राजेश पांडेय। न्यूज लाइव
कुनाऊं के एक मैदान में गोल आकार में खड़े दर्शकों की तालियों से 65 साल के युसूफ लोदा बहुत उत्साहित हैं। वजन तोलने वाले बाट की तरह दिखने वाला लकड़ी का टुकड़ा, जिसका वजन 50 किलो के आसपास बताया गया है, को एक हाथ से अपने सिर से भी ऊपर हवा में करीब छह-सात सेकेंड तक थामकर रखते हैं और फिर उछालकर छोड़ देते हैं। ऐसा वो कई बार करते हैं और भीड़ उनकी ताकत का तालियों से अभिनंदन करती है। लकड़ी से बने भारी वजन का नाम मुदगर बताया गया।
हरिद्वार जिला के पथरी में रहने वाले युसूफ और उनके भाई आलमगीर बारी-बारी से मुदगर को उठाकर हवा में उछालते हैं।
यही नहीं, दोनों भाई गदे की तरह दिखने वाले दो और मुदगर को बारी-बारी से उठाकर गर्दन के पीछे की ओर घुमाते हैं। एक मुदगर का वजन 20 किलो बताया गया। व्यायाम के माध्यम से शारीरिक शक्ति का यह प्रदर्शन सभी को पसंद आता है। वहां कुछ युवाओं ने भी ऐसा करने की कोशिश की, पर वो युसूफ से बेहतर नहीं कर पाए।
“हम गुर्जर हैं, घी-दूध हमारी ताकत का राज है “, हमारे पूछने पर आलमगीर बताते हैं।
वो यहां, गुर्जर उत्सव में शामिल होने आए हैं, जिसका आयोजन वन गुर्जर समाज और वन गुर्जर ट्राइबल युवा संगठन कर रहे हैं।
देहरादून से करीब 45 किमी. दूर गंगा नदी से निकली चीला नहर के किनारे पौड़ी गढ़वाल के कुनाऊं, गंगाभोगपुर गांव में, वन गुर्जरों ने अभी तक क्या खोया और क्या हासिल किया, पर काफी कुछ मंथन किया। यहां आर्थिक और सामाजिक मुद्दों पर चिंतन के बीच सांस्कृतिक विरासत को भी भरपूर जगह दी गई। जंगलों में जीवन और पर्वतीय मार्गों पर सफर के दौरान तरक्की कैसे होगी, इस पर भी बात की गई।
वन गुर्जर ट्राइबल युवा संगठन के संस्थापक अमीर हमजा बताते हैं, हमें अपनी सांस्कृतिक विरासत को जीवित रखते हुए आर्थिक सुधारों पर काम करना होगा। हमारा घुमंतू जीवन हमारे पशुओं के मुफीद है और पशुपालन हमारी संस्कृति एवं आर्थिक बेहतरी का अभिन्न हिस्सा है। हम मानते हैं कि वन गुर्जरों के बहुत सारे परिवार अब घुमंतू नहीं रहे, वो अपने डेरों में स्थाई रूप से रहने लगे हैं।
“युवा अपने अच्छे कल के लिए पशुपालन के पारंपरिक व्यवसाय से अलग हटकर रोजगार की अन्य गतिविधियों से जुड़ रहे हैं। इसमें कोई खराबी नहीं है, आर्थिक रूप से मजबूती आवश्यक है, पर यह अपनी सांस्कृतिक विरासत को भुलाकर नहीं होना चाहिए। इसलिए हमने इस उत्सव का आयोजन किया, जिसमें वन गुर्जर की पहचान को बरकरार रखने के साथ ही आर्थिक पहलुओं पर चर्चा हो रही है। इसलिए यहां हमारे इतिहास के साथ ही कव्वाली, बैंत जैसी विधाओं, वनस्पतियों, वनों के संरक्षण, खानपान, रहन-सहन, परिधानों, उपकरणों, पशुओं, आजीविका के संसाधनों, पशुपालन में महिलाओं के योगदान, आवास की संरचना सहित उन सभी पहलुओं पर चर्चा की है, जो हमारी संस्कृति का महत्वपूर्ण भाग हैं। हम वनों के संरक्षण में अपनी भागीदारी एवं कर्तव्यों पर जोर देने के साथ ही वनाधिकारों पर भी बात करते हैं,” युवा अमीर हमजा कहते हैं।
घुमंतू जीवन पसंद है पर आर्थिक सुरक्षा भी जरूरी
उत्तराखंड में लगभग 75 हजार से अधिक वन गुर्जर परिवार रहते हैं, जिनमें से अधिकतर देहरादून, नैनीताल, हरिद्वार, पौड़ी गढ़वाल, टिहरी गढ़वाल, उत्तरकाशी, ऊधमसिंह नगर जिलों में वनों, नदियों और वन क्षेत्रों के आसपास बसे हैं। गुर्जर उत्सव में बताया गया कि बहुत सारे परिवार, जिनकी संख्या लगभग 80 से 90 फीसदी होगी, पहाड़ के प्रवास पर नहीं जाना चाह रहे। पर, घुमंतू जीवन पसंद करने वाले परिवारों की संख्या दस फीसदी से थोड़ा ज्यादा ही रह गई है। जबकि, मैदान के इलाकों में, जहां वो रह रहे हैं, वहां चारे की कमी है, चारा बाहर से खरीदकर खिलाना पड़ रहा है। पशुओं की बढ़ती संख्या को देखते हुए चारे पर उनको ज्यादा खर्च करना पड़ रहा है, क्या ऐसी स्थिति में उनको नुकसान नहीं उठाना पड़ रहा है।
इस सवाल पर, अधिकतर का जवाब था, घुमंतू जीवन ज्यादा अच्छा है, पर वर्तमान में यह उनकी आर्थिकी के मुफीद नहीं है। हालांकि उनके पशुओं की बेहतरी के लिए यह आवश्यक है। गर्मियों में पहाड़ पर पशुओं के लिए अच्छा चारा मिल जाता है। वहां पशु प्राकृतिक रूप से उपजा चारा खाते हैं, जो दूध की गुणवत्ता को बढ़ाता है। पर, पहाड़ों पर दूध की बिक्री नहीं हो पाती, क्योंकि हमारे डेरे शहर से दूर होते हैं।
सालाना पलायन में पशुओं को लेकर सैकड़ों किमी. चलना होता है, ऐसे में बुजुर्गों और बच्चों के साथ दिक्कतें होती हैं। वो चाहते हैं कि सरकार पहाड़ पर प्रवास के दौरान दूध और दूध से बनने वाले खाद्य पदार्थों की बिक्री की व्यवस्था करा दे। ऐसा कोई तो विकल्प होगा, जिससे हमारा घुमंतू जीवन भी बरकरार रहे और आर्थिक सुरक्षा भी मिल जाए।
एक और महत्वपूर्ण बात, वो यह कि वन गुर्जर परिवार स्थाई रूप से रहकर परंपरागत पशुपालन के अलावा आजीविका की अन्य गतिविधियों से जुड़े हैं। ऐसे में उनको स्थाई प्रवास पर ही विचार करना पड़ रहा है। वहीं, घुमंतू होने से बच्चों की शिक्षा प्रभावित होती है, इसके लिए मोबाइल स्कूल का प्रस्ताव है, पर यह कितना सार्थक होगा, इसके क्या परिणाम होंगे, अभी जानकारी नहीं है।
युवा अमानत बताते हैं, पहले के समय में पहाड़ में गांव के लोग हमारा इंतजार करते थे। वो हमें पशुओं के लिए पुआल- घास देते थे और हम उनको घी उपलब्ध कराते थे। अब उतना इंतजार नहीं होता।
घरों को लादकर चलते घोड़े और घंटियों की आवाज
हालांकि, अधिकतर वन गुर्जर परिवार माइग्रेशन से दूर होकर स्थाई रूप से डेरों में रहने लगे हैं, पर वो आजीविका से जुड़ी पलायन (Migration) की संस्कृति को सहेजना चाहते हैं। उत्सव की एक प्रदर्शनी में फूस और लकड़ी से बनाई घोड़े की आकृति और उसके गले में बंधी घंटियों और पीठ पर लादा सामान, यह बताने के लिए काफी है कि वनगुर्जरों को अपनी सांस्कृतिक विरासत से कितना अधिक लगाव है।
वनगुर्जर यह बात बड़े गर्व से कहते हैं, “हमारे परिवारों ने सालाना पलायन के दौरान, जो लंबे सफर तय किए, हमारे पास उनसे जुड़ीं ढेर सारी कहानियां हैं। जैसे ही गर्मियां आती हैं, हमारा काफिला बुग्याल में बने हमारे घरों की तरफ चलना शुरू कर देता है। हमने अपने शरीर और दिमाग को कठोर मौसम में खड़ी ढलानों पर चढ़ने और लंबी दूरी तय करने के लिए मजबूत बनाया है। इस सफर के दौरान हमारे घोड़े हमारा घर लादकर हमारे साथ-साथ चलते हैं”।
एक युवा स्वयंसेवी हमें बताते हैं कि सालाना पलायन के दौरान उनके घोड़ों की पीठ पर क्या जरूरी सामान लादा होता है। बारिश में सामान को भींगने से बचाने के लिए उनके पास क्या उपाय होते हैं। रास्ते की बाधाओं को कैसे दूर करते हैं। जंगलों में रहने वाले घोड़ों को शोर मचाने वाले ट्रैफिक के बीच से कैसे निकाला जाता है। वो क्या उपाय हैं, जिनसे उनके पशु गाड़ियों के हॉर्न से नहीं बिदकते।
वो बताते हैं, घोड़ों के गले में बंधी कंगरावल ( बड़े घुंंघरुओं या छोटी घंटियों की माला) बजने से घोड़ों का ध्यान ट्रैफिक की आवाज पर नहीं जाता। इससे सफर आसान रहता है।
वो हमें एक पुराना रेडियो दिखाते हुए कहते हैं, यह हमारे पलायन का साथी है। गाने सुनने के लिए, समय पास करने के लिए इससे अच्छा कुछ नहीं होता था, पर बदलते जमाने में मोबाइल फोन ने इसकी जगह ली है।
घोड़े के बाल से बना कपड़ा, रस्सियां, जिनकी मजबूती का कोई जोड़ नहीं है, का इस्तेमाल भी पलायन के दौरान खूब होता है। कपड़ा गर्म होता है और उससे बने बड़े खोल में जरूरत का सामान रखा होता है, जिसमें बरसात का पानी घुसने के कोई आसार नहीं होते।
इसलिए हाथ से मथा जाता है दूध
यहां प्रदर्शनी में दूध मथकर घी दूध बनाने की पूरी प्रक्रिया और उसमें इस्तेमाल होने वाले बरतनों की जानकारी उपलब्ध कराई जा रही है। बानो बताती हैं, आज भी डेरों में लकड़ी से बनी बड़ी से मथनी का इस्तेमाल होता है। मशीनों के जमाने में इतनी मेहनत क्यों, पर उनका कहना है, अधिक दूध को मथने का काम छोटी मशीनों में नहीं हो सकता। हाथ से दूध मथने से छाछ, घी, मक्खन का स्वाद बहुत अलग होता है। वैसे भी, मशीने चलाने के लिए बिजली चाहिए, जो वन गुर्जरों के डेरे पर नहीं होती।
वो हमें लकड़ी की बड़ी मथनी दिखाते हैं, जिसको उनके पूर्वज खुद बनाते थे, पर अब यह बाजार से खरीदते हैं, क्योंकि इसको बनाने वाले लोग अब कम ही हैं। लकड़ी के चमचे से दावत के लिए खाना बनाया जाता है। इसको बनाना आसान है, इसलिए घर पर ही बना लेते हैं। दूध जमा करने की बंटियां, पतीले भी प्रदर्शनी में रखे गए हैं।
हम गुर्जर सुंदरता के बिना नहीं रह सकते
वन गुर्जर हैंडीक्राफ्ट में माहिर होते हैं। मोर पंखियों के तने से बने पंखें, कढ़ाई की गईं टोपियां, कढ़ाई बुनाई किए वस्त्र, घरों को सजाने के लिए बंदनवार सहित सजावट का सामान गुर्जरंगो आइनो नाम की प्रदर्शनी में मौजूद था। तभी तो वो कहते हैं, हम गुर्जर सुंदरता के बिना नहीं रह सकते, अपने घरों और जीवन को सजा – धजाकर आकर्षक बनाए बिना तो बिल्कुल भी नहीं। कशीदाकारी वाली टोपी, सजे हुए हाथ के पंखे, मोती, केशबंद आभूषण, हमारे लिए प्रमुख हैं।
वन गुर्जर समुदाय की महिलाएं हाथ से जटिल कढ़ाई करके पारंपरिक टोपी बनाती हैं, जिसे केवल पुरुष ही पहनते हैं।
कड़ुवी घास पत्तियां खाकर अपना इलाज करती हैं भैंसे
दूध के अर्थशास्त्र पर चर्चा के दौरान एक युवा गुर्जर ने बताया कि वो जंगल से बाहर गांव में डेरी चलाते हैं। भैंसों का आहार दूध की गुणवत्ता और स्वाद को प्रभावित करता है। हम भैंसों को सेमल की पत्तियां खिलाते हैं। सेमल का पत्तियां कड़ुवी होती हैं। इसी तरह बरसात में चिड़िया कबाड़ी, जिसे हम चाऊ घास भी कहते हैं, भैंसे खाती हैं। इन घास पत्तियों को खाने वाली भैंसों का दूध कड़ुवा हो जाता है, जिसे बेचने में काफी दिक्कतें आती हैं।
इस दिक्कत पर युवा अमानत बताते हैं, भैंसों के पेट में कीड़ों की समस्या हो जाती है, जो किसी दवा से शरीर से बाहर नहीं निकलते। भैंसें कड़ुवी घास खाती हैं और कीड़ों का इलाज हो जाता है। यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है या आप कह सकते हैं कि भैंसें इन कड़ुवी पत्तियों को खाकर अपना इलाज खुद करती हैं।
माई और भैंसों के बीच एक खास रिश्ता
वन गुर्जर प्रदर्शनी में प्रस्तुत एक लेख में बताते हैं, पशुओं का इलाज गहरे औषधीय ज्ञान पर टिका है। हमारे परिवारों के माई (पशु चराने वाले) पशुओं के झुंड की सावधानी से निगरानी करते हैं। जानवरों को समझने और उनकी देखभाल करने वालों को ही यह जिम्मेदारी सौंपी जाती है। माई और भैंस के बीच एक खास रिश्ता होता है। वे एक दूसरे के साथ आवाजों और इशारों की भाषा में बात करते हैं। झुंड को चराने के लिए कहां ले जाना है, यह माई द्वारा अच्छे चारे और पानी की उपलब्धता के आधार पर तय किया जाता है। इसलिए माई को सुनना बहुत जरूरी है।
माई और भैंसों के बीच रिश्ते पर एक गीत है-
उठ माई, अब भोर हुई,
डेरों के लोग आवाज लगाएं, भैंसों के रखवालों को,
उठ जा ! भैंस तेरी राह देखे, जंगल में जाने को,
बेजुबान, अपने दिल की बात जुबान पर न ला सके,
बस तुम ही तो हो माई, जो उसका ख्याल रख सके,
देखो तो जरा, उसके गोल सींगों को, सरगम की ताल
जैसी उसकी जुगाली को,
देखो तो जरा, उसके सुंदर थनों को, चीनी जैसे उसके
दूध की मिठास को।
भैंसों के बिना गुर्जर और गुर्जरों के बिना भैंसे नहीं रह सकतीं
मिल्क इकोनॉमी पर चर्चा के दौरान, जम्मू-कश्मीर से आए अतिथि जावेद राही कहते हैं, भैंस गुर्जर के बिना और गुर्जर भैंस के बिना नहीं रह सकते। ये अपने पशुओं से बहुत स्नेह करते हैं। बहुत सारे कष्ट झेलने के बाद भी ये पहाड़ों पर प्रवास करते हैं, वो इसलिए क्योंकि इनकी भैंसों को वहां की हरी घास पसंद है। ये अपनी कम, पशुओं की पसंद का ज्यादा ध्यान रखते हैं।
वो हंसते हुए एक किस्सा सुनाते हैं, अपनी रचना के बाद भैंस ने प्रकृति से पूछा,आपने मुझे इतना बड़ा पेट दिया है, इसको भरने का उपाय भी तो बताओ। तब प्रकृति ने जवाब दिया,चिंता मत करो, तुम्हारा पेट भरने के लिए एक ऐसा समाज है, जो पूरे समय केवल तुम्हारे खाने पीने का ही इंतजाम करता रहेगा। वो समाज है गुर्जर समाज। वो कहते हैं, गोजरी नस्ल की भैंसे ही गुर्जरों की पहली पसंद हैं।
उत्सव में फूस और मिट्टी से बनाई दो भैंसों की प्रदर्शनी है, जिनके बारे में एक लेख में कहा गया, हमारे लोग गोजरी नस्ल की भैंसों को पालते हैं। भैंस हमारे कई सारे त्योहारों का हिस्सा होती हैं। युवा वर-वधू को उनकी शादी के दिन तोहफे के तौर पर भैंस दी जाती है और युवा लड़कों को खतने के दिन उनके माता-पिता आशीर्वाद के रूप में भैंस देते हैं। और हमारे बहुत सारे बैंथ (संगीत की एक विधा के गायक) जानवरों के साथ हमारे प्यार का बखान करते हैं।
हमसे संपर्क कर सकते हैं-
यूट्यूब चैनल- डुगडुगी, फेसबुक- राजेश पांडेय