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एक किसान का 20 साल से जैविक उत्पादों को बेचने के लिए संघर्ष

डेढ़ सौ बीघा खेती में जैविक उत्पाद उगा रहे खत्ता गांव के सतीश कुमार पाल

राजेश पांडेय। न्यूज लाइव

जैविक उत्पाद महंगे बताए जाते हैं, पर इनको उगाने के लिए, जो मेहनत की जाती है, इनमें जो लागत लगती है, उस पर बहुत कम लोग विचार करते हैं। जैविक के नाम पर, कहा जाता है, आने वाला कल इसी का है। जैविक की अच्छाइयों को लेकर और भी बहुत प्रचारित किया जाता है, पर छोटे- मंझले जैविक उत्पादकों की बात करें, तो उनको उस तरह का प्रोत्साहन नहीं मिल पाता, जैसा कि इसको भविष्य की खेती, प्राकृतिक खेती को लेकर कहा होता है।

देहरादून के डोईवाला ब्लाक में खैरी रोड पर प्रोग्रेसिव आर्गेनिक फार्मर (Progressive Organic Farmer) सतीश कुमार पाल 2003 से लगभग डेढ़ सौ बीघा में जैविक खेती कर रहे हैं। जैविक गुड़, शक्कर,खांड और राब भी उनके फार्म पर बनते हैं। उन्होंने कैन क्रशर (गन्ना पेराई मशीन) और कोल्हू लगाए हैं, जिस पर 15 श्रमिक कार्य करते हैं। गुड़ बनाने के लिए लगभग 85 बीघा खेत में जैविक गन्ना उगाते हैं, जिसमें किसी तरह का कोई कैमिकल इस्तेमाल नहीं होता।

प्रोगेसिव फार्मर सतीश कुमार पाल का खैरी गांव स्थित जैविक फार्म। फोटो- सक्षम पांडेय

लगभग 20 साल से जैविक खेती को आगे बढ़ाने के लिए दिनरात संघर्ष कर रहे उन्नतशील किसान पाल के सामने सबसे बड़ी चुनौती उत्पादों के लिए खरीदार व बाजार ढूंढने की है। इतने वर्ष बाद भी, इनकी बिक्री को लेकर वो बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं रखते। कहते हैं, “छोटे व मध्यम किसानों के सामने उत्पादों की बिक्री का संकट आज भी है। वो देहरादून जिले में जैविक गुड़ के शायद वो एक मात्र निर्माता हैं। बाजार में दुकानदारों और मॉल में भी, जब उत्पाद दिखाने पहुंचते हैं, तो अक्सर यही सुनने को मिलता है, जैविक गुड़ तो पहले से उनके पास है। मॉल में कहा जाता है, आप गुड़ लेकर अपना कर्मचारी यहां नियुक्त कर दो। बिकता है तो हमें कोई दिक्कत नहीं है।

पाल सवाल उठाते हुए कहते हैं, “मुझे कहना तो नहीं चाहिए, पर इन दुकानोंं के पास जैविक गुड़ कहां से आ रहा है, उसकी गुणवत्ता क्या है, क्या वास्तव में यह जैविक है, यह जानने की जरूरत नहीं समझी जा रही है। कुल मिलाकर जैविक को बाजार में बेचने के लिए काफी जद्दोजहद हो रही है। जैविक के नाम पर क्या कुछ हो रहा है, इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं होती।”

“उनके फार्म पर बनाया गुड़ आपसी संबंधों, माउथ पब्लिसिटी के आधार पर, स्टॉल्स, हाट पर बिकता है। बारह कुंतल गन्ने पर एक कुंतल गुड़ बनता है। हमें शायद ही कभी एक बार में एक कुंतल गुड़ बनाया होगा। हम डिमांड के अनुसार गुड़ बनाते हैं। उतना ही गन्ना काटते हैं, जितना गुड़ बनाना होता है। हम बाहर से भी आर्गेनिक गन्ना क्रय करते हैं। एक कुंतल गुड़ बनाने के लिए श्रम लगभग 12 सौ रुपये बैठता है। ऐसा भी होता है कि हमें श्रमिकों को खाली बैठाकर पैसा देना पड़ता है, क्योंकि श्रमिक बाहर से बुलाए हैं। उनके रहने की व्यवस्था भी यहीं की है। स्थानीय स्तर पर श्रमिक नहीं मिलते, बाहर से बुलाए श्रमिकों को लगभग दोगुना पारिश्रमिक देना पड़ता है। ये कुशल श्रमिक हैं, जिनको गुड़ बनाना आता है।”

खैरी रोड स्थित जैविक फार्म में क्रशर पर गन्ना पेराई करते श्रमिक। फोटो- राजेश पांडेय

जैविक गुड़ और उत्पाद बनाने की प्रक्रिया बताते हुए कहते हैं, “जैविक गन्ने की लागत लगभग साढ़े चार सौ रुपये प्रति कुंतल पड़ती है। यह इसलिए क्योंकि एक बीघा में जैविक गन्ना लगभग 25 से 35 कुंतल ही होता है, जबकि सामान्य गन्ना, जिसमें रसायन डाले जाते हैं, एक बीघा में सौ कुंतल तक हो जाता है।”

“जैविक खाद से उत्पादन कम होता है, पर यह स्वास्थ्य के लिए बेहतर होता है। यह हमें तय करना है कि हमें क्या खाना है। क्या हम कैमिकल मिले खाद्य पदार्थ खाते रहें और फिर बीमारियों को झेलें। कैमिकल से जमीन खराब हुई, स्वास्थ्य भी खराब हो रहा है।”

करीब 65 वर्षीय किसान पाल बताते हैं, “हम बाजार में जैविक सब्जियां लेकर पहुंचते हैं, पर अधिकतर ग्राहक, जिनकी क्रय शक्ति (Purchasing power) अच्छी होती है, का कहना होता है कि ठेली पर तो यह सब्जी 40 रुपये किलो मिलती है, आप इसको 60 रुपये प्रति किलो क्यों बेच रहे हो। वो जैविक उत्पादों को महंगा बताते हैं, पर उत्पाद की गुणवत्ता और इसके कैमिकल रहित होने की ओर ध्यान नहीं दिया जाता। हालांकि, स्वास्थ्य के प्रति जागरूक लोग जैविक उत्पादों को खरीदते हैं।”

खैरी रोड स्थित जैविक फार्म पर शक्कर बनाते श्रमिक। फोटो- सक्षम पांडेय

उनका कहना है, “यहीं आकर लोग जैविक गुड़ खरीदते हैं। कोई एक, कोई दो किलो गुड़ खरीद रहा है, इससे एक कुंतल में कम से कम पांच से छह किलो तो ऐसे ही निकल जाता है। ऐसी स्थिति में हम क्या लाभ उठा रहे होंगे,आप जान सकते हो। हम गुड़ को ज्यादा दिन नहीं रोक सकते हैं, यह लूज होने पर हमारे किसी काम का नहीं होता।”

“जैविक खेती में रसायन छिड़ककर खरपतवार नष्ट नहीं की जा सकती,आपको श्रमिकों की मदद से ही खरपतवार हटवानी होगी। एक फसल के लिए कई बार निराई गुड़ाई करानी पड़ती है। एक बार में ही श्रमिकों पर लगभग दो से ढाई हजार रुपये खर्च होते हैं। आप खुद ही हिसाब लगा लो। जबकि सामान्य खेती में रासायनिक कीटनाशकों के छिड़काव से खरपतवार नष्ट की जाती है। इसमें खर्चा बहुत ज्यादा नहीं होता।”

“जैविक खाद और जैविक कीटनाशक बनाने के लिए गोबर की खाद, केंचुआ खाद (Vermicompost) के साथ ही अन्य जैविक उपायों को अपनाते हैं। हमारे पास 14-15 गाय हैं, गोमूत्र, गोबर से कीटनाशक काढ़ा बनाते हैं। लस्सी से भरे बरतन में तांबे का लोटा रखकर उसको बंद कर देते हैं। एक माह बाद उसको कीटनाशक के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। लहसुन, अदरक, हरी मिर्च को कूटकर, धोकर एक बर्तन में कुछ दिन के लिए रख देते हैं। इसका पानी कीटनाशक का काम करता है। नीम के पत्ते, तंबाकू, एलोबेरा से भी कीटनाशक बनाया जाता है।”

प्राकृतिक खेती पर सरकार का फोकस है, क्या आपको कोई प्रोत्साहन मिलता है, के जवाब में उनका कहना है, “अभी तक तो कोई प्रोत्साहन नहीं मिला। सरकार खाद्य पदार्थ वितरित करने की योजनाओं में जैविक उत्पादों को शामिल करके छोटे व मध्यम किसानों को लाभ दिलाए।”

बताते हैं, “2003 से हम नुकसान के बाद भी जैविक खेती को आगे बढ़ा रहे हैं, वो इसलिए, क्योंकि हमारे पास अपनी भूमि है। हमारे पास अपने पशु हैं और कृषि का वर्षों पुराना अनुभव है। हमारे पास आय के अन्य स्रोत हैं, नहीं तो जैविक खेती को आगे बढ़ाने के लिए संघर्ष नहीं कर पाते।”

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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