राजेश पांडेय। न्यूज लाइव
“डेढ़ साल पहले लगे नल में कभी पानी नहीं देखा। हमारे यहां पानी की बहुत दिक्कत है। घर में, मैं और पति रहते हैं, मेरे पैरों में दर्द रहता है। मुझे गांव के बच्चों से मिन्नत करके स्रोत से पानी मंगाना पड़ता है। स्रोत हमारे घर से बहुत दूर है। हम बरसात के पानी को गर्म करके भोजन में इस्तेमाल करते हैं।”
हल्द्वाड़ी गांव में एक घर के बाहर लगे नल की टोंटी घुमाते हुए करीब 65 वर्षीय पिंगला देवी, हमें पानी की कहानी बता रही थीं। हल्द्वाड़ी, उत्तराखंड के देहरादून जिला के रायपुर ब्लाक का पर्वतीय गांव है, जिसकी राजधानी से दूरी लगभग 35 किमी. है।
हल्द्वाड़ी गांव के बारे में काफी समय से सुन रहा था, पर वहां जाने का साहस नहीं कर पा रहा था। मुझे बताया गया था कि हल्द्वाड़ी तक सड़क नहीं है, वहां ऊबड़ खाबड़, ऊंचे नीचे रास्ते पर बाइक से जाना होगा। मैं पर्वतीय रास्तों पर बाइक चलाने से घबराता हूं, क्योंकि एक बार बडेरना जाने के कच्चे रास्ते पर फंस गया था। बाइक को पैदल ही खींचना पड़ा, मेरी सांसें उखड़ गई थीं। बडेरना भी हल्द्वाड़ी ग्राम पंचायत का राजस्व गांव है। इस गांव की सड़क की कहानी विस्तार से बताऊंगा, पहले पानी पर बात करते हैं।
पिंगला देवी के घर के पास ही, बसंती देवी का मकान है। करीब 70 वर्षीय बसंती देवी का कहना है, ” 20-30 लीटर पानी लाने में दो घंटा लग जाता है। स्रोत से खड़ी चढ़ाई है। घर पर किसी संस्था की मदद से टंकी बनाई है, जिसमें बारिश का पानी जमा होता है। इसे कपड़े, बर्तन धोने, पशुओं को पिलाने में उपयोग करते हैं। ”
ग्रामीण हमें ऊंचाई पर स्थित पानी की टंकी दिखाना चाहते हैं।
इससे पहले हमें ज्वाराना माता के मंदिर में दर्शन कराने ले जाते हैं। गांववालों का कहना है कि ज्वाराना माता हमारी कुलदेवी हैं।
सबसे ऊंचाई पर स्थित मंदिर में जाने के लिए सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं। आप मंदिर परिसर से पूरा गांव देख सकते हैं। हल्द्वाड़ी गांव आसपास ही आठ हिस्सों में बंटा है, यानी आठ जगहों पर 65 से 70 घर हैं। यहां की कुल आबादी लगभग साढ़े चार सौ बताई जाती है।
मंदिर में दर्शन के बाद, राजकीय प्राइमरी स्कूल, पंचायत भवन के पास से हम आगे बढ़ते हैं। स्कूल भवन के शौचालय में पानी की कमी दिखती है, हालांकि यहां पाइप बिछे हैं और नल भी लगा है। पूरे रास्ते किनारे-किनारे पानी के लिए पाइप बिछे हैं।
ऊंचाई की ओर चलते हुए ऊबड़ खाबड़ पथरीले रास्ते से हम पानी की टंकी के पास पहुंच गए। टंकी की हालत बहुत खराब है। इसके सरिये बाहर आ चुके हैं। इसका पुनर्निर्माण आवश्यक है। इससे भी ज्यादा जरूरी है कि इसमें पानी पहुंचे।
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करीब 60 वर्षीय चरण सिंह बताते हैं, “यहां टिहरी गढ़वाल जिला से लगभग 11 किमी. लाइन से पानी पहुंच रहा था। करीब डेढ़ साल पहले, सड़क निर्माण के दौरान लाइन करीब एक से दो किमी. तक क्षतिग्रस्त हो गई, तभी से पानी नहीं आ रहा, जब इस टंकी में ही पानी नहीं पहुंच रहा है, तो गांव में कैसे आपूर्ति होगा। गांव में लगाए नलों में जल नहीं आता।”
चरण सिंह, घर से करीब डेढ़ किमी. दूर बरसात वाले स्रोत से पानी लाते हैं। गर्मियों में तो यह दूरी लगभग दोगुनी हो जाती है। उनका कहना है, इस उम्र में पानी ढोना पड़ रहा है। यहां बुजुर्ग, युवा, बच्चे, सभी पानी ढोते हैं। महिलाओं के सामने पानी का इंतजाम करना बड़ी चुनौती है।
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ग्रामीण दिनेश सिंह बताते हैं, ”हमने इस टंकी में बरसात का पानी छोड़ रखा है। अगर, इसको पूरा खाली कर दिया तो धूप में यह चटक जाएगी। गांववाले पानी की लाइन ठीक कराने की मांग कई बार कर चुके हैं, पर सुनवाई नहीं हो रही।”
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डेढ़ साल से शो पीस बनी टंकी को देखकर हम वापस गांव की ओर लौट आते हैं, वापस उसी उबड़खाबड़ रास्ते से होकर। मेरे लिए राहत की बात सिर्फ इतनी है कि इस बार ढलान पर चलना होगा। पर, ढलान पर आपको ज्यादा सावधानी बरतनी होती है।
ग्रामीण गजेंद्र सोलंकी, जिनको गज्जू कहलाना ज्यादा पसंद है, बताते हैं कि “2017 के चुनाव से पहले हमें पूरी तरह यह अहसास करा दिया गया था कि कुछ ही महीनों में हमारी सारी समस्याएं दूर होने वाली हैं, पर हमें क्या पता था कि इस बार भी ठगा जा रहा है।”
“हमारे गांव का भला किसी भी दल ने नहीं किया, भले ही कोई विधायक से मुख्यमंत्री क्यों न बन गया हो। हमें आज भी पानी के लिए दौड़ लगानी पड़ती है। सड़क के हाल तो आप यहां आते हुए देख चुके हो”, 23 साल के गजेंद्र कहते हैं।
हम हल्दी, अदरक और मंडुए के खेतों के किनारे पगडंडियों से होते हुए आगे बढ़ रहे थे।
हमारे दाईं और बड़े पहाड़ दिख रहे हैं और घाटी में सौंग नदी बह रही है। ग्रामीण अरुण नेगी बताते हैं कि नदी के पार टिहरी गढ़वाल के गांव हैं। यहां से सबसे ऊंचा पहाड़ गौरण का टिब्बा दिखता है, जिसके पीछे सतेली गांव है। यहां से आप सतेली जा सकते हैं, जो देहरादून जिला में आता है।
पहाड़ पर बसे गांवों के घर छोटे-छोटे दिखते हैं। रात को इन घरों में जलते बल्ब ठीक उसी तरह नजर आते हैं, जैसे आसमां में टिमटिमाते तारे।
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अरुण कहते हैं, पहाड़ जितने सुंदर दिखते हैं, उतनी ही चुनौतियां हैं, यहां रहने वालों के सामने। हमारा गांव ही देख लो, ज्यादा ऊंचा पहाड़ नहीं चढ़ना यहां आने के लिए, पर मुश्किलें बहुत हैं।
खेतीबाड़ी में जुटीं कुछ महिलाओं से हमने उपज के दाम और बाजार तक पहुंच के उपायों पर बात की। ग्रामीणों से बातें करते हुए हम स्रोत की ओर बढ़ रहे थे।
गांव के कहीं कच्चे और कहीं सीमेंटेड रास्तों से होते हुए आखिरकार पहुंच ही गए बरसात वाले स्रोत पर। बरसात वाला स्रोत इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि यहां बरसात में ही पानी मिलता है। बड़े से पाइप से होकर खूब पानी यूं ही बह रहा है। जब मन किया पानी भर लो, नहीं तो बहने दो।
इसे देखकर लगता है कि गांव में पानी को कोई कमी नहीं है, ग्रामीण वैसे ही जल संकट की बात कहते हैं। पर, हकीकत कुछ और है। यह स्रोत घरों से एक से ढाई किमी. तक की दूरी पर है।
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गर्मियों में यहां पानी बहुत कम हो जाता है। यदि यहां जल संग्रह की व्यवस्था होती तो गांव के अधिकतर परिवारों को गर्मियों में ज्यादा दूरी तय नहीं करनी पड़ती, ऐसा हमारा मानना है।
स्रोत पर हमें युवा अमित मिले, जो खेतों से उखाड़ी अदरक धो रहे थे। साफ-सफाई के बाद अदरक को बाजार भेजेंगे।
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यहां दसवीं के छात्र अशोक और उनके साथी पानी भरने आए हैं। ये बच्चे धारकोट और लड़वाकोट के स्कूलों में पढ़ते हैं। हल्द्वाड़ी के कक्षा छह से आठ तक में पढ़ने वाले बच्चे लड़वाकोट जाते हैं और नौवीं से 12वीं तक पढ़ाई धारकोट स्थित राजकीय इंटर कालेज में होती है।
करीब एक किमी. दूर से पानी लेने आए दसवीं कक्षा के छात्र अशोक प्रतिदिन पांच चक्कर लगाते हैं। किसी को पानी बर्बाद करते देख उनको बुरा लगता है। कहते हैं, अगर पानी घर तक पहुंच जाए तो वो और अच्छे से पढ़ाई कर सकते हैं। स्कूल भी समय पर पहुंचेंगे।
उनके साथी, मयंक भी कक्षा दस में पढ़ते हैं, कहते हैं कि हमारे घर में नल लगा है, पर उसमें पानी नहीं आता। सुबह उठते ही सबसे पहला काम है, पानी लाना। क्या सूखे नल को देखकर आपको गुस्सा आता है, के सवाल पर मयंक हंस देते हैं। हमारे पूछने पर बताते हैं, मैं नल की टोंटी को रोज घुमाकर देखता हूं, कि पानी आ रहा है या नहीं।
हमने कक्षा आठ के छात्र आर्यन से भी पानी से जुड़ी दिक्कत पर बात की। हल्द्वाड़ी गांव की रीना बताती हैं कि सुबह साढ़े सात बजे से 12 बजे तक पानी इकट्ठा करना पड़ता है। हम पानी की कीमत जानते हैं।
पानी की ऐसी ही कुछ कहानी हमें गर्मियों वाले जल स्रोत पर मिले छात्र रोहित, बिटिया प्राची से सुनने को मिली। इस स्रोत से थोड़ा आगे सोलर पंपिंग योजना है, जहां बड़े सोलर पैनल लगे हैं।
इससे थोड़ा ऊंचाई पर स्थित तोक सूरीसैण तक पानी पहुंचाने की व्यवस्था की गई थी। पर, ग्रामीण राम सिंह बताते हैं कि यह योजना विफल साबित हो गई। यह योजना केवल दो माह अप्रैल- मई में ही काम कर पाती है। बाकि माह यहां धूप नहीं पड़ती, तो सौर ऊर्जा कैसे पैदा होगी।
हमें बताया गया कि इस योजना पर लगभग एक करोड़ रुपये खर्च हुए थे। ग्रामीण गंभीर बताते हैं कि हमने योजना के लिए जमीन दी। ग्रामीणों ने श्रमदान किया था।
इस योजना से पानी नहीं मिलने का कारण सौर ऊर्जा पैदा नहीं होना है। पर, यह बात समझ में नहीं आती, जब गांव में बिजली की लाइनें हैं, तो योजना को उससे भी क्यों नहीं जोड़ा गया।
क्या इस बात की स्टडी नहीं की गई थी, कि इससे कितने माह पानी उपलब्ध कराया जा सकेगा। अध्ययन में यदि यह बात सामने आई थी कि यह योजना बारहमास पानी देगी, तो क्या गांववाले सच नहीं बोल रहे हैं।
इस योजना पर तमाम सवाल उठ रहे हैं। क्या यह केवल, यह दर्शाने के लिए बनाई गई है कि उत्तराखंड में सोलर एनर्जी का इस्तेमाल पेयजल पंपिंग योजना में किया जा सकता है। यदि बिजली से इस योजना को जोड़ते, तो घरों के नलों में पूरे साल पानी मिलता। कोई भी योजना, यदि जनता को राहत नहीं देती है, तो यह पैसों की बर्बादी के अलावा कुछ नहीं है।
दृष्टिकोण समिति के संस्थापक मोहित उनियाल का कहना है कि घर-घर नल लगाना तभी सार्थक होगा, जब उनमें जल भी आए। वो सवाल उठाते हैं कि ऐसी क्या वजह है कि पाइप लाइन डेढ़ साल में भी दुरुस्त नहीं हो पाई। पेयजल योजना को सोलर पैनल के साथ ही बिजली से भी जोड़ना चाहिए, तभी सालभर पानी उपलब्ध हो सकेगा।
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