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गुज्जरों की भैंसों ने खड़ा कर दिया गुटेल का जंगल !

भैंसों को गुटेल के जंगल तक ले जाने के पीछे भी एक किस्सा है

कुनाऊं (पौड़ी गढ़वाल)। राजेश पांडेय

भैंसों ने गुटेल का जंगल (Trewia Nudiflora Forest) खड़ा कर दिया, जब यह बात गुज्जर परिवारों (Gujjar Families) से सुनी तो मैं आश्चर्य में पड़ गया। मन में सवाल उठा, ऐसा कैसे हो सकता है। भैंसे इतनी समझदार कैसे हो गईं और पशु ऐसा कैसे कर सकते हैं। जब मैंने युवा अमीर हमजा (Amir Hamza) से इस संबंध में बात की, तो उन्होंने बताया, गुटेल (Gutel) के पेड़ों का जंगल बनने की सबसे बड़ी वजह हमारी गोजरी भैंसे (Gojri Buffalos) हैं। लगभग 12 साल पहले तक तो, हमें यह भी नहीं पता था कि गुटेल की पत्तियां हमारी भैंसों के लिए भरपूर लाभदायक हैं। भैंसों को गुटेल के जंगल तक ले जाने के पीछे भी एक किस्सा है, जिसकी हम अक्सर चर्चा करते हैं।

अमीर हमजा समाज शास्त्र में पोस्ट ग्रेजुएट हैं। उन्होंने दो साल पहले गुज्जरों के वनाधिकारों, उनकी शिक्षा संस्कृति, महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए वन गुज्जर युवा ट्राइबल संगठन बनाया है।

पौड़ी गढ़वाल (Pauri Garhwal) के कुनाऊं चौड़, गोहरी रेंज (Gohri Range) में रहने वाले उनके साथी आफताब चौहान का घर, वहीं है, जहां गुटेल का जंगल बना है। आफताब हमें वहां ले जाते हैं और अपनी गोजरी भैंसों और गुटेल के पेड़ों का विस्तार से जिक्र करते हैं। आफताब ग्रेजुएशन कर रहे हैं।

कुनाऊं चौड़ में गुटेल के जंगल के बारे में बताते हुए आफताब चौहान। फोटो- राजेश पांडेय

वो बताते हैं, ” गोजरी भैंस, गुज्जरों के साथ सीजनल माइग्रेशन (Seasonal Migration of Gujjar ) के लिए ही बनी हैं। हमारी भैंसे एक जगह बांधकर नहीं पाल सकते। इसको हम डेयरी वाले सिस्टम में नहीं पाल सकते। एक ही जगह बांधकर खिलाते रहेंगे तब यह दूध नहीं देंगी। गोजरी भैंसे चरने वाले पशु हैं, इसलिए इनको मौसम के हिसाब से माइग्रेट करना पड़ता है। गर्मियों में दुबड़ा घास, काई घास, पतरुंजड़ जैसी कई तरह की घास चरती है और सर्दियों में पेड़ों की पत्तियां खाती हैं।”

खैरी स्थित बनवाह क्षेत्र के एक डेरे पर गोजरी भैंसे। फोटो- राजेश पांडेय

“2010 में हमें राजाजी टाइगर रिजर्व (Rajaji Tiger Reserve) के जंगलों में जाने से रोक दिया गया। हमने पशुओं के लिए धान का फोडर पुआल इकट्ठा करके पशुओं को खिलाना शुरू कर दिया। इसके बाद, हमें डेरों पर पुआल ले जाने से मना कर दिया गया। हमें कहा गया कि आप लोग यहां से गैंडीखाता चले जाओ। पुआल पर भी रोक लगने से हमारे पास भैंसों को खिलाने के लिए चारे की कोई व्यवस्था नहीं थी। हमारे बहुत पशु भूख से बेहाल होकर मारे गए,” आफताब बताते हैं।

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उन्होंने बताया, “गंगाभोगपुर में गुटेल का जंगल होने की जानकारी मिली। हम अपने पशुओं को वहां ले गए। पेड़ों की पत्तियां काटकर     ( Tree lopping) उनको खिलाईं। इससे पहले हमने कभी अपनी भैंसों को गुटेल की पत्तियां नहीं खिलाईं। इसके बारे में जानकारियां भी नहीं थीं। पत्तियों के साथ भैंसों ने गुटेल का फल भी खाया। वापस डेरे पर कुनाऊं चौड़ लौट आए। यहां भैंसों के गोबर में हमने बीज देखे, जो वो पचा नहीं पाई थीं। कुछ बीज हमने इस उम्मीद में बो दिए कि इनसे गुटेल के पौधे उग जाएंगे। बाद में ऐसा हुआ भी। वहीं, जहां – जहां भैसों ने गोबर किया, वहां गुटेल के पौधे उग आए। हमने पौधों की सुरक्षा की, और आज यहां लगभग 300 से ज्यादा पेड़ खड़े हैं। वर्ष 2010 तक यहां गुटेल का एक भी पेड़ नहीं था।”

पौड़ी गढ़वाल जिले के कुनाऊं चौड़ में गुटेल का जंगल। फोटो- राजेश पांडेय

गुटेल के एक पेड़ के नीचे कुंतलों बीज होता है। दूर-दूर के लोग यहां से बीज ले जाते हैं। श्यामपुर, गैंडीखाता में  भी यहां से ले जाकर गुटेल के बीज बोए गए। इसकी छाया बहुत अच्छी होती है। हम घर के पास आंगन में भी इसको लगाते हैं। अप्रैल-मई में गुटेल के पेड़ पत्तियों, फलों से लद जाएंगे। इन माह पेड़ों की लॉपिंग करते हैं। हम गुज्जर सेला पर्व पर पौधे लगाते हैं, ठीक उसी तरह जैसे आप हरेला पर्व पर पौधे लगाते हैं। हमारे वन गुज्जर युवा ट्राइबल संगठन  ने सेला पर्व पर गुटेल सहित कई तरह के पौधे लगाए हैं।

गुटेल के बारे में

यह औषधीय पौधा है, जिसका उपयोग आयुर्वेद, सिद्ध चिकित्सा पद्धतियों में होता है। यह पेट संबंधी विकारों और सूजन में गुणकारी होता है। इसकी जड़ का काढ़ा पेट फूलने, पेट के दर्द में लाभकारी होता है। यह हिमालयी क्षेत्र भारत के कुमाऊं से चीन के हैनान द्वीप तक फैला है। इन प्रजातियों में बड़े कठोर फल होते हैं। भारत में, ‘गुटेल’ या ‘खमारा’ नाम से जाना जाता है। यह छोटे आकार का पेड़, आम तौर पर 5 से 8 मीटर तक ऊँचा होता है। ट्रेविआ न्यूडीफ्लोरा के फल पकने पर बड़े, सख्त और फीके रंग के होते हैं। हालांकि, बंदरों, चमगादड़ों और पक्षियों के लिए अनाकर्षक, ट्रेविया फल एक सींग वाले एशियाई गैंडे द्वारा खाए जाते हैं। बरसात के मौसम (जून-अक्टूबर) के दौरान, ट्रेविया फल गैंडों के लिए  महत्वपूर्ण भोजन स्रोत बन जाता है। स्रोत- 1 व 2

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Rajesh Pandey

उत्तराखंड के देहरादून जिला अंतर्गत डोईवाला नगर पालिका का रहने वाला हूं। 1996 से पत्रकारिता का छात्र हूं। हर दिन कुछ नया सीखने की कोशिश आज भी जारी है। लगभग 20 साल हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर मानव भारती संस्था में सेवाएं शुरू कीं, जहां बच्चों के बीच काम करने का अवसर मिला। संस्था के सचिव डॉ. हिमांशु शेखर जी ने पर्यावरण तथा अपने आसपास होने वाली घटनाओं को सरल भाषा में कहानियों के माध्यम से प्रस्तुत करने के लिए प्रेरित किया। बच्चों सहित हर आयु वर्ग के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। स्कूलों एवं संस्थाओं के माध्यम से बच्चों के बीच जाकर उनको कहानियां सुनाने का सिलसिला आज भी जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। रुद्रप्रयाग के खड़पतियाखाल स्थित मानव भारती संस्था की पहल सामुदायिक रेडियो ‘रेडियो केदार’ के लिए काम करने के दौरान पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाने का प्रयास किया। सामुदायिक जुड़ाव के लिए गांवों में जाकर लोगों से संवाद करना, विभिन्न मुद्दों पर उनको जागरूक करना, कुछ अपनी कहना और बहुत सारी बातें उनकी सुनना अच्छा लगता है। ऋषिकेश में महिला कीर्तन मंडलियों के माध्यम के स्वच्छता का संदेश देने की पहल की। छह माह ढालवाला, जिला टिहरी गढ़वाल स्थित रेडियो ऋषिकेश में सेवाएं प्रदान कीं। जब भी समय मिलता है, अपने मित्र मोहित उनियाल व गजेंद्र रमोला के साथ पहाड़ के गांवों की यात्राएं करता हूं। ‘डुगडुगी’ नाम से एक पहल के जरिये, हम पहाड़ के विपरीत परिस्थितियों वाले गांवों की, खासकर महिलाओं के अथक परिश्रम की कहानियां सुनाना चाहते हैं। वर्तमान में, गांवों की आर्थिकी में खेतीबाड़ी और पशुपालन के योगदान को समझना चाहते हैं। बदलते मौसम और जंगली जीवों के हमलों से सूनी पड़ी खेती, संसाधनों के अभाव में खाली होते गांवों की पीड़ा को सामने लाने चाहते हैं। मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए ‘डुगडुगी’ नाम से प्रतिदिन डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे। यह स्कूल फिलहाल संचालित नहीं हो रहा है। इसे फिर से शुरू करेंगे, ऐसी उम्मीद है। बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहता हूं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता: बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी वर्तमान में मानव भारती संस्था, देहरादून में सेवारत संपर्क कर सकते हैं: प्रेमनगर बाजार, डोईवाला जिला- देहरादून, उत्तराखंड-248140 राजेश पांडेय Email: rajeshpandeydw@gmail.com Phone: +91 9760097344

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