Video-हम शर्मिंदा हैंः पहाड़ की पगडंडी पर लड़ते हुए गुलदारों ने रोका इस बिटिया का रास्ता
बारहवीं कक्षा में पढ़ने वाली सोनी ने घर और स्कूल के बीच बच्चों के संघर्ष को साझा किया
न्यूज लाइव। राजेश पांडेय
अभी दस दिन पहले की ही बात है। दिन के दो-ढाई बजे का समय था। मैं स्कूल से अकेली घर जा रही थी। रास्ते में दो बघेरे (गुलदार) आपस में लड़ रहे थे। मैं घबरा गई, वहां मैं अकेली थी, दूर-दूर तक कोई नहीं दिख रहा था। शोर मचाना चाहती थी,ताकि आसपास किसी बकरी चराने वाले तक मेरी आवाज पहुंच जाए, पर दहशत में आवाज नहीं निकल रही थी। कुछ समय तक वहीं मूर्ति बनकर खड़ी रही। या तो इंतजार करती या फिर हौसला दिखाती। अगर, उनकी नजर मुझ पर पड़ जाती तो वो काल बनकर टूट जाते। यह वो वक्त था, जब हौसला ही दिखाना था, मैंने उन पर पत्थर बरसाने शुरू कर दिए। यह मेरा सौभाग्य था कि वो दोनों वहां से भाग गए।
बारहवीं कक्षा में पढ़ने वाली सोनी न्यूज लाइव के साथ घर और स्कूल के बीच पर्वतीय रास्तों पर बच्चों के संघर्ष को साझा कर रही थी। सोनी उत्तराखंड के देहरादून जिला स्थित गडूल ग्राम सभा के कंडोली गांव में रहती है। सोनी और उनकी दो बहनें सपना औऱ दीक्षा भी उनके साथ राजकीय इंटर कालेज इठारना में पढ़ते हैं। उनके घर से स्कूल की दूरी छह किमी. है, जिसमें तीन किमी. की सीधी चढ़ाई घने जंगल का हिस्सा है। एक तरफ खाई औऱ दूसरी तरह पहाड़ वाली पगडंडी पर ऊंचाई की ओर बढ़कर ही वो शिक्षा को जारी रख सकते हैं। घने जंगल में बघेरा( गुलदार), भालू और अन्य जानवरों का खतरा रहता है।
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‘रास्ते में बघेरों को देखकर वो काफी घबरा गई थीं। छठीं क्लास से इठारना में पढ़ रही हैं, लगातार सात साल से इस रास्ते पर चल रही हैं। जंगली जानवर दिखते रहे हैं, पर रास्ते में खूंखार जानवरों के लड़ने की घटना पहली बार देखी। सोनी विस्तार से उस घटना का जिक्र करती हैं, ‘मैं टैबलेट पर गाना सुनते हुए अकेली ही घर की तरफ जा रही थी। 12 हजार रुपये के टैबलेट सरकार ने बच्चों को पढ़ाई के लिए दिए हैं, पर स्कूल से घर आते हुए हम इन पर गाने भी सुनते हैं। मेरे से 15 मीटर की भी दूरी नहीं होगी, दो बघेरों लड़ते हुए दिखे। मैं घबरा गई, मेरे कदम आगे नहीं बढ़े। मैं कुछ सोच भी नहीं पा रही थी और न ही शोर मचाने की स्थिति में थी। शोर मचाने के लिए शरीर में ताकत चाहिए, मुझे तो ऐसा लगा कि शरीर में प्राण ही नहीं हैं। मैं अकेली क्या कर सकती थी, पर यहां कोई और भी तो नहीं था, जो मेरी मदद करता।’
‘अगर, थोड़ी सी भी हिम्मत नहीं दिखाती तो शायद यह घटना आपको बताने के लिए नहीं बचती। मैं खतरनाक जंगली जानवर बघेरों की लड़ाई देख रही थी, वो भी घने जंगल में अकेले। मैंने पास में पड़े पत्थर उठाए और पूरी ताकत लगाकर बघेरों पर बरसा दिए। एक के बाद एक पत्थर पड़ने से बघेरे भाग गए। यह बहुत अच्छा हुआ कि उन दोनों ने मुझ पर हमला नहीं किया। मैंने घर की ओर दौड़ लगा ली, लगभग एक-डेढ़ किमी. दौड़ते हुए घर पहुंची,’ सोनी बताती हैं।
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उन्होंने बताया, मैंने घर पहुंचकर पापा को पूरी घटना बताई। उन्होंने तो हमें पहले ही मना कर रखा था कि स्कूल के लिए कोई अकेला नहीं जाएगा। वैसे तो हम सभी एक साथ ही स्कूल जाते थे, पर उस दिन मैं अकेली गई थी। एक दिन बाद मेरी बड़ी बहन की शादी थी, इसलिए छोटी बहनें घर पर रुकी थीं। मुझे भी स्कूल नहीं जाना चाहिए था, पर आवश्यक कार्य के चलते स्कूल गई थी।
मैं तो इस साल इंटर पास कर लूंगी, भाई बहनों की चिंता है
जब सोनी हमें यह घटना बता रही थीं, उस समय उनके चेहरे पर गौरव महसूस करने वाला भाव था, क्योंकि उन्होंने अपनी बहादुरी और साहस से खुद की जान बचा ली। पर सोनी चिंता भी व्यक्त करती हैं, वो बताती हैं, पहले हमारे गांव से काफी बच्चे इस रास्ते से इठारना जाते थे। उन्होंने इंटरमीडिएट पास कर लिया। यहां कंडोली से हम तीन बहनें और खरक गांव से दसवीं का छात्र मोहन ही स्कूल जाते हैं। इस साल मैं भी इंटर पास हो जाऊंगी। मुझे अपनी बहनों की चिंता है, जो नौवीं व सातवीं में पढ़ते हैं। उनको स्कूल अकेले ही जाना पड़ेगा। दीक्षा तो अभी सातवीं में पढ़ती है। यह सोचकर मेरी चिंता बढ़ जाती है। मेरा भाई अभिषेक कक्षा चार में पढ़ता है। एक साल बाद उसको भी पढ़ाई के लिए यही रास्ता पार करना होगा। हमारे सामने पढ़ाई के लिए इसके अलावा कोई और विकल्प नहीं है।
वो कहती हैं, सरकार को यहां सड़क बना देनी चाहिए या फिर दूर से आने वाले बच्चों के लिए स्कूल के पास छात्रावास बनाए। उनका कहना है, जब सूर्याधार झील बनी, तो गांव वालों को पता चला कि मंदिर (इठारना के मंदिर) तक सड़क बनेगी। हम बहुत खुश हुए, चलो स्कूल तक जाने में दिक्कत नहीं होगी। पर, ऐसा कुछ नहीं हुआ। जिस रास्ते से होकर हम स्कूल जाते हैं, वहां दूर-दूर तक न तो घर हैं और न ही कोई दिखता है। किसी कष्ट में किसको पुकारेंगे।
सोनी की माता विमला देवी कहती हैं, जब तक बच्चे स्कूल से घर वापस नहीं आ जाते, चिंता बनी रहती है। जंगली जानवरों का खतरा है, रास्ता भी बहुत खराब है। यह रास्ता भी गांववालों ने स्कूल जाने के लिए बनाया है। बरसात में इस पगडंडी पर पानी बहता है।
जोखिम उठाकर स्कूल जाते बच्चे
यह घटना उत्तराखंड के दूरस्थ पर्वतीय जिले की नहीं, बल्कि राजधानी देहरादून से मात्र 30 से 35 किमी. के बीच के गांवों की है। नाहींकलां ग्राम पंचायत का गांव बड़कोट नाहींकलां से चार किमी. की पैदल दूरी पर है। बड़कोट के एकमात्र परिवार की बिटिया तान्या को सिंधवालगांव हाईस्कूल जाना पड़ता है। वो प्रतिदिन 16 किमी. चलती हैं। नाहींकलां तक वो पहाड़ के घनेजंगल से गुजरते पगडंडीनुमा रास्ते पर चलती हैं। इस जंगल में बघेरों और भालुओं का खतरा है, इसलिए उनकी मां उनको प्रतिदिन नाहींकलां तक छोड़ती हैं। वहां से अन्य बच्चों के साथ वो स्कूल जाती है। तान्या की मां पार्वती देवी बताती हैं कि बघेरा (गुलदार) उनकी बकरियों पर हमला कर देता है। भालू घर के पास उगाई सब्जियां नहीं छोड़ता। कुछ दिन पहले भालू घर के पास खेत से कद्दू उठाकर ले गया।
देहरादून से करीब 35 किमी. दूर लड़वाकोट गांव के राय सिंह, विक्रम सिंह बताते हैं कि उनके गांव के बच्चों को इंटर की पढ़ाई के लिए रोजाना 16 किमी. चलने की चुनौती होती है। धारकोट का स्कूल आठ किमी. दूर है, वहां जाना-आना पैदल ही होता है। पूर्व में कुछ बेटियों ने इतनी दूर जाने की बजाय पढ़ाई छोड़ दी थी।
कंडोली से भोगपुर नौ किमी, स्कूल वैन उपलब्ध करा दे सरकार
वहीं, कंडोली से भोगपुर लगभग नौ किमी. दूर है, जहां तक कोई सार्वजनिक परिवहन नहीं है। भोगपुर तक सूर्याधार झील के सामने से होकर जाना पड़ता है। ये बच्चे भोगपुर इंटर कालेज में पढ़ाई करेंगे तो उनको प्रतिदिन 18 किमी. पैदल चलना पड़ेगा। अभी सिल्ला चौकी के कक्षा 6 से 12 तक के बच्चों को रोजाना 14 किमी. चलना पड़ रहा है। सरकारी स्तर पर बच्चों के लिए वैन की व्यवस्था हो जाए तो उनका जीवन संकट में नहीं पड़ेगा।
हम शर्मिंदा हैं, मुहिम चला रहे मोहित उनियाल कहते हैं, सरकार को दूरस्थ स्थानों के बच्चों के लिए छात्रावास की व्यवस्था करनी होगी। या फिर उनके गांवों से स्कूल तक वैन लगाई जाए। उनका कहना है, कंडोली से भोगपुर तक वैन जा सकती है, लेकिन इनके परिवारों की आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी नहीं है कि किराये की वैन का इंतजाम कर सकें। इसलिए कंडोली के बच्चे 12 किमी. पैदल सफर वाले स्कूल इठारना जाते हैं। अगर वो भोगपुर के स्कूल में प्रवेश लेते हैं तो उनको प्रतिदिन 18 किमी. पैदल चलना पड़ेगा। उन्होंने सरकार से इन बच्चों को भोगपुर के स्कूल तक पहुंचाने के लिए वैन उपलब्ध कराने पर जोर दिया।
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एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2000 में राज्य के गठन के बाद से अब तक 400 से अधिक लोग तेंदुए के हमलों में मारे गए हैं। राज्य के वन विभाग के आंकड़ों से पता चलता है कि तेंदुए के हमलों में मारे गए लोगों की संख्या राज्य में जंगली जानवरों के हमलों में हुई मौतों की लगभग आधी है। वन्यजीव विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसे कई कारक हैं, जिनके कारण राज्य में मानव-तेंदुए के संघर्ष को रोकना मुश्किल हो गया है।
इस रिपोर्ट में आदमखोर तेंदुओं को मारने वाले प्रसिद्ध शिकारी लखपत सिंह के हवाले कहा गया है, ज्यादातर आदमखोर तेंदुए शाम छह से आठ बजे के बीच हमला करते हैं। जब गांवों में छोटे बच्चे खेल रहे होते हैं, तो तेंदुआ रोशनी कम होने का फायदा उठाता है। अगर कोई तेंदुआ रात आठ बजे के बाद घूम रहा है, तो वह आम तौर पर आदमखोर नहीं होता है। उन्होंने जिन 55 आदमखोर तेंदुओं को गोली मारी है, उनमें से ज्यादातर शाम 6 से 8 बजे के बीच मारे गए हैं। केवल पांच मामलों में एक आदमखोर को रात आठ बजे के बाद और दो को दिन में गोली मारी है।
नवंबर 2021 की एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, पिछले नौ महीने में जंगली जानवरों के 171 हमलों में 45 लोग मारे गए। इनमें अधिकतर 19 लोग गुलदार के हमले में मारे गए। बाघ ने दो, हाथियों ने आठ लोगों को मार डाला।
करीब एक सप्ताह पहले नरेंद्रनगर ब्लाक के ग्राम पसर में घर के आंगन में बैठे 54 वर्षीय व्यक्ति को गुलदार ने मार दिया था।