animalsBlog LiveBusinessFeaturedUttarakhand
गायों को बचाने के लिए पुष्पा नेगी से कुछ सीखिए
मेरे एक मित्र ने कहा, अठूरवाला की पुष्पा नेगी, गायों पर बड़ा काम कर रही हैं। मेरा सीधा सवाल था, क्या वो डेयरी फार्मिंग कर रही हैं या फिर सड़कों पर बेसहारा घूमती गायों को पालती हैं। मित्र ने कहा, खुद ही जाकर देखो। मैंने पुष्पा नेगी से उनके कार्यों को देखने के लिए समय लिया।
वरिष्ठ पत्रकार योगेश राणा के साथ पुष्पा नेगी के आवास की ओर जाते हुए, मैं गोवंश के बारे में सोच रहा था। मुझे सड़क पर बेसहारा घूमती गायें दिखीं, उनके बछड़ों को भटकते हुए देखा। गायों और उनके वंश से जुड़ी हर घटना मेरी आंखों के सामने तैरने लगी। मैंने गायों के नाम पर कथाओं के बड़े पंडाल भी देखे हैं। गायों के नाम पर राजनीति करते भाषणों को भी सुना है।
मैंने सड़कों पर घायल गायों को अंतिम सांसें लेते हुए भी देखा है। मैंने वो दृश्य भी देखे हैं, जब गायों के झुंड को डंडों से पीटते हुए गली-मोहल्लों और खेतों से दौड़ाया जाता है। मैं खुद को यहां असहाय पाता हूं, क्योंकि हम पर आम व्यक्ति होने का टैग जो जड़ा है, या फिर हम यह सोचकर चुप्पी साध लेते हैं, हम क्या कर सकते हैं या ईश्वर को शायद यही मंजूर होगा। हमारे जैसे आम लोग, गायों पर राजनेताओं को कोसते हैं और यह उनकी जिम्मेदारी बताते हुए खुद को मना लेते हैं।
मैंने उन वीडियो को भी देखा है, जिसमें उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ गोवंश के बीच खड़े हैं। योगी भी खुश हैं और गाेवंश भी खुशी में झूम रहा है। यही कुछ सोचते हुए मैं आगे बढ़ रहा हूं।
आखिरकार, मैं पहुंच ही गया पुष्पा नेगी के आवास पर, जहां मेरी मुलाकात कुछ महिलाओं से हुई। पुष्पा नेगी ने बताया, वो मानती हैं कि गायें हमारे धर्म में सम्मानित हैं। गाय को मां का दर्जा प्राप्त है।
उन्होंने बताया कि, जो गायें दूध नहीं देतीं, जो गोवंश हमारे काम के नहीं हैं, उनको ऐसे ही सड़कों पर भटकने के लिए तो नहीं छोड़ सकते। हमें गोवंश को अपनी आर्थिक समृद्धि से जोड़ना होगा। इसमें केवल दूध या घी ही नहीं हैं, यहां गोबर, गोमूत्र भी हैं। गोबर से स्वरोजगार की सोच को बढ़ाना होगा।
पुष्पा बताती हैं, करीब एक गाय से शुरू डेयरी फार्मिंग में वर्तमान में 45 गोवंश हैं, जिनमें बछड़े-बछड़ियां भी शामिल हैं। दुग्ध उत्पादन के साथ ही, गोबर से दीये-मूर्तियां, सजावटी आइटम, कम्पोस्ट, फिनायल, उपले बनाए जा रहे हैं। यहां तक कि कस्बों, शहरों की डेयरियों की तरह, गायों को नहलाने या गोशाला में सफाई के बाद पानी को यूं ही नालियों में नहीं बहाया जाता, बल्कि इससे सब्जियों की क्यारियों की सिंचाई की जाती है।
पुष्पा के अनुसार, एक गाय जो दूध नहीं देती, पर प्रतिदिन करीब 150 से 200 रुपये तक खर्चा आता है, पर यही गाय हमें प्रतिदिन 500 रुपये के उत्पाद दे सकती है, यदि हम गोबर और गो मूत्र से उत्पाद तैयार करें।
”मैं तो साफ तौर पर यह मानती हूं कि गाय को हम नहीं पालते, बल्कि गाय हमें पालती है,” पुष्पा कहती हैं।
उनका कहना है कि पहले गांवों में आर्थिक तंगी नहीं आती थी, क्योंकि लोग गायों को पालते थे। दूध, घी, दही, मक्खन की कोई कमी नहीं होती थी। गोबर की खाद खेतों में डाली जाती थी। फसलों में रसायन नहीं होते थे। भोजन शुद्ध होता था, इस वजह से बीमारियां भी नहीं थीं। बैलों की मदद से खेती की जाती थी।
उन्होंने गोबर से दीये बनाने के उद्यम पर विस्तार से बात की। बताती हैं, सनातन संस्कृति में दीयों का महत्व है। हर घर में प्रतिदिन मिट्टी का दीया प्रज्ज्वलित किया जाता है। एक बार जलाए दीये को पुनः इस्तेमाल नहीं किया जाता। ऐसे में घरों में इस्तेमाल किए दीयों का ढेर लग जाता है। ये मिट्टी में पुनः नहीं घुल पाते। इनसे मिट्टी को नुकसान भी पहुंचता है। यहीं से गोबर के दीये बनाने के बारे में सोचा।
मैंने लगभग तीन माह तक कई लोगों और संस्थाओं के पास जाकर गाय के गोबर से दीये बनाने के बारे में जानना चाहा। काफी कोशिशों के बाद, हम गोबर के दीये बनाने में सफल हो पाए। इसके लिए गोबर को धूप में सूखा किया जाता है।
मशीन से इसको आटा की तरह महीन किया जाता है। इसको कुछ मुल्तानी मिट्टी, गोंद मिलाकर गूंथा जाता है। फिर मशीन से दीयों के रूप में ढाला जाता है। धूप में सुखाकर दीयों को रंगों से आकर्षक बनाया जाता है।
यहीं नहीं, आटा की तरह गूंथे गोबर से सजावटी आइटम, मूर्तियां भी बनाई जा रही हैं। इस कार्य में उनके साथ,आसपास रहने वालीं आठ महिलाएं सहयोग करती हैं। महिलाएं घर पर भी अपनी सुविधा के अनुसार, दीये बनाने, कलर करने और पैकिंग का कार्य कर रही हैं। करीब दो माह पहले यह कार्य शुरू किया गया। हरिद्वार में कुछ आश्रमों से संपर्क किया था, जहां से दीयों की मांग आई है।
अब मुझे मां कहलाने पर दुख होता है