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गन्ने में मिठास भरने के लिए दिनभर धूप में तपते किसान और श्रमिक

कृषि श्रमिक महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले नहीं मिल पाता पर्याप्त पारिश्रमिक

राजेश पांडेय। न्यूज लाइव

मार्च की कड़ी धूप सहते हुए धर्मूचक गांव की प्रेमवती गन्ने की बुआई कर रही हैं। लगभग छह बीघा खेत में उनके साथ नौ श्रमिक, जिनमें छह महिलाएं और तीन पुरुष शामिल हैं, भी गन्ना बो रहे हैं। उनको सुबह आठ से शाम पांच बजे तक खेत में रहना पड़ता है। वर्षों से खेतों में मेहनत कर रहीं 65 साल की प्रेमवती का काम बीज के लिए काटे गए टुकड़ों को इकट्ठा करके श्रमिकों को देना है। श्रमिक इन टुकड़ों को खेत में बनाई गईं लगभग आधा फीट गहरी क्यारियों में बो रहे हैं। गन्ना बोने का एक खास तरीका है, जो हर किसी के बस की बात नहीं है, हालांकि श्रमिक बड़ी आसानी से यह काम कर रहे हैं, क्योंकि यह उनका रोजाना का काम है।

देहरादून के धर्मूचक गांव में मार्च की तपती दोपहरी में गन्ना बुआई करतीं प्रेमवती, 65 वर्षीय प्रेमवती को कृषि कार्यों का वर्षों का अनुभव है। फोटो- राजेश पांडेय

गन्ने की बसंतकालीन बुआई के लिए मार्च का महीना सबसे अच्छा माना जाता है, पर भरी दोपहरी खेतों में काम करना आसान नहीं है। प्रेमवती बताती हैं, उनको सरकार से पेंशन मिलती है, पर उससे गुजारा नहीं होता। इसलिए उनको खेतों में काम करना पड़ता है। खेत में छाया कहां मिलेगी, यहां तो धूप में ही दिन गुजारना होता है। उन सभी ने आपस में काम बांटे हैं। उनका काम गन्ने के टुकड़ों को इकट्ठा करके देना है, ताकि इनको बोया जा सके।

आइए गन्ने की खेती में श्रम पर बात करें

गन्ने से चीनी बनाई जाती है और चीनी से मिठास वाले पकवान बनते हैं। सुबह की चाय से लेकर हर पर्व-त्योहार, खुशी के मौके पर बंटने वाली मिठाइयां भी चीनी से बनती हैं। पर, क्या हमने कभी सोचा है कि गन्ना कैसे उगता है। खेतों में गन्ना उगाने वाले किसानों और श्रमिकों के सामने क्या चुनौतियां पेश आती हैं। गन्ने से चीनी के अलावा और क्या-क्या मिलता है, यह आजीविका का कितना बड़ा जरिया है। इन सभी बातों को जानने के लिए हम खेतों की तरफ निकले, जहां हमने उन श्रमिकों से बात की, जो गन्ना बो रहे थे। हमने उन किसानों से भी बात की, जो गन्ना उगाते हैं।

देहरादून के डोईवाला ब्लाक स्थित धर्मूचक गांव में गन्ने की बुवाई करती महिलाएं। फोटो- राजेश पांडेय
श्रम को देखते हुए महिलाओं की दिहाड़ी काफी कम

” दिहाड़ी कम होने पर घर-परिवार चलाना मुश्किल हो जाता है। सुबह आठ से शाम छह बजे तक खेतों में काम करना होता है। दिन में एक घंटे का समय खाने के लिए मिलता है। मुझे प्रतिदिन 250 रुपये मिलते है, महंगाई को देखते हुए यह राशि काफी कम है। गन्ना बुआई का काम एक या दो महीने का ही होता है। इसके बाद गेहूं काटे जाएंगे। तेज धूप में काम करने से ब्लड प्रेशर हाई या लो होने की शिकायत हो जाती है। लोग बीमार भी हो जाते हैं। हमारे खानपान में कुछ विशेष नहीं है, सामान्य खाना- दाल-चावल, सब्जी रोटी है,” एक महिला श्रमिक हमें बताती हैं।

धर्मूचक गांव स्थित खेत में लंच टाइम में भोजन के बाद कुछ देर आराम करते श्रमिक। फोटो- राजेश पांडेय

वहीं, बुल्लावाला गांव स्थित खेत में गन्ना बुआई कर रहीं साक्षी कांबोज बताती हैं, महिलाओं का प्रतिदिन 300 रुपये पारिश्रमिक निर्धारित है, जो कम है, जबकि पुरुषों को ज्यादा पारिश्रमिक 450 रुपये प्रतिदिन मिलता है, जबकि महिलाएं भी उनके बराबर मेहनत करती हैं। यह जरूर है कि महिलाओं से गन्ने की पुली (भारी बोझा) नहीं उठवाया जाता। वो सुबह आठ बजे आते हैं और शाम को छह बजे घर जाते हैं। मेहनत के हिसाब से पैसे कम मिलते हैं। महिलाओं को दस घंटे खेतों में श्रम करने के बाद घर के कामकाज भी निपटाने होते हैं। पशुपालन भी है।  साक्षी के अनुसार, कृषि में काम की कमी नहीं है। इसके बाद धान कटाई, गन्ने की निराई, गुड़ाई, बरसात में धान की रोपाई का काम है। बरसात के बाद काम कम हो जाता है। पशुओं का चारा तो वर्षभर जुटाना होता है।

बुल्लावाला गांव में युवा प्रशांत गन्ने की बुवाई के बाद उसकी क्यारियों में खाद डालते हुए। फोटो- सार्थक पांडेय

बुल्लावाला के ही एक खेत में गन्ना बोने के बाद खाद डाल रहे युवा प्रशांत कांबोज कहते हैं, महिलाओं को भी पुरुषों के समान दिहाड़ी मिलनी चाहिए, क्योंकि वो भी बराबर का कार्य करती हैं। वो सरकार और श्रम विभाग से गांवों में महिलाओं को समान पारिश्रमिक और रोजगार की व्यवस्था की मांग करते हैं। प्रशांत कहते हैं, किसानों और श्रमिकों को एक महत्वपूर्ण सावधानी बरतनी चाहिए, उनको खेतों में खाद डालते समय मास्क का इस्तेमाल करना चाहिए। इस समय एक तो तेज धूप हो रही है और ऊपर से कैमिकल वाली खाद से चक्कर आने लगते हैं। सरकार को कृषकों एवं श्रमिकों की सुरक्षा के उपायों पर ध्यान देना चाहिए। इस तरह के उपायों पर काम हो, जिससे खेतीबाड़ी में मुश्किलें कम हो जाएं।

बीज में मौजूद आंखों से अंकुरित होते हैं पौधे
बुआई करते हुए क्यारियों में इस तरह डाला जाता गन्ना। फोटो- सार्थक पांडेय

प्रशांत, गन्ने की बुआई में खास सावधानी बताते हैं, बीज वाले गन्ने की पत्तियों को दरांती की बजाय हाथ से हटाया जाता है, जिससे गन्ने की पोरियों में मौजूद आंखें सुरक्षित रहें, क्योंकि बोने के बाद इन्हीं आंखों से पौधों का अंकुरण होता है। आंखें टूटने का मतलब गन्ना बीज के लायक नहीं रहा।

बुल्लावाला के किसान संजय शर्मा ने लगभग 25 बीघा में गन्ना बोया है। बताते हैं, खेत में खड़े गन्ने को बीज के लिए चिह्नित किया जाता है। बीज वाले गन्ने में किसी भी तरह का रोग नहीं होना चाहिए। जिस गन्ने में कोई छेद, लाल रंग की धारियां, सड़ापन या बीमारी दिखे, उसे अलग कर देते हैं। पूरी तरह स्वस्थ गन्ना ही बीज के लिए चयनित होता है। कई बार ऐसा भी होता है कि गन्ने का जड़ के पास वाला हिस्सा खराब है, तो अगोला वाला हिस्सा बीज के लिए चुन लेते हैं, जिसमें अमूमन खराबी नहीं होती। उन्होंने एक ढेर में से कुछ गन्ने निकालकर उनमें मौजूद कमियों की ओर ध्यान दिलाते हुए कहा, इनको बीज में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।

धर्मूचक में श्रमिक नारायण सिंह लगभग 20 साल से खेतों में काम कर रहे हैं। बताते हैं, एक सीजन में लगभग डेढ़ सौ बीघा खेत में गन्ना बुआई कर लेते हैं। उनके अनुसार, जिस खेत में वो काम कर रहे हैं, छह बीघा का है। दस लोग मिलकर तीन दिन में इस खेत में गन्ना बो देंगे। खेती में काम मिलता रहता है। बताते हैं, बीज वाले गन्ने को टुकड़ों में बांटने का भी एक तरीका है, एक पीस में तीन या चार पोरी रखी जाती हैं, हर पोरी की शुरुआत में एक आंख होती हैं।

” गन्ने की हर पोरी की शुरुआत कहो या अंतिम हिस्सा, में आंखें होती है। जब हम गन्ने के टुकड़े को खेत में बोते हैं, तब इसकी प्रत्येक पोरी की कम से कम से एक आंख ऊपर की तरह होती है, जिससे अंकुरित होने वाला पौधा मिट्टी से बाहर निकलता है। इसलिए गन्ने के टुकड़ों को खेतों में बनी क्यारियों में इस तरह डालते हैं, ताकि अधिक से अधिक आंखें ऊपर की ओर हो जाएं। डेढ़ टुकड़ा यानी दो टुकड़ों की जगह पर तीन टुकड़े डाले जाते हैं, ताकि खेत का कोई भी हिस्सा ऐसा न हो, जहां पौध न उगे,” बीज वाला गन्ना दिखाते हुए कास्तकार संजय शर्मा बताते हैं।

देहरादून के बुल्लावाला गांव में किसान संजय शर्मा गन्ने के बीज में आंख की उपयोगिता की जानकारी दी। फोटो- राजेश पांडेय
85 फीसदी खेती रसगुल्ला प्रजाति के गन्ने की

उत्तराखंड के देहरादून जिला स्थित डोईवाला क्षेत्र में अधिकतर किसान गन्ने की 88230 किस्म लगा रहे हैं। इस किस्म को सामान्य बोलचाल में रसगुल्ला कहते हैं। रसगुल्ला इसलिए, क्योंकि इसमें भरपूर रस होता है। उत्तराखंड में 85 फीसदी खेती इसी प्रजाति की होती है। यहां कई खेतों में किसान गेहूं की लहलहाती फसल के बीच में भी गन्ना बो रहे हैं, जिसको मिश्रित खेती कहा जाता है।

खेत में बुआई के लिए गन्ने के बीज ले जाते हुए नारायण सिंह। फोटो- राजेश पांडेय
बड़ी आबादी की आजीविका का जरिया है गन्ना

धर्मूचक और बुल्लावाला उत्तराखंड के देहरादून जिले की डोईवाला विधानसभा के गांव हैं, जो डोईवाला नगर पालिका स्थित चीनी मिल से लगभग छह-सात किमी. दूर हैं। वर्षों पुरानी चीनी मिल की वजह से पूरे देहरादून जिला के साथ ही हिमाचल प्रदेश के पांवटा साहिब से भी यहां गन्ना पहुंचता है।

गन्ना किसान देहरादून और डोईवाला से संचालित दो सहकारी गन्ना विकास समितियों के माध्यम से चीनी मिल से जुड़े हैं। देहरादून जिले में नौ हजार से ज्यादा किसान 4352.62 हेक्टेयर में गन्ने की खेती करते हैं और इन समितियों के माध्यम से चीनी मिल को गन्ना पहुंचाते हैं। गन्ना मूल्य भुगतान भी यही समितियां कराती हैं। यानी, समितियां किसानों और चीनी मिल के बीच समन्वय का कार्य करती हैं। किसानों को फसल के लिए दवा, खाद उपलब्ध कराना भी समितियों की जिम्मेदारी है।

डोईवाला स्थित सहकारी गन्ना विकास समिति का भवन। फोटो- राजेश पांडेय

डोईवाला सहकारी गन्ना विकास समिति से लगभग साढ़े आठ हजार किसान जुड़े हैं, जिनमें साढ़े पांच हजार ही सक्रिय बताए जाते हैं, जो 2701.781 हेक्टेअर में गन्ना उगाते हैं। वहीं देहरादून समिति से जुड़े लगभग साढ़े तीन हजार किसान 1650.839 हेक्टेअर क्षेत्रफल में गन्ने की खेती करते हैं। किसान ही नहीं खेतों में काम रहे श्रमिक, पशुपालक, गन्ना विकास समितियों और चीनी उद्योग से जुड़े अधिकारी- कर्मचारी, व्यापारिक प्रतिष्ठान, परिवहन व्यवसायी, गन्ना उत्पादन से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर जुड़कर लाभान्वित हो रहे हैं।

एक बार बोने पर तीन उपज

बुल्लावाला गांव में किसान संजय शर्मा बताते हैं, वैसे तो गन्ना शरद ऋतु में भी लगाया जाता है। मार्च की बुआई को बसंतकालीन बुआई कहा जाता है। एक बार बुआई के बाद गन्ने की तीन उपज ली जा सकेगी। यह एक साल में उपज देगा यानी एक साल बाद इसको चीनी मिल भेजा जाएगा। फिर अगले दो साल और फसल ले सकेंगे। इस साल बोने में बुआई की लागत अतिरिक्त लगेगी, बाकि मेहनत और खरपतवार निकालने, खाद, पानी, दवाइयों का काम तीनों साल चलता रहेगा। कुल मिलाकर इससे अंतिम फसल दिसंबर 2024 तक मिलेगी।

देहरादून जिला के बुल्लावाला गांव में गन्ने की बुआई करते ग्रामीण । फोटो- सार्थक पांडेय

वो बताते हैं, गन्ने की देखभाल में काफी सावधानियों की आवश्यकता होती है। सामान्य शब्दों में कहा जाए तो गन्ना लागत के बराबर ही लाभ पहुंचाने की फसल है। एक बीघा में गन्ना लगाने की लागत सात हजार रुपये होगी, जिसमें बीज की लागत और श्रम भी शामिल है। इस तरह आपको एक बीघा में लगभग 50 से 60 कुंतल गन्ना मिल सकेगा, जिसका मूल्य लागत से दोगुना या थोड़ा बहुत ज्यादा होगा। यदि आपके पास गन्ना ज्यादा एरिया में लगाया गया है तो फिर लाभ भी ज्यादा होगा। दूसरे और तीसरे वर्ष में इसका लाभ बढ़ेगा, इसलिए गन्ना उत्पादन यहां आजीविका का बड़ा स्रोत है, क्योंकि इससे किसान ही नहीं, कृषि श्रमिकों को भी काम मिलता रहता है। पशुपालकों के लिए चारा भी उपलब्ध होता है।

बुआई से पहले और बाद की मेहनत

बुआई से पहले खेत को तैयार किया जाता है। मिट्टी को परीक्षण के लिए प्रयोगशाला भेजा जाता है, जिससे मिट्टी में पोषक तत्वों के बारे में पता चलता है। इसी के अनुसार खाद एवं उर्वरक का प्रयोग किया जाता है। खेत में गन्ना लगाने के लिए क्यारियां बनाई जाती हैं। मिश्रित खेती के तहत इन दिनों गेहूं की फसल के साथ गन्ना बोया जा रहा है। गन्ने का बीज खेतों में खड़ी फसल से ही लिया जाता है। इन दिनों जहां एक ओर खेतों में गन्ना खड़ा है, वहीं उसकी बुआई भी चल रही है। खेतों से गन्ना काटकर चीनी मिल भेजा जा रहा है। वहीं, इसी फसल में से बीज के लिए भी गन्ना तलाशा जा रहा है।

शर्मा बताते हैं, खेत में नमी होनी चाहिए, जिसके लिए पानी लगाते हैं। गन्ना बोने के लिए खेत में एक से डेढ़ फीट गहराई तक जुताई होनी चाहिए। मिट्टी बारीक हो जानी चाहिए। मिट्टी का परीक्षण होता है। हमारे खेतों में जिंक की कमी पाई जाती है।

धर्मूचक निवासी किसान धीर सिंह। फोटो-राजेश पांडेय

धर्मूचक में किसान धीर सिंह बताते हैं, गन्ने की बुआई से पहले खेत की अच्छी तरह जुताई करते हैं। इसमें गोबर की खाद डाली जाती है, जिसका अनुपात एक बीघा खेत में एक ट्राली खाद का होता है। इसके बाद एक बार फिर जुताई होती है, ताकि खाद अच्छी तरह मिट्टी में मिल जाए। इसके बाद बैलों की मदद से खेत में नर्सरी बनाई जाती हैं। गन्ना बुआई के बाद खेत में यूरिया डाला जाता है। नीम की        खली भी इस्तेमाल करते हैं। जब गन्ना उग जाता है, तब खेत की निराई-गुड़ाई होती है। गन्ने से खरपतवार निकालने का काम तो चलता रहता है।

देहरादून के धर्मूचक गांव में गन्ने की बुवाई से पहले खेत में गोबर की खाद डाली जा रही है। फोटो- राजेश पांडेय
गन्ने से चीनी ही नहीं बहुत कुछ बनता है

सिमलास ग्रांट में खेती करने वाले गन्ना किसान उमेद बोरा बताते हैं, गन्ने से चीनी ही नहीं, बल्कि बहुत सारे उत्पाद तैयार होते हैं। चीनी मिल में गन्ने से चीनी, कोल्हू पर गुड़-शक्कर तैयार होते हैं। बाजार में आपको गन्ने के रस के स्टाल मिल जाएंगे, जिनको नींबू, हरा पुदीना मिलाकर गर्मियों में लोग बड़े चाव से पीते हैं। यह स्वरोजगार का जरिया है।

डोईवाला चीनी मिल का गेट। फोटो- राजेश पांडेय

मिल में चीनी बनने के दौरान कई तरह उत्पाद, जैसे खोई ((Bagasse या बगास) निकलती है,जिसे कागज बनाने या फिर ईंधन के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। चीनी मिल से निकलने वाला शीरा एथानाल उत्पादन में काम आता है। यह डिस्टलरी को भी सप्लाई किया जाता है। मिलों से निकलने वाली मैली, जिसे प्रैस मड भी कहा जाता है, खेती के लिए फायदे वाली होती है, पर वही प्रैसमड खेती को फायदा पहुंचाती है, जिसमें गंधक यानी सल्फर की मात्रा हो।  इसमें नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश तथा पर्याप्त मात्रा में सल्फर, लोहा, तांबा आदि पोषक तत्व होते हैं।

गन्ना जैविक नहीं तो चीनी भी जैविक कहां से

जब गेहूं, धान सहित कुछ अन्य फसलें जैविक उगाने की बात हो रही है, तो उसमें गन्ना शामिल क्यों नहीं हो सकता। प्रगतिशील किसान उमेद बोरा बताते हैं, जब गन्ने की फसल जैविक नहीं होगी तो चीनी को जैविक कैसे कह सकते हैं। यदि किसान गन्ने की जैविक फसल उगाते भी हैं, तो वो फसल को कहां बेचेंगे। जैविक खेती में ज्यादा लागत आएगी और फिर चीनी मिल जैविक गन्ने के अधिक दाम नहीं देंगी। जैविक को भी सामान्य की तरह बेचना पड़ेगा, ऐसे में जैविक गन्ना की बात फिलहाल नहीं हो सकती।

सिमलास ग्रांट में गन्ना किसान उमेद बोरा। फोटो- राजेश पांडेय

वो बताते हैं, दूधली घाटी सहित तमाम गांवों में, जहां सिंचाई सुसवा नदी से होती है, में गन्ने के खेतों को प्रदूषित पानी से सींचना किसानों की मजबूरी है। सुसवा नदी में देहरादून शहर के बड़े नाले मिलते हैं, ऐसे में सुसवा से सिंचाई वाले खेतों में कैमिकल मुक्त उपज की बात नहीं की जा सकती।

उत्तराखंड में गन्ने की खेती और चीनी उत्पादन

उत्तराखंड पर्वतीय राज्य है, जिसके केवल चार जिलों हरिद्वार, देहरादून, ऊधमसिंहनगर और नैनीताल में ही गन्ने की खेती होती है। नैनीताल जिला में भी मैदानी हिस्से में गन्ना उगाया जाता है। उत्तराखंड के आर्थिक सर्वेक्षण 2020-21 में बताया गया है कि राज्य में कुल कृषि का नौ फीसदी गन्ना क्षेत्र है।

पर्वतीय क्षेत्र में गन्ना उत्पादन नहीं होता है। राज्य में कुल खेती का सबसे ज्यादा गेहूं 31 फीसदी, धान 23 फीसदी व मंडुआ दस फीसदी क्षेत्रफल में है। गन्ना चौथे नंबर की फसल है, जो कुल कृषि के मात्र नौ फीसदी क्षेत्रफल में उगाया जाता है। उत्तराखंड में सात चीनी मिल हैं। इनमें सहकारी व सार्वजनिक क्षेत्र की दो-दो तथा निजी क्षेत्र की तीन चीनी मिल हैं।

देहरादून के खत्ता गांव में गन्ने की तैयार फसल। फोटो- राजेश पांडेय

गन्ना क्षेत्रफल के हिसाब से सबसे आगे हरिद्वार, उसके बाद ऊधमसिंह नगर, फिर देहरादून और नैनीताल का नंबर आता है। राज्य में वर्ष 2020-21 में कुल गन्ना क्षेत्रफल 84088 हेक्टेयर है, जो कि प्रति वर्ष कम होता जा रहा है। वर्ष 2010-11 में 104860 हेक्टेयर था। पूरे राज्य में लगभग सवा लाख गन्ना किसान हैं।

देखिए – गन्ना विकास एवं चीनी उद्योग के आंकड़ें

Year Cane Area (Hec)  Cane Production (Lac. Ton) Yield (Lac. qtl)
2010-2011 104860 63.94 609.00
2011-2012 108817 64.06 588.60
2012-2013 112394 69.71 620.20
2013-2014 109927 62.69 574.00
2014-2015 98794 60.96 617.00
2015-2016 93066 56.76 610.00
2016-2017 84956 51.42 605.00
2017-2018 86053 59.81 695.00
2018-2019 92938 70.17 755.00
2019-2020 84930 69.90 823.00
2020-2021 84088 62.20 Tentative 823.00 Tentative

स्रोतः उत्तराखंड गन्ना विकास एवं चीनी उद्योग विभाग

देहरादून जिला के डोईवाला में चीनी मिल है, जिसकी प्रतिदिन की पेराई क्षमता 2500 टन गन्ना प्रतिदिन है, जिसने इस साल 15 फरवरी तक की रिपोर्ट के अनुसार, 16.28 लाख कुंतल गन्ना पेराई हो चुका है, जिससे 1.43 लाख कुंतल चीनी उत्पादन हुई है, यानी 8.91 फीसदी रिकवरी रेट है।

डोईवाला चीनी मिल में ट्रैक्टर से गन्ना ले जाते हुए किसान। फोटो- राजेश पांडेय

देखें तालिका-

गन्ना पेराई, चीनी उत्पादन और रिकवरी
पेरोई सत्र 2021-2022
दिनांक-15.02.2022
चीनी मिल पेराई क्षमता

टीसीडी- पेराई प्रतिदिन टन में

गन्ना पेराई

(लाख कुंतल में)

चीनी उत्पादन

(लाख कुंतल में)

रिकवरी
1 2 3 4 5 6
1 बाजपुर 4000 21.84 2.01 9.49
2 नादेही 2000 16.42 1.66 10.19
3 सितारगंज 2500 8.60 0.62 8.17
4 किच्छा 4000 24.09 2.37 9.98
5 डोईवाला 2500 16.28 1.43 8.91
6 लिब्बरहेड़ी 6250 45.96 4.57 10.16
7 इकबालपुर 5500 37.07 3.80 10.48
8 लक्सर 10000 76.47 7.79 10.53
कुल 36750 246.73 24.25 9.71

स्रोतः उत्तराखंड गन्ना विकास एवं चीनी उद्योग विभाग

वरिष्ठ पत्रकार नार्दर्न गैजेट के संपादक एसएमए काजमी का कहना है, कृषि विभाग को खेतों में काम करने वाले श्रमिकों का रिकार्ड रखना चाहिए, ताकि उनको समुचित पारिश्रमिक सहित विभिन्न सुविधाएं प्रदान की जा सकें। असंगठित क्षेत्रों में कार्य करने वाले श्रमिकों को चिह्नित करने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा, महिलाओं को पुरुषों से कम पारिश्रमिक दिया जाना लैंगिक समानता के नियम के विरुद्ध है, इसमें सरकारी स्तर पर अनिवार्य रूप से हस्तक्षेप होना चाहिए।

 

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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