उत्तराखंडः पलायन के खिलाफ संघर्ष कर रहे इन योद्धाओं से मिलिए
चुनाव में पलायन का शोर मचा रहे नेताओं को इन पांच लोगों से जरूर सीखना चाहिए
राजेश पांडेय। न्यूज लाइव
उत्तराखंड के पर्वतीय गांवों से पलायन का शोर इस चुनाव में भी है, पर गांव खाली होने की वजह पर काम नहीं हो रहा है। गांवों से पलायन का कारण, वहां तक सड़क, पानी, बिजली, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं और आजीविका के संसाधन नहीं होना है। उत्तर प्रदेश से 22 साल पहले अलग राज्य की स्थापना का उद्देश्य भी पर्वतीय क्षेत्रों में सुविधाएं पहुंचाना था। सवाल उठता है, जो मुद्दे उत्तराखंड के पहले चुनाव में थे, वो आज भी बरकरार क्यों हैं, खासकर दूरस्थ पर्वतीय गांवों के मामले में। हालांकि उत्तराखंड में विधानसभा का पांचवां चुनाव जनता के मुद्दों पर नहीं है, यहां उन्हीं बातों को जोर-शोर से उठाया जा रहा है, जिनसे जनता को लुभाया जा सके।
हमने राजधानी देहरादून के पास के गांवों में उन लोगों से बात की, जिन्होंने पलायन की बजाय अपने गांव में ही रहने का फैसला किया। उनको इस फैसले पर अडिग रहने के लिए संघर्ष करना पड़ा। पर, वो पलायन के पक्ष में नहीं हैं।
सरस्वती देवी (सनगांव): पलायन नहीं करेंगे, अपने गांव को ही स्वर्ग सा सुंदर बनाना है
बुजुर्ग सरस्वती देवी सनगांव में बेटे पुनीत रावत के साथ रहती हैं। उनकी बहू हेमंती रावत ग्राम प्रधान हैं। देहरादून से करीब 30 किमी. दूर स्थित इस गांव तक सड़क नहीं होने की वजह से कई परिवार पलायन कर गए। अब गांव में पहले जैसी चहल-पहल नहीं रहती।
सरस्वती देवी का कहना है, हम अपना गांव नहीं छोड़ेंगे। बेटे से कह दिया है, गांव नहीं छोड़ना। गांव की आबोहवा बहुत अच्छी और शुद्ध है। मैं कभी बीमार नहीं हुई, हालांकि अब उम्र बढ़ने के साथ थोड़ा बहुत स्वास्थ्य खराब रहता है। हम अपने गांव को स्वर्ग सा सुंदर बनाना चाहते हैं। यहां तक सड़क बन जाए तो बहुत सारी दिक्कतें हल जाएंगी। उनको अपने पोते की पढ़ाई की चिंता है, उसको इतनी दूर स्कूल नहीं भेज सकते। इतने छोटे बच्चे को पढ़ाई के लिए किसी के घर भी नहीं छोड़ सकते।
सरस्वती देवी, 1974 में शादी होकर सनगांव आ गई थीं। उस समय हाईस्कूल पास थीं। शादी के बाद अपनी पढ़ाई को जारी रखा और 1982 में डीएवी कालेज देहरादून से बीए पास किया। गांव में सुविधाओं की कमी के बाद भी बच्चों को शिक्षित बनाया। चार बेटियां सनगांव से करीब 16 किमी. दूर भोगपुर पढ़ने जाती थीं। बेटियों को स्कूल छोड़ने जाती थीं। भोगपुर तक जाने के लिए दो नदियों को पार करना पड़ता था। पानी में भींगकर स्कूल पहुंचे बच्चों को स्कूल में कहा जाता था कि घर जाओ। वहीं घरों में बच्चों को कहा जाता था कि स्कूल जाओ। एक बार उनकी बेटी नदी में बह गई थी। गांववालों ने बड़ी मुश्किल से उसको बचाया।
सरस्वती देवी के अनुसार, उस समय गांव में बिजली नहीं थी। बत्ती वाले लैंप जलाकर रोशनी की जाती थी। पानी भी एक किमी. दूर स्रोत से लाना पड़ता था। छुट्टी के एक दिन पहले स्रोत से पानी भरकर इकट्ठा किया जाता था। तीन बेटियों ने इंटरमीडिएट किया और एक बेटी ने एमए किया है। बेटे की बहू को भी पढ़ाया। चाहती हूं कि हर बेटी स्कूल जाए, खूब पढ़ाई करे। मैं चाहती हूं कि हर बेटी पढ़े लिखे और जीवन में तरक्की करे। बेटियों को शिक्षित बनाना चाहिए। बेटियां पढ़ी लिखी होंगी तो उनका जीवन खुशहाल होगा। उनका कहना है, तमाम दिक्कतों के बाद भी अपना गांव नहीं छोड़ा, तो अब तो गांव से पलायन करने की कोई संभावना नहीं है।
भूषण तिवारी ( ठोठन गांव): रोजाना 80 किमी. का सफर करते हैं, पर गांव नहीं छोड़ेंगे
सिंधवाल ग्राम पंचायत के ठोठन गांव देहरादून से करीब 40 किमी. दूर है। यहां से कई परिवार पलायन कर गए, पर 42 वर्षीय शिक्षक भूषण तिवारी ने अपना गांव नहीं छोड़ा। भूषण देहरादून में किसी शिक्षण संस्थान में सेवारत हैं और रोजाना घर से शहर तक आते-जाते हैं। रोजाना 80 किमी. बाइक चलाते हैं। पर्वतीय गांव के संकरे, कच्चे, ऊबड़ खाबड़ रास्ते जोखिम वाले हैं। बरसात में देहरादून जाने-आने में बहुत दिक्कतें हैं। सुबह साढ़े छह बजे घर से निकलते हैं और अंधेरा होने पर ही वापस लौट पाते हैं।
गांव में उनके परिवार में बुजुर्ग ताऊजी, ताई जी, माता जी, पत्नी और दो छोटे बच्चे हैं। भूषण खेतीबाड़ी भी करते हैं। कहते हैं, मैं अपने बुजुर्गों को यहां अकेला नहीं छोड़ सकता। मुझे अपने गांव से प्यार है। खाली होते गांव के प्रति हमारा भी कोई कर्तव्य बनता है। यहां की भूमि को बंजर नहीं छोड़ सकते। जितना होता है, उतने पर खेती करते हैं। जैविक और शुद्ध खाने को मिलता है। हालांकि जंगली जानवर फसल को नुकसान पहुंचाते हैं। दिक्कतें हैं, पर गांव को खाली नहीं करेंगे।
भूषण आसपास के सभी पर्वतीय गांवों तक सड़क बनाने की मांग उठाते हैं। बताते हैं कि भोगपुर से पहले पुल के पास से नदी किनारे होते हुए सनगांव तक लगभग साढ़े छह किमी. की दूरी है। पांच किमी. सड़क बन गई, पर इसके बाद सिंधवालगांव, नाहींकलां होते हुए बड़कोट गांव तक लगभग 11 किमी. सड़क बनाने पर वर्षों से ध्यान नहीं दिया जा रहा। जो पांच किमी. सड़क बनी है, उसकी भी हालत देखी जा सकती है। सड़क नहीं होने की वजह से पलायन हो रहा है।
गांव खाली होने के बाद होती है जमीनों की खरीद फरोख्त
वो कहते हैं, बुनियादी सुविधाएं और आजीविका के संसाधन उपलब्ध हो जाएं तो कोई अपना घर-गांव खाली करके क्यों जाएगा। मुझे नहीं लगता कि राजनीतिक दल पहाड़ों का विकास चाहते हैं। जब गांव खाली हो जाता है, तब विकास होता है। इनका मकसद गांव खाली हों, पहाड़ खाली हों, बाद में प्रापर्टी डीलिंग के माध्यम से कौड़ियों के भाव जमीनें खरीदकर विकास करना है। चमोली तो बहुत दूर है, यहां देहरादून की जड़ वाले गांवों का विकास नहीं हुआ, यह चिंता का विषय है। यहां जो भी कुछ संसाधन दिखाई दे रहे हैं, वो स्थानीय जनप्रतिनिधियों, ग्राम पंचायतों के प्रयासों से हैं। पर, उनके पास भी ज्यादा बजट नहीं होता।
पार्वती देवी ( बड़कोट गांव): बेटी को पढ़ाने के लिए 16 किमी. रोज पैदल चलीं, पर गांव नहीं छोड़ा
नाहीं कलां ग्राम पंचायत का दूरस्थ गांव बड़कोट, जहां बाइक तक नहीं जा सकती। रास्ता कई जगह ऐसा है, जहां संतुलन बिगड़ा नहीं कि खाई में गिरने का खतरा। बघेरों और भालुओं का खतरा अलग से है। देहरादून से लगभग 30 किमी. दूर यह गांव पलायन से लगभग खाली हो गया है। यहां केवल जयराज सिंह मनवाल का परिवार रहता है। उनकी बेटी तान्या कक्षा दस की छात्रा है और घर से लगभग आठ किमी. दूर सिंधवाल गांव के हाईस्कूल में जाती है।
पार्वती बताती हैं, मेरी बेटी तान्या का स्कूल यहां से करीब आठ किमी. दूर है। गांव में अब हमारा परिवार ही रहता है। तान्या को स्कूल के लिए अकेले ही जंगल वाले रास्ते से होकर नहीं जाने दे सकते, इसलिए मैं उसको नाहीं कलां गांव तक छोड़ने जाती हूं। वहां से तान्या, अन्य बच्चों के साथ स्कूल जाती है। नाही कलां यहां से चार किमी. है और नाहीकलां से सिंधवाल गांव का हाईस्कूल भी लगभग इतनी ही दूरी पर है। तान्या को सुबह नाहीकलां छोड़ना, वहां से घर आना और फिर शाम को उसको लेने नाही कलां जाना प्रतिदिन का काम है। कुल मिलाकर 16 किमी. चलना पड़ता है।
पार्वती देवी 25 साल पहले शादी के बाद से इस गांव में हैं। बताती हैं, यहां से सभी लोग रोजगार, बच्चों की शिक्षा के लिए शहर चले गए। वो लोग यहां कभी कभी आते हैं। हम यहीं रह रहे हैं। पशुपालन और खेती करते हैं। आधे से ज्यादा खेत तो खाली पड़े हैं। यहां पानी की बहुत ज्यादा दिक्कत नहीं है। खेती अच्छी होती है, पर जंगली जानवर फसल नहीं छोड़ते। इसलिए खेतों को खाली छोड़ दिया। हमने गाय पाली हैं। बकरी पालन करते हैं, इसमें आमदनी ठीक है। यहां पास के जंगल से बघेरा (गुलदार), भालू आ जाते हैं। बघेरा बकरियों को उठा ले जाता है। इनकी बड़ी सुरक्षा करनी पड़ती है।
तान्या का कहना है, वो सरकार से कहना चाहेंगी कि हमारे गांव में सड़क और बिजली पहुंचा दो। सड़क बन जाएगी तो मैं साइकिल से स्कूल जा सकूंगी। पार्वती देवी बताती हैं, हमें अपना घर-गांव बहुत अच्छा लगता है। हम यहां से चले गए तो पूरा गांव खाली हो जाएगा। मैं जब से यहां आई हूं, बिजली और सड़क का इंतजार कर रही हूं। हर चुनाव में आश्वासन मिलता है, पर सुविधाएं कब मिलेंगी, नहीं पता।
चंदन सिंह कंडारी ( कलजौंठी गांव): गांव छोड़कर जाने वाले वापस लौटेंगे, मैं कहीं नहीं जाऊंगा
टिहरी गढ़वाल जिला के कलजौंठी गांव लगभग खाली हो गया है। यहां करीब 75 साल के बुजुर्ग चंदन सिंह कंडारी, उनकी पत्नी कमला देवी और पूरण सिंह कंडारी, उनकी पत्नी रोशनी देवी रहते हैं। इन बुजुर्गों की वजह से ही हम कह सकते हैं कि कलजौंठी पूरी तरह से पलायन करने वाला गांव नहीं है। चंदन सिंह कहते हैं, जब पानी ही नहीं मिल रहा है, तो खेती कैसे करेंगे। खेत खाली पड़े हैं। थोड़ा बहुत गुजारे के लिए सब्जियां उगाते हैं तो इनको जंगली जानवर नहीं छोड़ते। वैसे भी पूरा गांव खाली हो गया है। पर, मैं अपने गांव से कहीं नहीं जाऊँगा। मेरा जीवन यहां बीता है, मैं इसे छोड़कर क्यों जाऊं। मुझे पता है, जो लोग यहां से बाहर गए हैं, वो यहां लौटकर आएंगे।
टिहरी गढ़वाल जिला के कलजौंठी गांव में चंदन सिंह कंडारी और कमला देवी जी। फोटो- डुगडुगी
कमला देवी बताती हैं, उन्होंने खेत में मिर्च लगाई थीं, पर बंदर पौधों को नुकसान पहुंचा रहे थे, इसलिए सारे पौधे काटने पड़ गए। खरगोश आलू, प्याज की पौधों को जड़ों से उखाड़ देते हैं। उनका कहना है, मेरा पूरा जीवन पशुओं की सेवा में बीता। उनकी देखरेख में समय कब बीत गया, पता नहीं चलता था। हमने पशुओं के लिए अलग से कमरा और गोशाला बनाई थी। करीब एक साल पहले सभी गायों, बछड़े-बछड़ियों को आश्रम को दे दिया। जब भी टीवी पर गायों को देखती हूं तो अपने पशुओं की याद आ जाती हैं, पर क्या करें हम मजबूर हैं। हमारे से अब उनकी सेवा नहीं हो सकती थी।
टिहरी गढ़वाल जिला के कलजौंठी गांव में पलायन की वजह से यह भवन खंडहर हो गया। इस मकान में कभी तीन परिवार संयुक्त रूप से रहते थे। फोटो- डुगडुगी
बुजुर्ग चंदन सिंह कंडारी हमें गांव के दूसरे हिस्से में ले जाते हैं, जहां पसरा सन्नाटा बता रहा है कि किसी के लिए अपना घर-गांव छोड़ना बहुत आसान नहीं होता। पर, क्या करें रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधा किसको नहीं चाहिए। बुनियादी सुविधाएं जितनी अच्छी होंगी, उतनी ही बेहतर जिंदगी होगी। कलजौंठी गांव भी सड़क नहीं बनने की वजह से पलायन कर गया। यह कोडारना ग्राम पंचायत का हिस्सा है, जिसका एक और गांव है बखरोटी, जो पूरा खाली हो गया है। अब वहां कोई नहीं रहता।
डोईवाला विधानसभा का हिस्सा सनगांव देहरादून से करीब 30 किमी. दूर होगा। गांव में सिंचाई पूरी तरह बारिश पर निर्भर है। बारिश नहीं होने पर खेतों को सूखने से बचाने, सब्जी उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए विश्वबैंक से पोषित जलागम परियोजना से टंकी का निर्माण शुरू किया गया। tweet Follow @https://twitter.com/rajeshpandeydwबीना देवी (चित्तौर गांव): पंजाब से वापस लौटकर अपने खेतों को बनाया आजीविका का जरिया
अपर तलाई ग्राम पंचायत का हिस्सा है चित्तौर गांव, जो देहरादून जिला में स्थित है। इस गांव में ब्रजेश सेमवाल और बीना देवी सेमवाल रिवर्स माइग्रेशन का उत्कृष्ट उदाहरण हैं। उन्होंने पंजाब से उत्तराखंड लौटकर अपने खेतों को आजीविका का जरिया बनाया। पिछले साल मार्च में हम उनके गांव गए थे, तब उनसे बात हुई थी।
बीना देवी कहती हैं खेती में मेहनत तो करनी पड़ती है। मैं अपनी मातृभूमि, इस धरती मां से बहुत स्नेह करती हूं, इन्होंने हमें जिंदगी दी है। पांच साल पंजाब में रहे। पर, मैंने वापस अपने गांव लौटने का मन बना लिया। हम वापस आ गए और यहां जैविक खेती में संभावनाएं देखीं।
सामने पहाड़ की ओऱ इशारा करते हुए कहती हैं , वहां भी हमारा घर है। बाद में, हमने यहां थोड़ी सी जमीन ली। हमने तिरपाल लगाकर जीवन यापन किया। इस धरती मां ने हमें बहुत कुछ दिया है। यहां जीवन की बहुत सारी संभावना है, धरती मां हमें ईमानदारी सिखाती हैं। हमारे पास सात पशु हैं। हमारे पास बैल भी हैं। यहां दूध नहीं बिकता, घी बनाकर बेचते हैं। दिक्कतें तो जीवन में आती है। यहां रोड नहीं है, पर पानी की कोई कमी नहीं है। बिजली 10 -11 साल पहले आई है।
खेती पूरी तरह जैविक है, केवल गोबर की खाद का प्रयोग करते हैं। यहां प्याज, धनिया, पालक, राजमा, गेहूं, धान, मटर, मूली की उपज को घर में भी इस्तेमाल करते हैं और बेचते भी हैं। उन्होंने बताया कि उपज बेचने के लिए हमें कहीं नहीं जाना पड़ता। उपज खरीदने वाले आसपास के गांवों के लोग ही हैं।