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कबीले में चुनाव-11: पहाड़ में राज दरबार के सियासी वादे का सच क्या है

खरगोश और हिरन मैदान में बैठे धूप सेंक रहे हैं। हिरन ने पूछा, दोस्त क्या तुम पहाड़ों की सैर पर चलोगे। खरगोश ने कहा, मुझे तो पहाड़ बहुत पसंद हैं, मेरा तो मन करता है यहां से वहां, वहां से यहां, जहां मन करे, घूमने जाऊं। पर, इस समय तो पहाड़ में बहुत सर्दी होगी।

खरगोश ने पूछा, पहले यह बताओ, अचानक से तुम्हारे मन में पहाड़ों की सैर का विचार कैसे आ गया।

हिरन ने कहा, मैंने सुना है कबीले में सियासत को अब फिर से पहाड़ याद आने लगा है।

खरगोश बोला, इसमें नया क्या है, पहाड़ तो हमेशा सियासत के केंद्र में रहे हैं। लगता है तुम, सर्दियों में होने वाली सभा की बात कर रहे हो। वहां सुना है, कबीले के राजा, बड़े दरबारियों और भी न जाने कितने बड़े-बड़े सूरमाओं को बैठाने की तैयारी की जा रही है। मुझे तो लगता है कि कबीले की प्रजा के लिए सभी आदेश वहीं से होंगे।

हिरन ने कहा, तुमसे छोटा हूं, पर मैं भी छह साल से कम का नहीं हूं। मैं तो बहुत समय से ऐसा सुनता रहा हूं। पता नहीं कब बैठेंगे ये पहाड़ वाले भवनों में। अब चुनाव आ गया है तो प्रजा को लुभाने के लिए फिर से पहाड़ में कबीले के राजा को विराजमान करने की याद आ गई।

तभी फुंकनी यंत्र से ध्वनि आई, सुनो मैं बताता हूं असली बात क्या है।

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खरगोश बोला, तुम्हारा मौन उपवास टूट गया क्या।

फुंकनी यंत्र ने कहा, मेरी तो नींद ही टूटी पड़ी है। सो कहां पा रहा हूं, यहां पता नहीं कब क्या हो जाए। पहाड़ की सड़कों की तरह यहां सियासत भी बहुत सारे मोड़ों से होकर गुजर रही है। बड़े महाराज के सियासी निर्णय तो कोई मुश्किल से ही पकड़ पाएगा।

बागी, बगावत से शुरू उनका सियासी राग पहले देवता के दरबार तक पहुंचा और फिर अचानक उनको कबीले के राजा और उनके दरबारियों को पहाड़ वाले भवन में बैठाने का ध्यान आ गया। मेरा कहना है, जब आप राजा थे, तब आपने ऐसा क्यों नहीं किया। क्या उस समय आवश्यकता नहीं थी या फिर अब आवश्यकता अधिक है। आपकी आवश्यकता को हम समझ सकते हैं, इस बार आपको राजा की गद्दी के लिए कुछ भी करना हो, आप करेंगे।

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खरगोश ने पूछा, फुंकनी यंत्र को बहुत गुस्सा आ रहा है।

फुंकनी यंत्र बोला, गुस्से की बात नहीं खरगोश जी, मैं सो नहीं पा रहा। मुझे सियासत की हर चाल को समझना है। यहां तो पता नहीं कब क्या हो जाए। अच्छा तो मैं तुम्हें बताना चाह रहा था कि पहाड़ पर राजा को बैठाएंगे का वादा, इरादा कहां से सामने आया।

सियासत में लुका छिपी का खेल चल रहा है। बड़े महाराज मौन उपवास से अपने अभियान शुरू करते हैं। वहीं गुणी महाराज बिल्कुल शांत होकर, किसी को भी खबर नहीं करके सियासी निर्णय ले रहे हैं।

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पर, बड़े महाराज तो पारखी हैं, वो जरा सी भी हलचल को समझ जाते हैं। अभी तक गुरु महाराज के देवता के दर्शन को लेकर सियासत कर रहे थे, पर अचानक मैदान से राजा की गद्दी को पहाड़ पहुंचाने का वर्षों पुराना मुद्दा याद आ गया।

वैसे, यह मुद्दा अचानक याद नहीं आया, उनको भनक लगी कि गुणी महाराज इसमें कुछ बड़ा करने वाले हैं। बस फिर क्या था, उन्होंने इस पर अपना अभियान शुरू कर दिया और अपने सवालों की लंबी सूची बना दी। गुणी महाराज से इन सवालों के उत्तर मांगे हैं।

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प्रजा भी चाहती है कि राजा को अपने दरबारियों व बड़े-बड़े सूरमाओं के साथ पहाड़ वाले भवनों में विराजमान होना चाहिए। वहां की समस्याओं को समझना चाहिए।

हिरन ने पूछा, सुना है पहले अक्कड़ महाराज ने ऐसा करने की ओर एक कदम बढ़ाया था। उन्होंने व्यवस्था दी थी कि गर्मियों में राजा वहां अपने दरबारियों के साथ बैठेंगे।

फुंकनी यंत्र बोला, हां ऐसा हुआ था, पर गर्मियों में क्यों। सर्दियों में क्यों नहीं। गर्मियों में तो पहाड़ों पर घूमना सभी को अच्छा लगता है। क्या वहां दरबारियों और उनके सूरमाओं के भ्रमण के लिए ऐसा किया गया था। पहाड़ में प्रजा के बीच जाना है तो सर्दियों में जाओ। उस समय प्रजा के बीच रहो, जब दुश्वारियों की बर्फ पड़ती है। तब पता चल जाएगा कि तुम्हें प्रजा की कितनी चिंता है।

खरगोश ने कहा, मैंने सुना था कि वो धीरे-धीरे हमेशा के लिए राज गद्दी को वहीं स्थापित करने का मन बना चुके थे। पर, क्या करें…गद्दी तो उनका ही साथ छोड़ गई।

फुंकनी यंत्र बोला, बहुत अच्छा अवसर था उनके पास। वो पूरे समय के लिए ही राजगद्दी को पहाड़ पर पहुंचा देते। पर, वो भी चुनाव से ठीक पहले ऐसा करना चाहते थे। वो जानते हैं कि प्रजा बहुत जल्दी भूल जाती है। चुनाव के समय किए गए कार्यों को याद रखा जाता है। इसीलिए तो चुनाव से पहले ही जनता के हित की बातें जोर-शोर से होती हैं।

चुनाव से पहले राजा और दरबारियों को पहाड़ वाले भवन में विराजमान करने की बात करने वाले क्या वहां स्वयं रहते हैं।

फुंकनी यंत्र बोला, राजा और उनके दरबारी कोई वहां नहीं रहता। इनमें से बहुत ने मैदानों में सुविधाओं वाले स्थानों पर आवास स्थापित कर दिए हैं।

हिरन बोला, अब बताओ… सियासत में कभी दो कदम आगे, फिर एक कदम पीछे और अचानक से ऊंची कूद लगाने से क्या फायदा होता होगा।

फुंकनी यंत्र ने कहा, हिरन ऊंची छलांगें लगाकर आगे बढ़ते जाते हैं। पर सियासी लोग ऐसा नहीं करते। वो सामने वाले की चाल को परखकर निर्णय लेते हैं। यदि उनको लगता है कि उनकी चाल को रोक नहीं पाएंगे तो वो अड़ंगी लगाने के उपाय ढूंढते हैं। अड़ंगी जानते हो या नहीं। इंसानों में अड़ंगी लगाने का खेल वर्षों से होता आया है।

सामान्य भाषा में समझो, किसी भी दौड़ते हुए व्यक्ति के पैरों के बीच में अपना पैर फंसा देना। इससे उसकी गति प्रभावित हो जाएगी। हो सकता है कि वो गिर जाए, उसके चोट भी लग सकती है। यहां अड़ंगी का मतलब अड़ंगा से है। अड़ंगा का मतलब होता है बाधा पहुंचाना।

सियासत में अड़ंगा इसलिए लगाया जाता है, क्योंकि यहां श्रेय लेने की होड़ रहती है। यह बात सच है कि कोई भी सियासी गुट यह नहीं चाहता है कि उनके विरोधी गुट प्रजा के हित में कोई बड़ा निर्णय लें। यदि ऐसा हो जाता है तो श्रेय लेने का अवसर छिन जाएगा।

ऐसा भी होता है कि चुनाव से पहले किसी बड़े निर्णय के होने का शोर मचाया जाता है। बाद में कहा जाता है कि हमने तो शुरुआत कर दी थी, पर चुनाव आ गया, इसलिए समय ही नहीं बचा था। अब फिर से गद्दी तक पहुंचा दो, सबसे पहले यही करेंगे। पर, गद्दी पर विराजमान होते ही सबसे पहले प्रजा से किए वादे भुलाए जाते हैं।

कबीले की सियासत में ऐसा ही कुछ हो रहा है। बड़े महाराज को लग रहा है कि गुणी महाराज को पहाड़ में राजा की गद्दी पहुंचाने का श्रेय न मिल जाए। इसलिए उन्होंने सवालों की बौछार कर दी। वो यह कभी नहीं कहेंगे कि गुणी महाराज ऐसा करते हैं तो हम उनको सहयोग करेंगे।

वो इस कार्य को स्वयं करना तो चाहते हैं, पर गद्दी पर रहकर क्यों नहीं, यह प्रजा की समझ में नहीं आया। इस बार कह रहे हैं कि गद्दी मिल जाएगी तो इस पर निर्णय ले लेंगे। पता नहीं वो सियासत कर रहे हैं या सच कह रहे हैं। वैसे तो गुणी महाराज के गुट वाले राजाओं ने भी कुछ खास ध्यान नहीं दिया। अक्कड़ महाराज ने गर्मियों में गद्दी को विराजमान करने की व्यवस्था अवश्य की थी।

खरगोश बोला, इतनी पेचीदा कहानी है सियासत की। मेरा तो दिमाग बहुत छोटा है, लगता है फुल हो गया। कल मिलते है हिरन जी। यह कहते दोनों अपने ठिकानों की ओर दौड़ लगा लेते हैं।

*यह काल्पनिक कहानी है। इससे किसी का कोई संबंध नहीं है।

 

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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