नदियों से लाए पौधों को खेत में लगाकर लाखों कमा रहे किसान
नकरौंदा गांव के 58 साल के किसान लखवीर सिंह ने 60 बीघा खेत में बोया है सुसवा का साग
राजेश पांडेय। न्यूज लाइव
“हमने देखा कि लोग नदियों, नालों के किनारे उगे साग को तोड़कर बाजार में बेच रहे थे। इसमें उनको काफी मेहनत करनी पड़ रही थी। वैसे भी प्रदूषित हो चुकी नदियों के किनारे साग कम ही उग रहा है। करीब 12 साल पहले की बात है, हमने छिद्दरवाला में सौंगनदी के किनारे उगे साग के पौधों को उखाड़कर अपने खेतों में बोना शुरू किया। यह काम हमने श्रमिकों की मदद से किया। लगभग पांच बीघा खेत में शुरू यह प्रयोग सफल रहा, आज हमारे 60 बीघा खेत में अच्छी पैदावार के साथ इस साग का उत्पादन हो रहा है। शुरू में हमारे इस प्रयोग का लोगों ने मजाक उड़ाया, पर अब हमारी सफलता पर खुशी व्यक्त करते हैं। हमारे सुसवा फार्म को देखने आते हैं। ”
देहरादून के नकरौंदा गांव के 58 साल के किसान लखवीर सिंह, हमारे साथ खेती किसानी में अपने अनुभवों को साझा कर रहे थे। उन्होंने बताया, “इस समय 40 परिवार उनके साथ, सीधे तौर पर सुसवा की खेती से जुड़े हैं। शुरुआत में उन्होंने खुद ही सुसवा की खेती की, पर कुछ वर्षों से अक्तूबर माह में खेतों को तैयार करके उन लोगों को किराये पर उपलब्ध करा देते हैं,जो उनके साथ पहले से ही इस खेती में काम कर रहे थे। सुसवा साग सीजनल उपज है, जिसको अक्तूबर में रोपा जाता है, करीब डेढ़ माह में यह काटने लायक हो जाता है। अक्तूबर से मार्च-अप्रैल तक के सीजन पर प्रति बीघा 12 हजार रुपये की दर से किराया लिया जाता है।”
“उनके खेतों में सुसवा उगाने वाले परिवार बहुत उत्साहित हैं। औसतन एक बीघा में 60 से 70 किलो तक सुसवा की कटाई करके बाजारों में बेचते हैं। कम से कम 50 रुपये प्रति किलो के भाव में भी एक बीघा खेती करने वाले व्यक्ति को प्रतिदिन तीन से चार हजार रुपये की बिक्री हो जाती है, जिसमें से सभी खर्चों को हटाकर कम से कम दो से ढाई हजार रुपये प्रतिदिन बच जाते हैं। इसलिए ये लोग सुबह होते ही टैंपों, मोटरसाइकिलों पर सुसवा का साग लेने के लिए आते हैं।”
ऐसे ही युवा नरेंद्र और अर्जुन, जो देहरादून शहर के ब्राह्मणवाला इलाके में रहते हैं, का कहना है, “उनको सुसवा के सीजन (नवंबर से मार्च तक) में प्रतिदिन दो से ढाई हजार रुपये की आय हो जाती है। इस खेती ने उनको खुशहाल किया है, बच्चों की परवरिश सही तरीके से कर पा रहे हैं। बाकी के महीनों में वो बागीचों की रखवाली करते हैं।”
किसान लखवीर सिंह के खेतों के पास ही कुदरती जलस्रोत फूटे हैं, जिनसे 24 घंटे पानी उपलब्ध रहता है। यहां इतना पानी है कि 60 बीघा खेतों से लगातार बहते हुए नजदीकी वन क्षेत्र में चला जाता है। यह फसल केवल पानी पर निर्भर रहती है, वो भी चलते हुए पानी पर। खेतों में पानी खड़ा होने से सुसवा की पौध खराब होने की आशंका रहती है। यहां खेतों में ठीक उस तरह की व्यवस्था करनी होती है,जैसी नदियों में होती है।
सुसवा का पौधा तेजी से बढ़ता है, ठीक बरसीम (पशुओं का चारा) की तरह। पांच-छह माह में इसको छह से सात बार काटा जा सकता है। यह पौष्टिक होता है, इसमें विटामिन सी अधिक मात्रा में होता है। यह शरीर में आयरन की मात्रा बढ़ाता है। हरी पत्तियों वाले इस साग को विदेशों में खूब पसंद किया जाता है, वहां इसको water cress के नाम से जाना जाता है। विदेश में यह ज्यादातर सलाद में शामिल होता है।
देहरादून में इसकी कीमत की बात करें, तो सर्दियों में खाए जाने वाले इस साग का दाम 80 से सौ रुपये प्रति किलो तक भी पहुंच जाता है। मार्केट में डिमांड कम होने पर यह 50 रुपये प्रति किलो तक हो जाता है। किसानों के लिए यह लाभ की फसल है, पर शर्त यही है कि इसके खेतों में ठीक किसी नहर की तरह पानी बहता रहना चाहिए।
लखवीर सिंह बताते हैं, “शुरू में गेहूं की खेती करते थे, पर उनके खेत जंगल के किनारे होने की वजह से जंगली जानवर, खासकर बंदर काफी नुकसान पहुंचा रहे थे। गेहूं की छह माह की खेती में इतना लाभ नहीं था, जितना कि सुसवा साग में है। इसमें खुद भी खुशहाल हैं और कई परिवारों के लिए रोजगार भी उपलब्ध करा दिया। सुसवा को कोई जानवर नुकसान नहीं पहुंचाता, इसलिए इसकी खेती में उनको नुकसान नहीं है। इस फसल में हमें किसी तरह की खाद, निराई गुड़ाई, दवाई की आवश्यकता नहीं है। इसमें न तो कीड़ा लगता है और न ही किसी खरपतवार की कोई समस्या है। एक बार खेत तैयार कीजिए और फिर कटाई के अलावा बहुत ज्यादा काम नहीं।”
किसान लखवीर सिंह ने बताया, “अप्रैल में सुसवा से खेत खाली हो जाते हैं। खेतों में हम चरी बो देते हैं। इसके बाद धान की रोपाई होती है। धान कटने के बाद, फिर से सुसवा की फसल। यह चक्र लगभग 12 साल से निरंतर जारी है।”
वो बताते हैं, “इस खेती में एक समस्या यह है कि हम बीज का संरक्षण नहीं कर पाते हैं। हमारे पास ऐसी कोई तकनीकी जानकारी नहीं है। इसलिए हर साल छिद्दरवाला, लालतप्पड़ में सौंग नदी के किनारे से साग के पौधे लाने पड़ रहे हैं। 60 बीघा खेत के लिए पौधे लाने में बहुत मेहनत और अधिक समय लगता है। हमारे खेतों में सुसवा उगाने वाले लोग इस कार्य में लगते हैं। हालांकि, उनमें उत्साह काफी रहता है, क्योंकि यह लाभ की फसल है। हम कृषि विभाग के अधिकारियों से भी यह मांग करते हैं कि वो ऐसी कोई तकनीकी जानकारी हमें उपलब्ध कराएं, जिससे इसकी पौध या बीज संरक्षित रहे, जो हम अपने एक या दो बीघा खेत में सुरक्षित रखें।”
इस जड़ीबूटी के बारे में जानिए, जिसे हम सुसवा का साग कहते हैं
एक लेख के अनुसार, Water cress यानी जलकुंभी, जिसे हम स्थानीय स्तर पर सुसवा का साग कहते हैं, आमतौर पर लंबी पैदल यात्राओं के दौरान स्वादिष्ट नाश्ते के रूप में इस्तेमाल होती थीं, खासकर प्रकृति प्रेमियों के बीच। प्रदूषण के कारण आज यह संवेदनशील जड़ी-बूटी उतनी आम नहीं रही। हालांकि, यह अभी भी दुनियाभर के कुछ क्षेत्रों में पाई जाती है।
इसमें कई महत्वपूर्ण पोषक तत्व होते हैं, लेकिन इसमें कैलोरी बहुत कम होती है। इसमें भरपूर मात्रा में एंटीऑक्सीडेंट होते हैं, जो हृदय रोग और कई प्रकार के कैंसर के जोखिम को कम कर सकते हैं। यह खनिजों का भी एक अच्छा स्रोत है, जो आपकी हड्डियों की रक्षा करता है।
Water cress, जिसे cress भी कहा जाता है, सरसों परिवार (ब्रैसिकेसी) का बारहमासी जलीय पौधा, जो यूरेशिया का मूल निवासी है और पूरे उत्तरी अमेरिका में प्राकृतिक रूप से मिलता है। जलकुंभी ठंडी धाराओं में पनपती है, जहाँ यह जलमग्न हो जाती है, पानी पर तैरती है, या मिट्टी की सतहों पर फैल जाती है। यह विटामिन सी से भरपूर होती हैं।
जलकुंभी के पौधे अक्सर झाड़ीदार कालोनियों का निर्माण करते हैं और तने से स्वतंत्र रूप से जड़ें जमा लेते हैं। वैकल्पिक पत्तियां तीन से नौ पत्रक के साथ सूक्ष्म रूप से मिश्रित होती हैं।
नामों की समानता के बावजूद, वाटरक्रेस और गार्डन क्रेस उतने निकट से संबंधित नहीं हैं, जितना कोई सोच सकता है। उनमें जो समानता है वह यह है कि ये दोनों क्रूसीफेरस परिवार (ब्रैसिकेसी) से संबंधित हैं। आप इस परिवार के पौधों को उनकी चार सलीबनुमा पंखुड़ियों से आसानी से पहचान सकते हैं। जंगली जलकुंभी कभी यूरोप में नदियों और झरनों के साथ फैली हुई थी।
एक शोध रिपोर्ट में कहा गया है, जलकुंभी ब्रैसिसेकी परिवार में एक पत्तेदार-हरी फसल है, जो दुनिया भर में अपने चटपटे स्वाद के लिए व्यापक रूप से खाई जाती है और इसे सबसे पोषक तत्वों से भरपूर सलाद पत्ती के रूप में जाना जाता है।
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