तक धिना धिनः भगवान सिंह जी से मुलाकात और किस्से घुमक्कड़ी के
91 साल के भगवान सिंह जी,से लगभग 16 साल बाद मुलाकात हुई, वो भी उनके इठारना स्थित घर पर। मैं उन बुजुर्ग व्यक्ति को सुनने गया था, जिनको मैंने 75-76 वर्ष की आयु में भी अपनी ग्राम पंचायत के लिए बड़े उत्साह से कामकाज करते देखा था। उन दिनों, मैं एक समाचार पत्र में ऋषिकेश में तैनात था। वर्ष 2003 में देहरादून स्थानांतरण हो गया और भगवान सिंह जी से फिर कोई बात नहीं हो सकी। वक्त बीतता गया, जब कभी भी गडूल ग्राम पंचायत, इठारना की बात होती, भगवान सिंह जी का जिक्र जरूर होता। आज उनसे और परिवार से मिलकर बहुत अच्छा लगा।
कुछ दिन पहले मैंने अपने मित्र हेमचंद्र रियाल जी से इठारना चलने की बात की। तय हुआ कि मतदान करने के बाद मैं रियाल जी के घर रामनगर डांडा जाऊंगा और फिर वहां से इठारना चलेंगे। रियाल जी डोईवाला में गुरुकुल प्ले स्कूल का संचालन करते हैं। लंबी लाइन में लगकर दो घंटे बाद मतदान और फिर घुमक्कड़ी की तैयारी। करीब साढ़े 12 बजे उनके घर पहुंचा।
यहां मुझे लगा कि मैं 30 साल पहले वाली उस जगह पर पहुंच गया हूं, जहां कभी मेरा घर था। मेरा घर आज भी वहीं है, लेकिन अब उसके आसपास फसल वाले खेत नहीं हैं। यहां छोटे बड़े घर उग रहे हैं। उस समय, मैं स्कूल भी खेतों के बीच से होकर जाता था। स्कूल आज भी वहीं है, लेकिन मेरे घर से उस तक जाने का रास्ता बदल गया है।
रियाल जी के घर के पास जंगल है और दूर दूर तक हरियाली। खेतों में गेहूं और प्याज की फसल लहलहा रही है। उनके पिता पौड़ी जिले से 2004 में सेवानिवृत्त शिक्षक विशालमणि रियाल जी बताते हैं कि यहां रात को अभी भी रजाई ओढ़नी पड़ती है। दिन में पंखा कम ही चलाते हैं। सबकुछ नेचुरल और बहुत अच्छा है, लेकिन जंगली जानवरों का डर रहता है। फसलों को नुकसान पहुंचाते हैं। बारहसिंघा घरों के पास दिखते हैं। सुबह-शाम मोर खूब दिखाई देते हैं।
उन्होंने हमें अपने घर के आंगन में लगे बज्रदंती के पौधे दिखाए, जिनका नाम मैंने टूथपेस्ट के एड में सुना है। मैंने बज्रदंती के फूल को मुंह में रखा तो जीभ झनझनाने लगी और कुछ ही देर में मुंह में ठंडक और ताजगी का अहसास हो गया। वाकई कमाल का है यह पौधा और उसका फूल। वहीं, झाड़ की तरह दिखने वाले एक पौधे की पत्तियों और दानों की खुश्बू काफी पसंद आई। बताया कि इस पौधे का नाम मौरिय ( जैसा मैंने सुना और मेरी समझ में आया) है। इसके दानों को पीसकर नमक मिलाकर चटनी बनाएं या फिर सलाद पर छिड़क लीजिए। बहुत अच्छा स्वाद है।
रामनगर डांडा और थानो गांव की सड़कों से होते हुए हम पहुंचते हैं, कोटीमय चक स्थित महामाया माता बाला सुंदरी जी के मंदिर। थानो स्थित शहीद सैनिक नरपाल सिंह राजकीय इंटर कालेज में मतदान हो रहा था। कालेज के गेट के सामने कुछ लोग बैठे थे, लेकिन यहां हमने चुनाव जैसा नजारा महसूस नहीं किया। वैसे भी हम घुमक्कड़ी के तक धिना धिन पर थे, इसलिए फोकस सिर्फ और सिर्फ घूमने और गांव – गांव संवाद पर था।
माता बाला सुंदरी मंदिर पहुंचने के लिए 60 से अधिक सीढ़ियां चढ़नी थीं और सीढ़ियां चढ़ने से पहले हमें नजर आया वर्षों पुराना भवन, जो अब खंडहर है। हम जानना चाहते थे कि इस खंडहर का अतीत क्या है। सेवानिवृत्त शिक्षक मेहर सिंह सोलंकी, जो 12 वर्ष से मंदिर में पुजारी हैं, बताते हैं कि पीढ़ी दर पीढ़ी यह बात ही सुनी और सुनाई जा रही है कि यहां नागा साधु रहते थे, जो पास ही बावड़ी में स्नान करने के बाद उस भवन में जाते थे, जो अब खंडहर हो चुका है।
कहा जाता है कि नागा साधु इस भवन में ध्यान साधना के लिए जाते थे। करीब 72 वर्षीय सोलंकी जी बताते हैं कि सैकड़ों वर्ष पहले यहां जलकुंड में माता ने बालिका के रूप में प्रकट होकर दर्शन दिए थे, तभी से यहां माता बाला सुंदरी की पूजा अर्चना की जाती है। मंदिर की दीवार पर लगी पट्टिका के अनुसार मंदिर भवन संवत 1956 का यानी लगभग 118 साल पुराना है। सोलंकी जी ने बताया कि 12 अप्रैल, 2019 शुक्रवार को नवरात्र मेला शुरू होगा तथा रात्रि में जागरण होगा। 13 अप्रैल शनिवार को भंडारा होगा तथा 14 अप्रैल रविवार को मेला संपन्न होगा।
इठारना जाने के लिए पहले भोगपुर पहुंचना था। वहां से इठारना करीब 15 किमी. दूर है। पहाड़ का रास्ता, सड़क कहीं अच्छी तो कहीं केवल अपने होने अहसास कराती। एक तरफ खाई और दूसरी तरफ पहाड़। कहीं सीधी तो कहीं हल्की चढ़ाई। कहीं थोड़ा कम तो कहीं सीधा ढाल। कुछ जगहों पर न तो चढ़ाई है और न ही ढाल। हालात कोई भी हों, लेकिन सड़क के दोनों और के नजारे सुखदायक हैं। सर्पीली सड़कें और किनारों पर खड़े पेड़, झाड़ियां, बेल अपने होने का अहसास ही नहीं करा रहे, बल्कि उन लोगों से संवाद भी बनाते हैं, जो इनके बारे में जानते हैं। रियाल जी ने कई गुणकारी पौधों के बारे में जानकारियां दीं।
करीब चार किमी. चलने के बाद हमने रास्ते में पूछने पर एक व्यक्ति से बताया कि वो दूर पहाड़ पर दो मंदिर दिख रहे हैं, वह है इठारना। नीचे खाई में, जाखन नदी के किनारे बसे गांवों के नाम, सूर्यधार और सनगांव बताए। 1998 में, मैं अपने मित्र व बड़े भाई राकेश खंडूड़ी, जो वर्तमान में एक दैनिक अखबार में चीफ रिपोर्टर हैं, के साथ सूर्यधार और सनगांव गया था, वो भी भोगपुर से पैदल नदी के किनारे-किनारे। तब हमने लिखा था, सूर्यधार और सनगांव में विकास की रोशनी नहीं… लेकिन तब और आज के इन गांवों में बहुत बदलाव सा दिखा, हालांकि यह बदलाव मैंने ऊपर पहाड़ से देखकर ही महसूस किया।
उधर, दो मंदिरों को दूर से देखने पर एक बार तो मैंने सोचा, वापस चलो। वहां कौन जाएगा, बहुत दूर है। लेकिन मुझे पूर्व प्रधान भगवान सिंह जी से मिलना था, इसलिए वहां जाना तो है। यहां से करीब 12 किमी. और चलना है। मैं आपको बता दूं मैंने पहाड़ पर वर्षों बाद इतनी दूरी तक बाइक चलाई। कभी जरूरत ही नहीं पड़ी। 1998 में ऋषिकेश से शिवपुरी, कौड़ियाला तक और 1999 में हिमाचल के मंडी जिले के गांवों में दुपहिया चलाया। इसके बाद से कभी याद नहीं है कि पहाड़ पर दस किमी. से ज्यादा बाइक चलाई हो।
जैसे-जैसे ऊपर बढ़ते जाता, नीचे की ओर जाखन नदी पर नजर पड़ती तो सिर चकराने लगता। इसलिए मैंने इधर-उधऱ देखने की बजाय सड़क पर ध्यान रखना ज्यादा सुरक्षित समझा। मेरा बेटा सक्षम पीछे बैठा था। वह कहने लगा, पापा आप बाइक और सड़क पर ध्यान दो, इधर-उधर देखने के लिए मैं हूं न। सक्षम अभी 16 का है, इसलिए मैंने उसको बाइक चलाने का मौका अभी तक नहीं दिया। वह कैमरा चलाता है पीछे बैठकर। इस घुमक्कड़ी में रियाल जी की बाइक पर मेरा दूसरा बेटा सार्थक बैठा था, जो अभी 14 का है, इसलिए बाइक उसको भी नहीं। कैमरा कभी सक्षम तो कभी सार्थक तक घूमकर क्लिक हो रहा था।
मैं जैसा सोच रहा था, वैसा रास्ता था नहीं। कहीं कहीं ऊंची चढ़ाई से राहत भी मिल रही थी। राजकीय इंटर कालेज इठारना के भवन से थोड़ा आगे स्रोत का ठंडा पानी और ठंडी हवा ने मुझे आगे बढ़ने के लिए विवश कर दिया। हम थोड़ा आगे बढ़े तो पानी का एक और स्रोत हमारा इंतजार कर रहा था। मानो कह रहा था, कुछ देर रुको, मैं हूं न। वाह, इसी ठंडे पानी की तो जरूरत थी मुझे।
मेरे बेटे ने कहा, अभी तो स्रोत का पानी पिया था, फिर प्यास लग गई। मेरा जवाब था, यहां फिर कभी आऊं या नहीं, जितना पी पा रहा हूं, पीने दे। वाकई मैंने ऐसे स्रोत का पानी कभी कभार ही पिया। अक्सर देहरादून शहर में ही रहता हूं। लगता है, जिंदगी डोईवाला से देहरादून तक चक्कर लगाने के लिए ही है। मेरी हालत और बातें किसी बावले की तरह हो रही थी यहां। हम इठारना पहुंचे और भगवान सिंह जी के घर के बारे में पूछा। किसी ने कहा, प्रधान जी के बारे में पूछ रहे हो।
मैंने कहा, हां प्रधान जी के बारे में। क्या भगवान सिंह जी अब भी प्रधान हैं। जवाब मिला, नहीं, भगवान सिंह जी प्रधान नहीं है, लेकिन सब उनको प्रधान जी ही कहते हैं। हमने उस व्यक्ति से कहा, लौटते वक्त प्रधान जी के घर जाएंगे, पहले हमें बताओ, दो मंदिर जो दूर से दिखाई देते हैं, कहां हैं। उस व्यक्ति ने आगे और खड़ी चढ़ाई की ओर इशारा करते हुए कहा, आगे चले जाओ। फिर चढ़ाई, कोई बात नहीं। अब तो पहुंच ही गए।
यह चढ़ाई कुछ ज्यादा थी और मेरी बाइक बीच चढ़ाई पर रुक गई। वो तो अच्छा था, बेटे ने तुरंत उतरकर बाइक को पीछे ढलान पर जाने से रोक दिया। मैं किसी तरह बाइक से उतरा और तय किया कि बाइक को पहले गियर में पैदल चलकर ही आगे बढ़ाया जाए। किसी तरह चढ़ाई को पार कर लिया, लेकिन मुझे ज्यादा थकावट महसूस नहीं हुई।
कुछ आगे चले तो रास्ते में कक्षा सात में पढ़ने वाले अमन रावत, जो राजकीय इंटर कालेज इठारना के छात्र हैं, से मुलाकात हुई। अमन इठारना मंदिर से कुछ पहले सिमल बेच रहे हैं। उन्होंने बताया कि घर के पास सिमल का पेड़ है, वहीं से तोड़कर लाया हूं। अक्सर यहां सिमल बेचता हूं। उन्होंने दो पैकेट बना रखे थे, जिनमें कुल मिलाकर दो किलो सिमल होंगे। एक पैकेट दस रुपये का बिक रहा है। हमारे आग्रह पर अमन ने हम नन्हें- नन्हें बच्चे हैं… देशभक्ति की कविता सुनाई। अमन ने हमें यह भी बताया कि सिमल की सब्जी कैसे बनती है। वह कहते हैं कि सिमल की सब्जी काफी स्वादिष्ट होती है, मेरी मम्मी बनाती हैं।
हमें क्लास नौ में पढ़ने वाले अमित भी मिले । उन्होंने बताया कि वह फौजी बनना चाहते हैं। इसके लिए तैयारी भी हो रही है। उन्होंने अपना फेवरेट सब्जेक्ट अंग्रेजी बताया। अमित ने हमें कोई कविता या कहानी तो नहीं सुनाई, लेकिन इठारना में सावन में लगने वाले मेले के बारे में काफी जानकारी दी।
हम मंदिर के पास बड़े मैदान में पहुंचे, जिसके एक किनारे पर गडूल ग्राम पंचायत भवन भी है। बीच मैदान में एक कुंड बना है, जो वर्तमान में सूखा है। मैदान का एक किनारा खाई की ओर जाता है। सामने विशाल पहाड़, पूरे नजारे का खास बनाता है। हमने मां चामुंडा देवी, श्री नीलकंठ महादेव, श्री नागराजा देवता, श्री बाला जी के मंदिर में दर्शन किए।
लौटते समय, हम पूर्व प्रधान भगवान सिंह जी से मिलने उनके घर पहुंचे। उनके बेटे राजेंद्र सिंह तोपवाल भारतीय वन अनुसंधान संस्थान देहरादून में साइंटिस्ट और कृष्ण मोहन उत्तराखंड पेयजल निगम में इंजीनियर हैं, मतदान करने इठारना आए थे। उनसे भी मुलाकात हुई। भगवान सिंह जी आज भी अपने गांव के विकास के लिए कुछ करना चाहते हैं। घर से सामने की ओर इशारा करके बताते हैं कि वहां सड़क बन रही है। कुछ ही समय में टिहरी से हमारे गांव की दूरी काफी कम हो जाएगी। हमें टिहरी जाने के लिए ऋषिकेश जाने की जरूरत नहीं होगी, यहां से सीधे आगराखाल पहुंचेंगे। देहरादून से टिहरी की दूरी करीब 30 किमी. कम हो जाएगी। सड़क बनेगी तो गांव की तरक्की होगी।
भगवान सिंह जी 1955 में गडूल ग्राम पंचायत के उपप्रधान चुने गए थे। बाद में गडूल साधन सहकारी समिति के अध्यक्ष व गडूल के ग्राम प्रधान भी रहे। हाल ही में उनकी रीढ़ की हड्डी का आपरेशन हुआ था। अब वह स्वस्थ हैं और रोजाना सुबह पांच बजे उठ जाते हैं। वह अपने सभी कार्य स्वयं करते हैं। कहते हैं, जो आलस करता है, उसका जीवन में कुछ नहीं हो सकता। सोकर जल्दी उठने वाले ही तरक्की करते हैं। स्वास्थ्य अच्छा रहता है तो कामकाज में मन भी लगता है। बताते हैं कि गांवों में खेतीबाड़ी करने वाले लोग कम ही हैं। युवा घरों से बाहर नौकरी करने चले गए। गांवों में सुविधाएं बढ़ी हैं। पहले तो गडूल से ऋषिकेश जाने से पहले कई बार सोचना पड़ता था। साधन ही कम थे। सड़कें भी बहुत अच्छी नहीं थीं।
हमने पूछा, क्या आप बच्चों को कहानियां सुनाते हैं। कहते हैं, कहानियों के माध्यम से आप इतिहास को साझा कर सकते हैं। आप अपने अनुभवों को पीढ़ियों तक पहुंचा सकते हैं। कहानियां संदेश देती हैं, लेकिन बच्चों के पास कहानियां सुनने के लिए समय ही कहां है। वो खेलने में व्यस्त रहते हैं। मुझे बच्चों से बातें करना अच्छा लगता है। हमने भगवान सिंह जी के भाई 88 वर्षीय वीर सिंह जी, 82 वर्षीय सेवानिवृत्त शिक्षक हीरा सिंह जी, 78 वर्षीय सेवानिवृत्त शिक्षक रोशन सिंह जी, सेवानिवृत्त शिक्षिका 72 वर्षीय सोमती देवी जी, 88 वर्षीय नागदेई जी, 74 वर्षीय इंद्र देई जी से भी कहानियों पर बातें की। उनके अनुभवों को जानने की कोशिश की। घरेलू कार्यों में सहयोग करने वाले गुमान सिंह से भी मुलाकात की। हमें क्लास टू के अंशुमन और क्लास थ्री के अनिकेत ने मछली जल की रानी है… कविता सुनाईं।
हमने आग्रह किया तो सेवानिवृत्त शिक्षिका सोमती देवी जी ने कहानी सुनाई, जो मां और बच्चों के स्नेह को प्रदर्शित करती है। 16 साल पुराने परिचय को फिर से मजबूत करने की कोशिश करके हम लौट आए, अपने घर की ओर। लौटते वक्त ज्यादा तकलीफ नहीं हुई, क्योंकि पहाड़ जैसी चढ़ाई न के बराबर थी। हम स्वच्छ आबोहवा से अपने तन मन को रीचार्ज करके भी तो लौट रहे थे….। फिर मिलेंगे, तब तक के खुशियों और शुभकामनाओं का बहुत सारा तक धिनाधिन…।