Blog Livecurrent AffairsFeaturedWomen

महिलाओं से मेहनत कराने वाली कहावत, “ऊन कातने वाले लड़के की लाड़ी भाग जाती है…”

धारचिड़ी ने घड़ी की सुई की तरह काम करती महिलाओं की कहानियां उकेरी है गरडू पर

राजेश पांडेय। न्यूज लाइव

हिमाचल प्रदेश में गद्दी समुदाय भेड़ की ऊन से कंबल बनाता है, जिसे स्थानीय बोली में गरडू कहा जाता है। गरडू बनाने के लिए ऊन कातने का काम सिर्फ महिलाएं ही करती हैं। पुरुषों को यह काम इसलिए नहीं दिया जाता, क्योंकि यहां एक कहावत, “लड़के ने ऊन काती तो उसकी लाड़ी भाग जाएगी” बहुत मशहूर है। सवाल उठता है कि क्या महिलाओं पर श्रम का बोझ बढ़ाने के लिए इस कहावत का सहारा लिया गया है या फिर यह बात हकीकत के बहुत करीब है या फिर एकदम झूठ। क्या वर्षों से चली आ रही इस बात को इसलिए आगे बढ़ाया जाता रहा है कि पुरुषों को महिलाओं का हाथ बंटाने के काम से निजात मिल जाए।

हिमाचल की आठ युवतियों के समूह- धारचिड़ी ने कंबल पर घास ले जाती महिला का चित्र प्रदर्शित किया है, जो उन बहुत सारी मेहनतकश महिलाओं का प्रतिनिधित्व करता है, जो घड़ी की सुई की तरह परिश्रम करती हैं। इस पर मौजूद कपड़े और ऊन के पैबंद (Patch) बहुत सारी महिलाओं की कहानियां दर्शाते हैं। पीठ पर कार्यबोझ की टोकरी लेकर कदम बढ़ाती हुई महिला पैरों से लेकर सिर तक जिम्मेदारियों को ढोती दिखती है।

” महिलाओं की पीड़ा, उनकी प्रतिक्रिया, तनाव, सहनशीलता और योगदान को सामने लाने के लिए कई कहानियां समेटे यह चित्र खासतौर पर गरडी (गरडू का एक हिस्सा) पर इसलिए उकेरा गया है, क्योंकि इस महत्वपूर्ण वस्त्र को बनाने में छह माह से अधिक लगते हैं, पर इसमें महिलाओं के योगदान की बात नहीं होती”, ऋषिकेश से करीब 20 किमी. दूर गंगाभोगपुर में गुर्जर समुदाय के एक सम्मेलन में महिलाओं से संवाद में धारचिड़ी की सदस्य मनीषा और अदिति बताती हैं। यह सम्मेलन वन गुर्जर समाज, वन गुर्जर ट्राइबल युवा संगठन ने आयोजित किया था।

वो बताते हैं, गरडी पर बनी घास ले जाती महिला का यह चित्र, पहाड़ की महिला की कहानी को सामने लाने के लिए हमारी एक कोशिश है। घास के भार की तरह ही पहाड़ की महिला के कंधों पर समाज और दिनचर्या का भार टिका है, जिसे वह बिना किसी को बताए-जताए चुपचाप ढोती रहती है। महिला की तरह गरडी की कहानी भी हमारी बातों का हिस्सा नहीं बनती। गरडू बनाने का कौशल, कला और ज्ञान हमेशा मौखिक मुँहजुबानी पास होता रहा है, यह किसी जगह लिखा नहीं होता, कहीं सिखाया नहीं जाता। स्कूलों में पढ़ाया नहीं जाता, इसकी कोई किताब नहीं होती है। बदलते समय में बढ़ते बाहरी दबावों के कारण जब गरडी हमारे जीवन से ओझल होती जा रही है और इसमें लोगों की रुचि खत्म होने लगी है, तब यह जरूरी है कि हम इसकी कहानी और इससे जुड़े समुदाय व पहाड़ की महिलाओं की कहानी को फिर से जानें।

गरडू पर लगे एक पैबंद में एक महिला ऊन कातती नजर आती है और पास ही लिखा है, “लड़के ने ऊन काती तो उसकी लाड़ी भाग जाएगी।” लाड़ी का मतलब पत्नी से है। इस कहावत पर चर्चा करते हुए धारचिड़ी की सदस्य मनीषा हिमाचल के एक गांव का जिक्र करती हैं, “उधर, माना जाता है कि ऊन कातने का काम महिलाओं की ही जिम्मेदारी है। महिलाओं के हाथ से यह काम नहीं जाना चाहिए, इसलिए ऐसा कहा जाता है। यह कहावत सच नहीं है।”

हिमाचल के गद्दी समुदाय की महिलाओं द्वारा बनाए गए कंबल (गरडू) पर पैबंद लगाकर उकेरा गया चित्र महिलाओं के श्रम की बहुत सारी कहानियां प्रस्तुत करता है। फोटो- राजेश पांडेय

मनीषा बताती हैं, ” इस कंबल को बनाने के लिए बहुत सारे काम हाथों से होते हैं, इसलिए इसमें छह माह लगते हैं। पर महिलाओं के काम नजर नहीं आते। उन्होंने चित्र में महिला के चेहरे को लाल रंग से प्रदर्शित किया है, इसकी वजह है महिलाओं पर तमाम जिम्मेदारियां हैं, जो तनाव के रूप में उनके चेहरे पर दिखती हैं।”

उनकी बात को आगे बढ़ाते हैं अदिति कहती हैं, “ऊन को सॉफ्ट करने के लिए गरम पानी में रखा जाता है। पानी गरम करना इस प्रक्रिया का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है, लेकिन इस पर बहुत ज्यादा बात नहीं होती, क्योंकि यह जिम्मेदारी महिलाओं की है। पानी गरम करने लिए आग चाहिए, आग जलाने के लिए लकड़ियां चाहिए। लकड़ियां कौन लाता है, आग कौन जलाता है, इस श्रम का मूल्यांकन नहीं होता। इसलिए हमने चेहरे को आग के प्रतीकात्मक रूप में दिखाया है।”

महिलाओं का श्रम और काम कहीं नजर नहीं आते

धारचिड़ी की प्रदर्शनी के एक लेख में बताया गया है, महिलाओं को अपनी पीठ पर भार लिए चलते हम सबने देखा है। पीठ-कमर पर लदा यह भारी ढेर- कभी घास का भार होता है, तो कभी लकड़ी का गट्ठर, तो कभी कच्ची ऊन से भरा बोरू। इस कच्ची ऊन को घरों में लोग खुद तैयार करते हैं। इससे महिलाएं घरों में ऊनी गरम वस्त्र बनाती हैं। लेकिन ऊन से भरे बोरू लिए, आखिर यह महिलाएं कहाँ जा रही होती हैं?

धारचिड़ी के अनुसार, बातचीत करने पर पता चलता है कि यह ऊन लेकर वो पास के शहर में ऊन के कारखानों की ओर जा रही होती हैं, जहाँ इस ऊन की सफाई करके उसे कातने लायक बनाया जाता है। हालांकि, पहले के समय में महिलाएं यह कार्य घरों में ही लकड़ियों की कंघी से करती थीं, लेकिन अब मशीन ने इसकी जगह ली है। यह सब सुनने जानने पर समझ आता है कि ऊनी वस्त्रों को बनाने का काम सिर्फ़ खड्डी चलाने या कारखाने में होने वाले तकनीकी कार्य तक सीमित नहीं होता है।

वो बताते हैं, गरडी-गरडू किसी एक सरल, कम समय में होने वाली प्रक्रिया से नहीं बनता, बल्कि इसमें कई छोटी बड़ी, कुछ सरल, कुछ पेचीदा प्रक्रियाएं शामिल होती हैं। यह प्रक्रियाएं समय, धैर्य, ध्यान, बारीकी, तकनीकी कौशल पर आधारित होती हैं। गरडी बनने में कई मौसमों की धुन शामिल होती है। गरडी बनने की प्रक्रिया तो भेड़ों को ऊंची-ऊंची, दूर तक फैली धारों में चराने से शुरू हो जाती है। जहाँ एक ओर गरड़ी से जुड़ी यह सारी जानकारी और प्रक्रियाएं न कहीं लिखी होती है, न ही लोगों को इनके बारे में पता होता है। वहीं दूसरी ओर इन प्रक्रियाओं से जुड़े कई सहायक काम, जिन्हें मुख्य रूप से महिलाओं द्वारा किया जाता है, वो अदृश्य रह जाते हैं, जैसे पानी भर के लाना, लकड़ी लाना, चूल्हा जलाना, ऊनी धागों से गोले बनाना, सिलना, कपड़े धोना आदि |

इस प्रक्रिया में पहले बच्चों की भी अलग-अलग भूमिकाएं होती थी और पुरुषों के भी कार्य तय होते थे, लेकिन बारीकी से जानने पर पता चलता है कि श्रम के आधार पर महिलाओं के काम और मेहनत सबसे अधिक होते हैं। फिर भी गरडू-गरडी की चर्चा में पहाड़ की महिलाएं अदृश्य होती हैं, और उनका योगदान कभी दर्ज नहीं किया जाता है। महिलाओं को अक्सर किसी भी तरह की जानकारी या ज्ञान का स्रोत नहीं समझा जाता है, ना ही उन्हें कभी पुरुषों की तरह रचनाकार या कारीगर की पहचान दी जाती है।

आखिर क्या ही कमांदी मैं?

प्रदर्शनी में एक महिला के श्रम और उनकी दिनचर्या पर केंद्रित करता लेख प्रदर्शित किया गया, जिसमें कहा गया- यदि हम अपने आसपास नज़र दौड़ाएं या अपनी दिनचर्या को याद करें तो हम देखेंगे कि समाज का हर सदस्य किसी न किसी रूप में अलग-अलग प्रकार से श्रम कर रहा है, लेकिन बारीकी से देखने पर मालूम होता है कि सबके द्वारा श्रम किए जाने के बावजूद कुछ लोगों के श्रम को ही श्रम माना जाता है। समाज के कई सदस्यों के श्रम को या तो श्रम नहीं माना जाता या फिर ज़िम्मेदारी, कर्म-धर्म, कर्तव्य का नाम दे दिया जाता है।

जब पहाड़ की एक महिला पूरे दिन का काम करके रात को चाय पीते-पीते कहती है ‘हाइबो, थकी गयी आज ता कमाई-कमाई ” तो अक्सर उसके घर परिवार से ही कोई सवाल करता है, क्या कमांदी पूरा दिन जेड़ा थकी गई। ऐसे में अक्सर वो महिला खुद से सवाल करती है कि “आख़िर क्या ही कमांदी मैं?”

महिला घड़ी की सुई सा हरदम काम करती रहती है, लेकिन अपने दिनभर के श्रम को वो रोज का काम कहकर अक्सर हंसकर दूसरे काम में लग जाती है। यह बातें हमें सोचने पर मजबूर करती हैं कि क्या महिलाओं द्वारा किया गया काम श्रम नहीं होता? क्यों महिला के श्रम को समाज में समान नज़र से नहीं देखा जाता? क्या कभी हमने अपने आसपास मौजूद महिलाओं के श्रम को देखने, जानने और महसूस करने की कोशिश की है?

पौड़ी गढ़वाल के गंगाभोगपुर क्षेत्र में आयोजित सम्मेलन में धारचीड़ी समूह की सदस्य मनीषा ने महिलाओं की मेहनत को रेखांकित करने वाला चित्र प्रदर्शित किया। फोटो- राजेश पांडेय

ज्यादातर महिलाओं द्वारा किए गए कार्यों, जिन्हें घरेलू कार्यों में गिना जाता है, उसका कोई वेतन नहीं मिलता। ऐसे में अक्सर सवाल उठता है कि क्या श्रम का रिश्ता सिर्फ वेतन से है? श्रम क्या सिर्फ शारीरिक या मानसिक है? क्योंकि महिलाओं द्वारा किए गए कार्यों में एक बहुत बड़ा अंश है भावनात्मक श्रम का, जिसे हम देखभाल के रूप में जानते हैं। गरडू की कहानी को नजदीक से जानने पर हमें गद्दी व पहाड़ की महिलाओं का श्रम, कौशल, कला की अदृश्य कहानी जानने को मिलती है। तस्वीरों के इस ताने बाने के माध्यम से हम महिलाओं के श्रम को वापस दृश्य में लाना चाहते हैं।

धारचिड़ी का मतलब- हिमालय में रहने वाली गौरेया

धारचिड़ी के बारे में मनीषा ने बताया, हिमालय में रहने वाली गौरैया को पहाड़ की बोली में धारचिड़ी  कहते हैं। धार और चिड़ी शब्दों से बुना यह नाम पहाड़ और पक्षियों से प्रेरित है। यह समूह करीब डेढ़ साल पहले बनाया था। महिलाओं के योगदान और उनकी मेहनत को बताने के लिए पांच-छह जगहों पर प्रदर्शनी लगाई हैं। हम महिलाओं से उनके मुद्दों पर बात करते हैं। महिलाओं की मेहनत पर बात होनी चाहिए। उनके श्रम का मूल्यांकन होना चाहिए।

गरडू सिर्फ वस्त्र नहीं, बल्कि पहचान का प्रतीक है

प्रदर्शनी में प्रस्तुत एक लेख में पहाड़ा दा लाण का जिक्र करते हुए बताया गया है, हम सबने कभी न कभी पहाड़ों व पहाड़ की सड़कों पर चलते भेड़-बकरियों (माल/धण) के झुंड को देखा है। अक्सर इन माल/धण के साथ, पीठ पर बोझा उठाए, अलग से दिखने वाले ऊनी वस्त्रों में ढंके, कुछ पुरुष या कोई परिवार हमें चलते दिखाई देते हैं। इन्हें देखकर मन में अक्सर सवाल उठता है कि कौन हैं ये लोग, कहाँ से आते हैं, कहाँ जाते हैं? इनके वस्त्र कहाँ बनते-मिलते हैं? क्यों बाजार में कभी यह वस्त्र दिखाई नहीं देते?

यह लोग हिमाचल पर्वतीय  क्षेत्र के गद्दी समुदाय से आते हैं। परम्परागत रूप से गद्दी समुदाय का जीवन घुमंतू पशुपालन पर आधारित और इनकी जीवनशैली प्रकृति के साथ बुनी रही है। इन लोगों का ज्यादातर समय माल/धण के साथ ऊंची-ऊंची धारों पर चलते सफर करते, घास चराते बीतता है। धूप, सर्दी, हवा, हर मौसम में इनके शरीर को ढंकता ये वस्त्र गरडू कहलाता है।

पहाड़ा दा लाण का अर्थ है, पहाड़ के लोगों द्वारा ओढ़े जाने वाला ऊनी वस्त्र | गरडू हमारे लिए सिर्फ एक वस्त्र नहीं बल्कि पहचान का प्रतीक है। यह हमारी भावनाओं का, जीवित अनुभवों का, पर्यावरण आधारित जीवनशैली का, एक टिकाऊ अर्थव्यवस्था का, श्रम, ज्ञान, कला और कौशल आदि का प्रतीक है।

गरडू एक ऊनी वस्त्र है जिसे परंपरागत रूप से गद्दी लोगों, विशेषकर महिलाओं द्वारा घर पर ही बनाया जाता है। इसके अलग-अलग रूप, आकार और उपयोग के अनुसार कई प्रकार मौजूद हैं, जैसे गरडी, पट्टू, चादर, लांघ आदि।

धारचिड़ी की सदस्य बताती हैं, बीते कुछ समय से गद्दी समुदाय की कहानियां और कला गायब होती जा रही है, बाजारीकरण, आधुनिकता व अन्य बाहरी प्रभावों व दबावों के चलते इनकी जीवनशैली में निरंतर बदलाव आ रहे हैं। आज बहुत ही कम गद्दी समुदाय के लोग घुमंतू पशुपालन कर रहे हैं, जिसके चलते गरडू भी अदृश्य होता जा रहा है। हमारी कोशिश है कि इस कला प्रदर्शनी के माध्यम से हम गरडू की कला और कहानियों को हम सबके बीच वापस ला पाएं।

हमसे संपर्क कर सकते हैं-

यूट्यूब चैनल- डुगडुगी, फेसबुक- राजेश पांडेय

 

ई बुक के लिए इस विज्ञापन पर क्लिक करें

Rajesh Pandey

उत्तराखंड के देहरादून जिला अंतर्गत डोईवाला नगर पालिका का रहने वाला हूं। 1996 से पत्रकारिता का छात्र हूं। हर दिन कुछ नया सीखने की कोशिश आज भी जारी है। लगभग 20 साल हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। बच्चों सहित हर आयु वर्ग के लिए सौ से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। स्कूलों एवं संस्थाओं के माध्यम से बच्चों के बीच जाकर उनको कहानियां सुनाने का सिलसिला आज भी जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। रुद्रप्रयाग के खड़पतियाखाल स्थित मानव भारती संस्था की पहल सामुदायिक रेडियो ‘रेडियो केदार’ के लिए काम करने के दौरान पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाने का प्रयास किया। सामुदायिक जुड़ाव के लिए गांवों में जाकर लोगों से संवाद करना, विभिन्न मुद्दों पर उनको जागरूक करना, कुछ अपनी कहना और बहुत सारी बातें उनकी सुनना अच्छा लगता है। ऋषिकेश में महिला कीर्तन मंडलियों के माध्यम के स्वच्छता का संदेश देने की पहल की। छह माह ढालवाला, जिला टिहरी गढ़वाल स्थित रेडियो ऋषिकेश में सेवाएं प्रदान कीं। बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहता हूं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता: बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी संपर्क कर सकते हैं: प्रेमनगर बाजार, डोईवाला जिला- देहरादून, उत्तराखंड-248140 राजेश पांडेय Email: rajeshpandeydw@gmail.com Phone: +91 9760097344

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button

Adblock Detected

Please consider supporting us by disabling your ad blocker