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हकीकत ए उत्तराखंडः किसान भगवान भरोसे, सिस्टम से उठा विश्वास
गोवा और मुंबई के होटलों में बतौर शेफ नौकरी कर रहे वीरेंद्र को कोविड के दौर में घर वापस लौटना पड़ा था। पूरी मुस्तैदी से परिवार के साथ खेतीबाड़ी में जुटे रहने के बाद भी 39 साल के वीरेंद्र साफ तौर पर यह नहीं कह सकते कि इस बार खेती में लाभ होगा।पहाड़ के ढलानदार खेतों में उपज की स्थिति का अनुमान लगाना उनके लिए मुश्किल है।
उत्तराखंड की राजधानी देहरादून से केवल 50 किमी. दूर बाड्यौ गांव टिहरी गढ़वाल जिले का हिस्सा है। जौनपुर ब्लाक की हटवाल ग्राम पंचायत में आने वाला बाड्यौ धनोल्टी विधानसभा में आता है।
देहरादून के मालदेवता के लालपुल को पार करके चंबा जाते हुए रास्ते में रिंगालगढ़ पड़ता है, जिसे स्थानीय लोग जांगरिया खाल के नाम से भी जानते हैं। आपको हटवाल ग्राम पंचायत के गांवों में जाना है तो कार, मोटरसाइकिल या साइकिल, जो भी कुछ आपके पास है, यहीं पार्क कर दो, क्योंकि जंगल के बीचो बीच गुजरतीं चढ़ाई और उतराई वाली पगडंडियां आपको आगे बढ़ने की अनुमति नहीं देतीं।
सड़क से बीस कदम चलकर प्रीतम सिंह पंवार की दुकान है। हमने उनसे आग्रह किया, आप हमारी गाड़ी का ध्यान रख लीजिए, हम आज शाम होने से पहले वापस लौट आएंगे। यहां से वरिष्ठ पत्रकार योगेश राणा जी के साथ, बाड्यौ गांव का पैदल सफर शुरू हो गया। थोड़ा आगे बढ़े तो दुकानदार गोविंद सिंह नेगी से मुलाकात हो गई। नेगी जी, खेतीबाड़ी, पशुपालन के साथ डेली नीड्स की दुकान चलाते हैं।
गांव की यात्रा शुरू होने से पहले ही, वहां की दुश्वारियां नेगी जी के हवाले से पता चल गईं। पर, हम तो एक दिन ही सही, बाड्यौ, मरोड़ा, कुदनी जैसे गांवों की पगडंडियों को नापना चाहते थे और खेतीबाड़ी की चुनौतियों को मौके पर जाकर समझना चाहते थे।
जैसे ही वन विभाग के दफ्तर के पास से होते हुआ आगे बढ़े, हमारे सामने तीन रास्ते थे। हमें किस पर चलना है, हम तय नहीं कर पा रहे थे। पीछे से किसी ग्रामीण ने बताया, बीच वाले रास्ते पर आगे बढ़ जाओ। हमने उनके इंस्ट्रक्शन समझने में गलती कर दी और गलत रास्ते पर सफर शुरू कर दिया।
यहां बारिश नहीं थी और न ही खेतू गांव की तरह पाला। हम तो खेतू के बाद आनंद चौक और उससे आगे शांत और ठंडी हवाओं में खो गए थे।
हम भूल ही गए कि कहां जाना है। एक जगह मुझे इतना अच्छा लगा कि कार से बाहर निकल कर तेजी- तेजी से सांस लेने का मन किया।
वो इसलिए कि, मैं चाहता था कि अपने फेफड़ों से शहर की प्रदूषित हवा को बाहर कर दूं और यहां से भर लूं स्वच्छ, ताजी और मन को आनंदित करने वाली प्राणवायु। यह कोई अतिश्योक्ति नहीं, बल्कि मेरे मन की बात है, जब मन करता है, सभी से यह बात कर लेता हूं। वनों के बीच से होकर आती-जाती सर्पीली सड़क ने सचमुच आनंदित कर दिया।
जांगरियाखाल को पीछे छोड़ते हुए मरोड़ा पुल तक पहुंच गए थे। वो तो भला हो उन बच्चों का, जिन्होंने हमें बता दिया कि हटवाल गांव जाने के लिए वापस लौटना होगा।
हां, तो मैं बात कर रहा था रिंगालगढ़ से हटवाल गांव के लिए गलत रास्ते पर आगे बढ़ने की। आप कहोगे कि कभी सड़क पर भटक जाते हो, कभी गांव के रास्ते पर और यहां लिखते हुए भटक गए। मेरा जवाब है, कुछ लोगों को बहुत भटकने के बाद सही मुकाम मिलता है, मेरे साथ भी ऐसा ही होता रहा है।
यहां जंगल की पगडंडियां भुलभुलैया हैं। हमें नहीं पता, गांव कब आएगा। फोन भी नहीं मिल रहा था। राणा जी बोले, राजेश जब इतनी दूर आ ही गए हैं तो रास्ता भी मिल जाएगा, आगे बढ़ते रहो। करीब तीन सौ मीटर चढ़ाई ही नापी होगी, सुजीत और अमित से मुलाकात हो गई। वो यहां पशुओं को चराने लाए हैं।
सुजीत कक्षा छह में और अमित तीन में पढ़ते हैं। आज स्कूल क्यों नहीं गए, पर जवाब था लॉकडाउन चल रहा है। फिर कहने लगे, आज लड़कों का स्कूल नहीं है। फिर, नदी की ओर इशारा करते हुए बोले, वो देखो, वहां मरोड़ा के स्कूल में पढ़ते हैं। इतनी दूर स्कूल, सोचकर मेरे तो होश ही उड़ने वाले थे। अगली किस्त में आपसे स्कूल पर भी बात करूंगा…।
बच्चों ने हमें बता दिया कि यह रास्ता ठीक नहीं है। थोड़ी देर रुककर, सुजीत ने कहा, ठीक है चले जाओ इसी रास्ते पर। फिर बोला, वो पहले वाला रास्ता सही था। यह रास्ता लंबा है। फिर कहने लगा, नहीं बराबर है। बच्चों की बातें सुनकर हमें हंसी आ गई। उन्होंने भुलभुलैया से बाहर आने में हमारी मदद की।
मेरी तो सांस फूलने लगी। पानी की बोतल साथ लाए थे, इसलिए चिंता नहीं थी। हमें यहां से अपने घर वापस लौटने की भी कोई जल्दी नहीं थी। वैसे मौसम हमारे साथ था, शांत हवा शरीर में जान फूंक रही थी। जहां भी पगडंडी दो हिस्सों में बंट जाती, थोड़ा कन्फ्यूज होते, फिर अनुमान लगाते और कदम बढ़ा देते।
करीब दो किमी. चलकर आवाज सुनाई देने लगी। यहां जंगल में धुंध छाई थी। हमने अंदाजा लगा लिया था कि थोड़ा ऊपर चलकर खेत हैं। कुछ दूरी ही चले होंगे। हमें सुनाई दिया, आ जाओ, हम यहां पर हैं। संभलकर चलना।
आखिरकार हम मरोड़ गांव के एक खेत में पहुंच गए। यहां वीरेंद्र सिंह, हुकुम सिंह ने खेतों में मटर बोई है। वीरेंद्र ने अपने खेत के साथ ही, करीब 12 हजार रुपये किराये पर लिए एक अन्य खेत में भी मटर बोई है।
”मटर तीन महीने की फसल है, इसमें काफी मेहनत के साथ देखरेख की जरूरत है। इसको दिन रात चौकीदारी करके जानवरों से बचाना होगा।” टॉर्च दिखाते हुए वीरेंद्र बताते हैं कि इसकी तेज रोशनी से जानवरों, जिनमें मुख्य रूप से बारहसिंगा, सूअर हैं, को भगाते हैं।
रही बात, मटर की खेती में लागत की तो हम अपना पारिश्रमिक कभी नहीं जोड़ते। यदि यह जोड़ लिया तो लागत बहुत हो जाएगी। मोटा-मोटा हिसाब लगाएं तो एक कुंतल मटर बोने में बीज का खर्चा लगाकर, कम से कम 15 से 20 हजार रुपये होते हैं। यह मटर की खेती की बात है, और फसल में ज्यादा खर्चा आता है। मटर लगभग तीन से साढ़े तीन बीघा में बो रहे हैं।
उत्पादन के सवाल पर कहना है कि यह बरसात पर निर्भर है, क्योंकि सिंचाई के अन्य साधन नहीं हैं। बरसात हो गई तो फसल सही, नहीं तो पिछली बार की तरह सूखा यानी फसल बर्बाद। नुकसान की भरपाई का कोई विकल्प नहीं है। यहां केवल तीन महीने बारिश के समय की खेतीबाड़ी मानिए।
सही समय पर बारिश से कुछ लाभ मिल गया तो ठीक, नहीं तो शहर जाकर नौकरी करो। हमें अपना गांव छोड़ना पड़ता है। यही कारण है कि मैं होटल लाइन में चला गया था।
” पास में ही एक खाला है, वहां से पंपिंग करके खेतों में सिंचाई की व्यवस्था हो जाए तो यहां क्या कुछ नहीं हो सकता। हमें अपने खेतों को छोड़कर घरों से दूर जाकर नौकरी करना अच्छा नहीं लगता, पर जीवन को आगे बढ़ाने के लिए कुछ तो करना होगा ”, वीरेंद्र कहते हैं।
एक और सवाल पर, उनका कहना है कि अगर, सही फसल मिल गई तो गट्ठर बांधकर सिर पर रखकर ढलान-चढ़ाई वाली पगडंडियों से होते हुए रिंगालगढ़ ले जाते हैं। वहां से कट्टों पर अपने नाम लिखकर फसल को यूटीलिटी से देहरादून मंडी भेजते हैं। मंडी में उपज का रेट तय होता है और हमें पैसा मिल जाता है। हमारी उपज मंडी के आढ़तियों के माध्यम से बिकती है। रेट पिछली बार मंदा था। फसल का रेट मार्केट यानी मांग पर निर्भर करता है। मटर 40 से लेकर 80 रुपये किलो तक भी चला जाता है।
वीरेंद्र कहते हैं कि अगर अपनी फसल को ही बाजार में कहीं से खरीदते हैं तो लगभग उसका रेट डबल हो जाता है। उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया कि हमारी बीन्स (फलियां) 30 या 40 रुपये किलो के हिसाब से बिकती हैं। जब हम देहरादून से बीन्स खरीदकर लाते हैं तो यह 70 या 80 रुपये प्रति किलो में मिलती है।
हम उनसे बाड्यौ गांव का रास्ता पूछकर आगे बढ़े। हमारे लिए ऊँचे नीचे संकरे रास्ते वो भी फिसलन भरे, जोखिम वाले हैं। जंगल में चीड़ की पत्तियां (पिरूल) फिसलन पैदा करती हैं। चट्टानों में पैर टिकाकर आगे बढ़ने के लिए कट लगाए गए हैं। हो सकता है हमारा यह अनुमान गलत हो।
पेड़ों, झाड़ियों के बीच से गुजरती संकरी गलियां कंकड़ बजरी से भरी हैं। बारिश में इन रास्तों में किसी नहर जितना पानी बहता होगा, हमने देखते ही अंदाजा लगाया।
दो रास्ते देखकर हम फिर कन्फ्यूज हो गए कि किस पर चलना है। वो तो भला हो, विक्रम सिंह रावत का, जो हमारे पीछे पीछे ही आ रहे थे। विक्रम कंधों पर भरा हुआ कट्टा रखकर चढ़ाई कर रहे थे। बताते हैं, इसमें मटर का 35 किलो बीज है। करीब तीन किमी. रिंगालगढ़ से लेकर आ रहे हैं। अभी और आगे जाना है। यहां न तो सड़क है और न ही पानी।
कहते हैं, हर परिवार की स्थिति ऐसी नहीं है कि वो खच्चर खरीदकर अपना सामान ढो सके। खच्चर को किराये पर लेने का मतलब है कि सामान की कीमत बढ़ाना। इसलिए सामान खुद ही ढोना पड़ता है। आगे का रास्ता बताकर विक्रम सिंह अपने गांव की ओर बढ़ गए।
बुनियादी सुविधाओं के लिए जूझ रहे इन गांवों के बड़े मुद्दों पर जनप्रतिनिधियों एवं सरकारी तंत्र का ध्यान नहीं है। जैसा कि ग्रामीण बताते हैं कि हर बार पानी, सड़क, सिंचाई की सुविधाएं दिलाने का वादा करके वोट मांगे जाते हैं, पर बाद में कोई नहीं पूछता। अब 2022 में चुनाव है, फिर देखते हैं क्या होता है।
आखिरकार हम पहुंच ही बाड्यौ गांव में सुरेंद्र सिंह के दो मंजिला आवास पर। घर की छत पर खड़े 59 वर्षीय सुरेंद्र सिंह ने हमें दूर से आवाज लगाई, आ जाओ। सुरेंद्र सिंह जी, वीरेंद्र के भाई हैं। वीरेंद्र ने उनको हमारे आने की सूचना फोन पर पहले ही दे दी थी। बाड्यौ जितना सुंदर गांव है, उतनी ही यहां की चुनौतियां हैं।
सुरेंद्र सिंह ने हमें गांव की खेतीबाड़ी में आ रही समस्याओं के बारे में बताया। उन्होंने बताया कि यहां गेहूं, धान, हल्दी, अदरक, मंडुआ,आलू, प्याज, चौलाई, मटर, धनिया, राजमा, फलियां, बंदगोभी, मिर्च सबकुछ उगता है। पशुपालन भी होता है। दूध घरों में ही इस्तेमाल होता है। इस गांव की सबसे बड़ी दिक्कत पानी की कमी है, जिसको जुटाने में काफी समय लग जाता है। उनका पुत्र जगमोहन शेफ है और केरल के एक होटल में सेवाएं दे रहा है।
मरोड़ गांव के हुकुम सिंह खेतीबाड़ी करते हैं। कहते हैं खेती पर ज्यादा निर्भर नहीं रह सकते। इसलिए देहरादून के एक होटल में जॉब करते हैं।
हमें किसान चंदन सिंह मिले, जो पत्नी और बच्चों के साथ मटर की बुआई में व्यस्त थे। बताते हैं कि यहां बारिश के तीन महीने की फसल है। कुल मिलाकर खेतीबाड़ी बहुत मेहनत का काम है, पर इस में लाभ मिलेगा या नुकसान, यह सब ऊपरवाले के हाथ में है।
वरिष्ठ पत्रकार योगेश राणा कहते हैं कि किसान मेहनत करके फसल उगाता है, पर उसको इसका रेट तय करने का अधिकार नहीं है। उनसे बाजार रेट से लगभग आधी कीमत में उपज खरीदी जाती है। टिहरी के इस इलाके में किसान, जिन चुनौतियों का सामना कर रहा है, उस हिसाब से उनको कुछ हासिल नहीं होता। यह बात सही है कि अगर किसान अपने श्रम का हिसाब भी जोड़ लें तो उपज की लागत लगभग दोगुनी हो जाती है, जिसका लगभग आधा ही उनको मिलता है।
” किसान को मंडी के प्रतिदिन के रेट की जानकारी एसएमएस के माध्यम से मिलनी चाहिए। संभव हो सके तो सिंचाई की व्यवस्था हो। वर्षा आधारित क्षेत्रों में खेती के अन्य लाभकारी विकल्पों पर भी विचार करना चाहिए। सरकार का तंत्र किसान को अकेला कैसे छोड़ सकता है। यह बड़े अचरज की बात है कि यहां किसानों को कृषि कार्ड के अलावा उनके लिए बनाई किसी अन्य योजना की जानकारी नहीं है। इसका मतलब है कि संबंधित विभाग किसानों के संपर्क में ही नहीं है”, वरिष्ठ पत्रकार योगेश राणा कहते हैं।
हमारी यह यात्रा जारी रहेगी। अगली किस्त जल्द ही…
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