।
उन्होंने बताया कि इन दिनों मटर का बीज बोया है, मटर को पानी चाहिए, आज ही बारिश हुई है। बारिश नहीं होने पर फसल खराब होने का डर रहता है।
स्कूल यहां पांचवी तक ही है। इसके बाद, यहां से करीब दो किमी. चलकर मिंडाल पहुंचते हैं। इंटर कालेज चकराता में है। उन्होंने बताया कि यहां सभी परिवार संयुक्त रूप से रहते हैं। जो लोग नौकरी के लिए यहां से बाहर गए हैं, वो आते रहते हैं। सब एकदूसरे की मदद करते हैं। हमारे गांव में भोजन पानी की कोई दिक्कत नहीं है।
ग्रामीण राहुल भट्ट, गांव में ही देवता जी के मंदिर में ले जाते हैं। बताते हैं कि अभी मंदिर का निर्माण हो रहा हैं। मंदिर भवन में लकड़ी पर बहुत खुबसूरत नक्काशी की जा रही है।
मंदिर से लौटते हुए हम खेतों के बीच से होकर आगे बढ़े। गांव की गलियों से होते हुए हमें सूरत राम भट्ट के घर पहुंचना था, जहां वो भोजन पर हमारा इंतजार कर रहे थे। लकड़ी से बने दो मंजिला, तीन मंजिला भवनों के बीच से जाती तंग गली से होते हुए हम जा रहे थे। रास्ते में जो भी लोग मिले, सभी ने भोजन पानी का आग्रह किया। इस गांव में अतिथियों से स्नेहभाव रखने वाले लोग हैं।
सूरत राम भट्ट की करीब 70 वर्षीय माता जी छुमा देवी जी से मिले, जो बिटिया मोनिका के साथ रसोई में भोजन बनाने में व्यस्त थीं। मुझे रसोई में बैठने की अनुमति मिल गई।
मोनिका अपनी दादी से बातें भी कर रही थीं और उनका ध्यान रोटियां बनाने पर भी था। आटे की लोई को हथेलियों से थपथपाते हुए गोल आकार की रोटियां बनाते हुए वर्षों बाद किसी को देखा होगा।
एक रोटी हथेलियों की थपथपाहट से गोल आकार ले रही थी, दूसरी रोटी तवे पर और तीसरी रोटी चूल्हे की तेज आंच में तैयार हो रही थी। एक साथ तीन रोटियां भोजन की थाली में जाने के लिए तैयार। हमारी (मेरी और दादी ) बात का जवाब देते हुए मोनिका बीच -बीच में रोटी को पलटकर जलने से भी बचा रही थीं।
मिट्टी का चूल्हा, जिस पर एक बार में तीन बर्तनों में भोजन पका सकते हैं। संयुक्त रूप से बनाए तीनों चूल्हों को एक साथ आंच दी जा सकती है। मोनिका बताती हैं कि मिट्टी का यह चूल्हा दादी ने बनाया है। इस समय पहला चूल्हा रोटियां बनाने में, बीच में स्थित चूल्हा डेकची में पानी गर्म करने और तीसरा दाल उबालने में इस्तेमाल हो रहा था। मोनिका तो भोजन बनाने में पारंगत हैं और पूछने पर बताती हैं कि अंकल जी, ये रोटियां आपके लिए ही बना रही हूं।
मैंने पूछा, आपको खाना बनाने में कितना समय लगता है। मोनिका हंसते हुए कहती है, पांच मिनट में खाना तैयार। मोनिका की बात पर, उनके चाचा जी सूरतराम, उनकी दादी और मुझे हंसी आ गई। हमने कहा, मोनिका पांच मिनट में खाना कैसे बन जाएगा। मोनिका ने जवाब दिया, एक चूल्हे पर दाल, दूसरे पर सब्जी और तीसरे पर रोटियां बनेंगी।
खनाड़ गांव में चूल्हे पर खाना बनते देखना, मेरे लिए बचपन में लौट जाने लिए काफी था। मेरे घर में मां चूल्हे पर रोटियां बनाती थीं। पर हमारे घर में एक साथ चलने वाले तीन संयुक्त चूल्हे नहीं थे। चूल्हे पर सेंकी गई रोटियां और डेकची में उबाली गई दाल बहुत स्वादिष्ट थे।
पर, हम तो गैस, बर्नर पर सेंकी रोटियां खा रहे हैं। प्रेशर कुकर में फटाफट उबली दाल पी रहे हैं, भोजन का पहले जैसा स्वाद चाहकर भी नहीं पा सकते। मोनिका ने मिंडाल के स्कूल से हाईस्कूल पास किया है। इंटर कालेज चकराता में है। उन्होंने पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी।
मसूर की दाल, अपने ही खेत में उपजाए आलू की सब्जी, चूल्हे में सेंकी गई रोटियां, ताजे और शुद्ध दूध से बनीं सेवईं, हरी चटनी के साथ खीरे का स्वाद वास्तव में लाजवाब था। हमने इस भोजन की दिल से खूब तारीफ की। आत्मीयता से, स्नेह से परोसे गए भोजन की बात ही कुछ और होती है। भरपेट भोजन किया और फिर निकल पड़े प्रकृति की गोद में बसे खनाड़ गांव को छोड़कर उसी देहरादून शहर की ओर, जहां की सड़कों पर जगह-जगह जाम और शोर बेचैन कर देता है।
वापस लौटते समय बारिश नहीं थी, पर कीचड़ पर फिसलने का डर बना था। एक जगह फिसल ही गया था, अगर झाड़ी नहीं पकड़ता। पर, इस घास ने हथेली में खुजली कर दी। शूज तो कीचड़ में धंसकर मिट्टी से सने हुए थे।
किसान कलम सिंह, सूरत राम हमें छोड़ने कुराड़ तक आए थे। कई बार तो हाथ पकड़कर उन्होंने मुझे आगे बढ़ाया। चढ़ाई ने मुझे ज्यादा परेशान नहीं किया, क्योंकि यहां शांत व ठंडी हवा साथ दे रही थी।
कुराड़ से चकराता और वहां से देहरादून की ओर वाया कोरबा, सहिया, कालसी, विकासनगर, सहसपुर, सेलाकुई, सुद्धोवाला, प्रेमनगर देहरादून पहुंच गए।
सफर लंबा था, पर थकाने वाला नहीं, क्योंकि यहां आप प्रकृति के साथ साक्षात्कार करते हैं, उसकी शरण में होते हैं।
ग्राम्या-।। की देहरादून – विकासनगर डिवीजन की समन्वयक आशा नेगी का कहना है कि कुराड़, खनाड़, सिचाड़ क्षेत्र में कृषि एवं बागवानी में काफी संभावनाएं हैं। कृषि उपज को सही मूल्य एवं बाजार तक पहुंच के लिए उस तंत्र को स्थापित करने की आवश्यकता है, जो हर वर्ग के किसानों के लिए लाभकारी हो।
यहां कुछ ग्राम पंचायतों की उपज की पैकेजिंग, प्रोसेसिंग यूनिट स्थापित की जा सकती हैं। मंडुआ को पीसने से लेकर पैकेजिंग, बाजार में नहीं बिक पाने वाले छोटे टमाटर का शॉस बनाने, मटर की पैकिंग कराने जैसे कई कार्यों के लिए ग्रामीणों को तकनीकी संसाधनों का सहयोग एवं प्रशिक्षण दिया जा सकता है। इन उत्पादों को ग्रोथ सेंटर्स या अन्य माध्यमों से उपभोक्ताओं तक पहुंचाया जा सकता है। उपज को सीधा खेतों से उठाकर भी किसानों को लाभ पहुंचाया जा सकता है। कुल मिलाकर हमें उपज के मार्केटिंग सिस्टम को मजबूत करना होगा।
एम्पावर सोसाइटी की संस्थापक मोनीदीपा सरमा का कहना है कि खनाड़ गांव में कृषि उपज सहित स्थानीय संसाधनों पर आधारित आयअर्जन गतिविधियों का प्रशिक्षण दिया जा सकता है। प्रशिक्षण तक ही सीमित न रहकर लोगों को उत्पाद तैयार करने एवं बाजार से जुड़ने के लिए भी प्रेरित करना होगा। सरकार एवं विभिन्न सरकारी उपक्रमों की योजनाओं का लाभ प्राप्त करने के लिए ग्रामीणों को जागरूक बनाना होगा। हमें उन सभी गतिविधियों को चिह्नित करना होगा, जो आजीविका में सहयोगी हों।
एम्पावर सोसाइटी ने नाबार्ड की योजना के तहत खनाड़ गांव में तीन स्वयं सहायता समूह,जिनमें जय मां दुर्गा स्वयं सहायता समूह, पीर बाबा देवता स्वयं सहायता समूह एवं कृषक कल्याण स्वयं सहायता समूह बनाए हैं। सोसाइटी की संस्थापक ने बताया कि ग्रामीणों की आवश्यकता के अनुसार रोजगारपरक गतिविधियों के संचालन की पहल की जाएगी।
खनाड़ गांव में उत्पादित अरबी को बेचा जा रहा है। इसके पत्तों की ग्रामीण सब्जी बना रहे हैं। डंठलों का इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है, जबकि उड़द की दाल को पीसकर बनाए लेप को अरबी के डंठलों पर लगाकर बड़ियां बनाई जा सकती हैं, जिसकी बाजार में मांग भी है।
किसानों को लाभ दिलाने के लिए मजबूत उपायों की जरूरत
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खनाड़ गांव को हर फसल से पहले प्रमाणिक बीज एवं खेती के उन्नत तरीकों में सहयोग की आवश्यकता। फसल के लिए खेत तैयार करते समय कृषि विभाग शिविर लगाकर नवीनतम जानकारियां उपलब्ध कराए।
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सीढ़ीनुमा ढालदार खेतों के लिए उन्नत यंत्र एवं साधन उपलब्ध कराने की आवश्यकता।
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वर्षा पर निर्भर खेती वाले खनाड़ गांव में सिंचाई के वैकल्पिक संसाधनों की उपलब्धता।
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गांव से ही कृषि उपज के उठान की व्यवस्था तथा परिवहन के लिए गांव को सड़क से जोड़ने की आवश्यकता। किसानों को उपज का प्रतिदिन का बाजार भाव बताने के लिए मैसेज।
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कम भूमि वाले किसानों को खेती के विभिन्न विकल्पों का ज्ञान कराने की आवश्यकता।
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फसलों की सुरक्षा के लिए कीटनाशकों एवं दवाइयों का ज्ञान एवं वितरण आवश्यक।
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मंडुआ, अदरक, मटर, राजमा, मक्का की ग्राम पंचायत स्तर पर पैकेजिंग। टमाटर से अन्य उत्पाद तैयार करने का प्रभावी प्रशिक्षण व तकनीकी सहयोग तथा बाजार तक पहुंच। अरबी के पत्तों एवं डंठलों से अन्य खाद्य उत्पाद बनाने का प्रशिक्षण।