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बोया बीज बबूल का…कहावत से गुणकारी बबूल का नाम हटा देना चाहिए

लड्डू में इस्तेमाल होने वाली गोंद बबूल के पेड़ से ही तो मिलती है

न्यूज लाइव डेस्क

जब कभी भी हम किसी व्यक्ति के ऐसे कार्यों पर चर्चा करते हैं, जिनका नकारात्मक फल मिलता है, तो अक्सर यह कहा जाता है कि बोया बीज बबूल का तो आम कहां से होय! पर, यह कहावत हमेशा से आम की तुलना में बबूल के साथ अन्याय करती आई है। बात सही है कि बबूल बोया है तो बबूल ही मिलेगा, पर क्या बबूल आम से कमतर है। शायद नहीं, बबूल, जिसका दूसरा नाम कीकर भी है, को इस कहावत से अलग करके देखना चाहिए। राजस्थान में कीकर को कल्प वृक्ष के रूप में जाना जाता है, क्योंकि यह मरू भूमि में हरियाली का आभास कराने के साथ ही पशुओं के लिए चारा उपलब्ध कराता है।

घरों में सर्दियों के मौसम में खाने वाली गोंद मिलाकर स्वादिष्ट लड्डू बनाए जाते हैं। यह गोंद बबूल यानी कीकर या इसे अकेकिया नाम से जानें, इसके पेड़ के तनों से निकलने वाले स्राव को सुखाकर बनता है। हालांकि इस गोंद का कोई स्वाद नहीं होता, पर यह गुणकारी होता है। बबूल कितना  गुणकारी है, आइए जानते हैं। पहले इस गोंद का इस्तेमाल कागज चिपकाने में भी किया जाता था, पर अब बदलते वक्त के साथ, चिपकाने के लिए कैमिकल से बनाई जाने वाली ग्लू स्टिक का इस्तेमाल होता है।

बबूल की हरी पतली टहनियां दातून के काम आती हैं। बबूल की दातुन दांतों को स्वच्छ और स्वस्थ रखती है। बबूल की लकड़ी का कोयला भी अच्छा होता है। हमारे यहां दो तरह के बबूल अधिकतर पाए और उगाए जाते हैं। एक देशी बबूल जो देर से होता है और दूसरा मासकीट नामक बबूल।

बबूल के पेड़ों और पौधों का विभिन्न संस्कृतियों और उद्योगों में व्यापक उपयोग होता है।

अंग्रेजी में Acacia कहे जाने वाले बबूल के कई गुण हैं। Acacia शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा में हुई है। यह ग्रीक शब्द “अकाकिया” से आया है, जो मिस्र के कांटेदार पेड़ (बबूल अरेबिका) को संदर्भित करता है। Acacia में विशेष रूप से अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका में पाए जाने वाले पेड़ों और झाड़ियों की कई प्रजातियां शामिल हैं। ये अपनी विशिष्ट मिश्रित पत्तियों के लिए जाना जाता है और इसमें अक्सर कांटे होते हैं। ये अपनी लकड़ी, गोंद और सजावटी गुणों के लिए मूल्यवान हैं।

बबूल की लकड़ी को उसकी मजबूती, स्थायित्व और आकर्षक पैटर्न के लिए महत्व दिया जाता है। इसका उपयोग फर्नीचर बनाने, कैबिनेटरी, फर्श और निर्माण में किया जाता है।

बबूल की कुछ प्रजातियाँ गोंद का उत्पादन करती हैं, जो पेड़ के रस से प्राप्त एक प्राकृतिक गोंद है। गोंद का उपयोग विभिन्न प्रकार के अनुप्रयोगों में किया जाता है, जिसमें खाद्य और पेय उत्पादन (एक स्टेबलाइजर और गाढ़ा करने वाले एजेंट के रूप में), फार्मास्यूटिकल्स, सौंदर्य प्रसाधन और स्याही शामिल हैं।

बबूल की कुछ प्रजातियों की खेती उनके आकर्षक पत्ते, फूलों और कभी-कभी कांटेदार उपस्थिति के कारण बगीचों और सजावट के लिए की जाती है।

विभिन्न संस्कृतियों में पारंपरिक चिकित्सा प्रणालियों ने अपने औषधीय गुणों के लिए बबूल के पेड़ के हिस्सों का उपयोग किया है। छाल, पत्तियों और फलियों सहित पेड़ के विभिन्न हिस्सों का उपयोग खांसी, गले में खराश, दस्त, घाव और त्वचा की स्थिति जैसी बीमारियों के इलाज के लिए किया गया है।

बबूल की पत्तियां और फलियां अपनी पोषण सामग्री और सूखे की स्थिति का सामना करने की क्षमता के कारण शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में पशुओं के लिए मूल्यवान चारे के रूप में काम कर सकती हैं।

बबूल के पेड़ अक्सर कठोर वातावरण में पनपने की क्षमता और उनके नाइट्रोजन-फिक्सिंग गुणों के कारण मिट्टी संरक्षण, कटाव नियंत्रण और पुनर्वनीकरण प्रयासों के लिए लगाए जाते हैं, जो मिट्टी की उर्वरता में सुधार कर सकते हैं।

कुछ संस्कृतियों में, बबूल की लकड़ी का उपयोग टोकरियाँ, उपकरण, संगीत वाद्ययंत्र और सजावटी वस्तुएँ बनाने के लिए किया जाता है।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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