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गन्ने से सुनिये, जिंदगी की कहानी

लगभग निर्जीव हो चुका हूं। अब तो शरीर ने भी मेरा साथ छोड़ दिया। मेरे दबे कुचले शरीर में रक्त की कल्पना नहीं की जा सकती। अब मैं इस पर गर्व नहीं कर सकता। क्या जीवन का अंतिम पड़ाव ऐसा होता है। जब मैं अंकुरित हुआ था, तब नहीं पता था कि जन्म से मृत्यु का फासला सिर्फ और सिर्फ संघर्ष से भरा होता है। इंसानों का तो मुझे पता नहीं पर मैं अपनी दास्तां तो आपसे साझा कर सकता हूं। मेरा नाम गन्ना है।

कहा जाता है कि मैं मिठास का पर्याय हूं। आपने कभी किसी से यह तो नहीं सुना होगा कि यह गन्ना कड़ुवा है या फिर खट्टा। खुशियों के मौके पर सबको कहते सुनता हूं ‘कुछ मीठा हो जाए’। मुझे कुदरत ने हर किसी के जीवन में मिठास घोलने का काम दिया है, पर मैंने ऐसा कभी नहीं सोचा था कि एक दिन मैं खुद को उसी मिट्टी में मिलता देखूंगा, जिस पर मैंने जन्म लिया है।

बहुत खुश था और यह सोचकर खुद पर गर्व करता था कि मैं दिन पर दिन तरक्की कर रहा हूं। मेरे पास तन और मन ही नहीं बल्कि समृद्धि की ताकत भी है। समृद्धि का मतलब रस का खजाना था मैं। इंसानों को ही कहते सुना था मैंने, इस बार का गन्ना तो कमाल का है। इस बार ज्यादा रसीला और मीठा है यह। यह सुनते ही मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहता। यह युवावस्था की बात है, जब लंबी हरी पत्तियां मेरी सुन्दरता को बताती थीं। हवा के झोंकों में कितना मस्त लगता था मैं। वाह क्या दिन थे वो।

मैं इतनी ऊंचाई पर जाना चाहता था कि धरती के सारे पौधे मुझे छोटे नजर आने लगे। वैसे सच बताऊं, मैंने कभी अपनी जड़ों की ओर देखने की जरूरत ही नहीं समझी। हां, हां… मुझे मालूम था कि जो भी रस मेरे भीतर है, उसको बढ़ाने में जड़ों का ही योगदान है,पर मुझे लगता था कि अगर जमीन पर देखूंगा तो टूट जाऊंगा।

अगर सीधे सादे शब्दों में कहो तो मेरी अकड़ बढ़ गई थी या मैं अकड़ गया था, कुछ भी समझो। एक बात जो मेरे जेहन में बस गई थी कि आसमां को छूने के लिए ऊपर की ओर ही देखना होता है, इसलिए मैंने कभी अपने से छोटे, धरती से लगे पौधों की ओर देखने की जरूरत ही नहीं समझी। लगता है मैंने पूरी बात नहीं सुनी थी या इसकी व्याख्या अपने हित में कर ली।

बेशक, सब मुझे घमंड में मदहोश मानें पर यह तो हकीकत है कि मेरे पास जमीन से ऊंचाई तक पहुंचने का अनुभव भी था। मेरे पास आसमां को छूने का हौसला था। मैंने खुद को सहेजने वाली जड़ों की ओर नहीं देखा, पर संघर्ष के दौर में उनको उखड़ने भी नहीं दिया। मुझे जड़ से थोड़ा ऊपर से काट डाला गया। उन लोगों ने मुझे अपनी मिठास के लिए काट डाला, जिनकी बार-बार की तारीफ से मैं खुश होता था। इतना खुश होता था कि खुद से ऊपर किसी को भी नहीं बढ़ने दिया। मेरे आसपास पलने वाले पौधे ऊंचाई की रेस में मुझसे आगे नहीं निकल पाए।

मुझे क्या पता था कि मैं केवल इस्तेमाल हो रहा हूं औऱ उसके बाद फेंक दिया जाऊंगा। यह हुआ भी, आप तो देख रहे हो न, मैं रसविहिन होकर अस्तित्वहीन पड़ा हूं। पता है, मेरी जड़ों को क्यों छोड़ दिया गया, क्योंकि वो जानते हैं कि ये जड़ें सलामत रहीं तो इनमें मेरे जैसे एकाध और अंकुरित हो जाएंगे।

मैं संघर्ष पर संघर्ष को कुछ इस तरह देखता हूं। मैं अपनी मिठास की उस अनुभव से तुलना करता हूं, जिसका होना सभी के लिए जरूरी है। मैं समाज की खुशियों के लिए बलिदान हो गया, यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है। मीठा रस देना मेरी जिम्मेदारी है, क्योंकि मैं इसके लिए ही धरती पर अंकुरित हुआ था। इसलिए रस के लिए मुझे एक मशीन में डाल दिया गया। थोड़ा बहुत रस निकला भी, लेकिन वो तो मुझे पूरी तरह निचोड़ना चाहते हैं।

वो नहीं चाहते कि उनके हिस्से की एक बूंद भी मेरे शरीर में बची रह जाए। मैं बुरी तरह टूट चुका था। मेरी अकड़ तो उसी दिन गायब हो गई थी, जब मुझे जिम्मेदारियां निभाने के लिए अपनी जड़ों से अलग होना पड़ा था। अब मेरा वजूद ऊंचाई से लंबाई में बदल गया।

अभी तो संघर्ष शुरू ही हुआ है। मैं देख रहा था कि मीठे रस का पान करने के लिए मशीन के पास इंसानों की संख्या बढ़ रही है। शायद उनको देखकर मशीन वाले को मुझसे और ज्यादा रस की उम्मीद थी। मुझे मोड़कर मेरी लंबाई आधी कर दी गई। मुझे फिर से मशीन के हवाले कर दिया गया।

इस बार रस निकला पर पहले की तरह ज्यादा नहीं था। मशीनवाले को तो अपने बर्तन को भरना था, वो भी मेरे रस से। उसका एक और प्रयास हुआ, अब मुझे फिर से मोड़कर लंबाई का एक चौथाई कर दिया। उसे थोड़ा सा रस और मिल गया, लेकिन मिठास पाने के लिए उसके प्रयोगों ने मेरे शरीर को लगभग निर्जीव कर दिया।

उसने पहले मेरी तरफ देखा और फिर मिठास का इंतजार करने वालों की ओर। …और फिर झट से मुझे और पुदीने को एक साथ लपेटकर मशीन में पेर डाला। यह वही पुदीना है, जो कभी मेरी जड़ों से ज्यादा ऊपर नहीं उठ पाया। यह बेचारा तो नीचे ही नीचे फैलता है। चलो मान लो, मुझे घमंडी होने और मिठास का खजाना छिपाने की सजा मिली, पर इसका क्या कसूर है। यह तो बिल्कुल गलत किया, इसके साथ।

मेरे साथ भी गलत हुआ है, मशीन वाले ने इसमें और मुझमें कोई अंतर नहीं समझा। मैं यह सोच ही रहा था कि मशीन वाला बोला, भाई पुदीना मिलाकर रस का स्वाद और भी मजेदार हो जाता है। ओह, अब मेरी समझ में आया कि इस दुनिया में कोई छोटा या बड़ा नहीं होता, सब की अपनी विशेषता है। मेरी मिठास में जो कमी थी, वो पुदीना ने पूरी कर दी। लगता है सब एक दूसरे के पूरक हैं।

पुदीने की मदद से ही सही मशीन वाले ने मेरे शरीर में बचा खुचा रस भी निकाल डाला। मुझे उसके चेहरे पर संतुष्टि का भाव दिखा तो सोच लिया, चलो किसी के तो काम आया। एक बार फिर मुझको मशीन में पिसने के लिए डाला गया, इस बार नींबू का टुकड़ा था। लगता है मिठास के साथ कुछ खट्टा भी चाहिए। तभी तो कहते हैं खट्टे मीठे अनुभव।

जिंदगी में यह जरूरी हैं, इसलिए मीठे के साथ खट्टा भी चलता है। अब मेरा निर्जीव शरीर उसके किसी काम का नहीं था। मैं तो वहां कूड़े की तरह था, जिसे हर कोई अपने से दूर करना चाहता है, जितनी जल्दी हो सके।

मुझे फेंक दिया गया, जितना जल्दी हो सका। मैं इसी तरह बार-बार मिट्टी में मिलना चाहता हूं,ताकि समाज में खुशियां बढ़ाने वाली मिठास का खजाना लेकर आता रहूं। क्या तुम मुझे खुशी खुशी विदा नहीं करोगे….. फिर मिलता हूं।

Rajesh Pandey

उत्तराखंड के देहरादून जिला अंतर्गत डोईवाला नगर पालिका का रहने वाला हूं। 1996 से पत्रकारिता का छात्र हूं। हर दिन कुछ नया सीखने की कोशिश आज भी जारी है। लगभग 20 साल हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर मानव भारती संस्था में सेवाएं शुरू कीं, जहां बच्चों के बीच काम करने का अवसर मिला। संस्था के सचिव डॉ. हिमांशु शेखर जी ने पर्यावरण तथा अपने आसपास होने वाली घटनाओं को सरल भाषा में कहानियों के माध्यम से प्रस्तुत करने के लिए प्रेरित किया। बच्चों सहित हर आयु वर्ग के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। स्कूलों एवं संस्थाओं के माध्यम से बच्चों के बीच जाकर उनको कहानियां सुनाने का सिलसिला आज भी जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। रुद्रप्रयाग के खड़पतियाखाल स्थित मानव भारती संस्था की पहल सामुदायिक रेडियो ‘रेडियो केदार’ के लिए काम करने के दौरान पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाने का प्रयास किया। सामुदायिक जुड़ाव के लिए गांवों में जाकर लोगों से संवाद करना, विभिन्न मुद्दों पर उनको जागरूक करना, कुछ अपनी कहना और बहुत सारी बातें उनकी सुनना अच्छा लगता है। ऋषिकेश में महिला कीर्तन मंडलियों के माध्यम के स्वच्छता का संदेश देने की पहल की। छह माह ढालवाला, जिला टिहरी गढ़वाल स्थित रेडियो ऋषिकेश में सेवाएं प्रदान कीं। जब भी समय मिलता है, अपने मित्र मोहित उनियाल व गजेंद्र रमोला के साथ पहाड़ के गांवों की यात्राएं करता हूं। ‘डुगडुगी’ नाम से एक पहल के जरिये, हम पहाड़ के विपरीत परिस्थितियों वाले गांवों की, खासकर महिलाओं के अथक परिश्रम की कहानियां सुनाना चाहते हैं। वर्तमान में, गांवों की आर्थिकी में खेतीबाड़ी और पशुपालन के योगदान को समझना चाहते हैं। बदलते मौसम और जंगली जीवों के हमलों से सूनी पड़ी खेती, संसाधनों के अभाव में खाली होते गांवों की पीड़ा को सामने लाने चाहते हैं। मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए ‘डुगडुगी’ नाम से प्रतिदिन डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे। यह स्कूल फिलहाल संचालित नहीं हो रहा है। इसे फिर से शुरू करेंगे, ऐसी उम्मीद है। बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहता हूं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता: बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी वर्तमान में मानव भारती संस्था, देहरादून में सेवारत संपर्क कर सकते हैं: प्रेमनगर बाजार, डोईवाला जिला- देहरादून, उत्तराखंड-248140 राजेश पांडेय Email: rajeshpandeydw@gmail.com Phone: +91 9760097344

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