मैंने न तो मायके में और न ही ससुराल में, नल की टोंटी खोलकर पानी नहीं पीया। मेरे लिए घर पर नल, सपना ही है बस। मुझे लगता है, कि यह सपना कभी पूरा नहीं होगा। मेरे दो छोटे बच्चे हैं, उनको घर पर अकेला छोड़कर स्रोत पर पानी भरने जाती हूं। कभी कभी तो पानी लेकर शाम को आठ बजे घर पहुंचती हूं।
मरोड़ा गांव में पानी की यह कहानी बताते हुए सीता की आंखें नम हो जाती हैं। सुबह उठते ही पानी के लिए दौड़ लगाने वालीं सीता का सवाल है कि क्या हमारी जिंदगी में यही सबकुछ है। कहती हैं, मेरी उम्र 30 साल हो गई, पानी घर तक नहीं पहुंचा। अब क्या पहुंचेगा। मेरा मायका रिंगाल गढ़ में है, वहां भी पानी नहीं पहुंचा।
सीता बताती हैं कि पानी का स्रोत उनके घर से लगभग एक किमी. नीचे ढलान पर है।बरसात में स्रोत तक का रास्ता खराब रहता है। पर, पानी के लिए इस पर चलना हमारी मजबूरी है।
गर्मियों में यह स्रोत भी लगभग सूख जाता है। इससे भी करीब एक किमी. नीचे दूसरे स्रोत पर जाना पड़ता है। वहां पानी बड़ी मुश्किल से मिलता है। लंबी लाइन में कई घंटे खड़े रहना पड़ता है। एक बार में 15 से 20 लीटर पानी लाने के लिए तीन से चार किमी. चलना पड़ता है। एक चक्कर में तीन से चार घंटे लग जाते हैं। कुल मिलाकर प्रतिदिन दस घंटे पानी लाने के नाम हो गए।
“इन दिनों सुबह छह बजे स्रोत पर पानी लेने जाती हूं और नौ बजे घर पहुंचती हूं। दो छोटे बच्चे घर पर अकेले रहते हैं। बार-बार यहीं सोचती हूं कि मेरे बच्चे घर पर कैसे होंगे। आसपास जंगल हैं, खेत हैं। जंगली सूअर, घर के पास घूमते हैं। डर लगा रहता है। बारिश के दिनों में कम से कम दो तीन चक्कर लगाकर ही जरूरत का पानी इकट्ठा कर पाती हूं। पर, गर्मियों में छह चक्कर लगाने पड़ते हैं। उस समय पानी की आवश्यकता ज्यादा होती है “, सीता बताती हैं।
मुझे स्रोत से पशुओं के लिए भी पानी लाना पड़ता है। सीता ने पशुओं को पिलाने, बर्तन-कपड़े धोने, साफ सफाई के लिए रैन वाटर हार्वेस्टिंग की है। मकान की छत से पाइप निकाला है, जिसके माध्यम से बारिश का पानी नीचे रखे ड्रम में इकट्ठा हो जाता है। सीता का कहना, शहरों में पानी खूब है, इसलिए वहां सरकार के कहने पर भी लोग पानी बचाने के उपायों पर गंभीरता से ध्यान नहीं देते। हमें तो इसकी सख्त आवश्यकता है। हम पानी की कीमत को जानते हैं।
सीता और उनके पति हुकुम सिंह बताते हैं कि अगर पानी लाने में इतना समय न लगे तो वो अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिए और कुछ सोचते। हम अपने खेतों को ज्यादा समय देते। पानी के चक्कर में हमारा बहुत नुकसान हो जाता है। हम सिलाई बुनाई का काम कर सकते हैं, आजीविका चलाने के लिए कुछ और कार्यों को कर सकते हैं। हम पढ़ाई लिखाई कर सकते हैं, हम अपने बच्चों को पढ़ाने में समय लगा सकते हैं। जब दस घंटे पानी लाने में लग रहे हैं, तो क्या कर पाएंगे। इंसान तभी आगे बढ़ेगा, जब उसका समय खराब न हो। हुकुम सिंह, देहरादून के एक होटल में काम करते हैं
बाड्यौ गांव की किरण सुबह छह बजे से दस बजे तक घर और पशुओं के लिए पानी लाने में व्यस्त रहती हैं। किरण और उनके ससुर सुरेंद्र सिंह हमें घर से डेढ़ किमी. दूर उस स्रोत तक ले जाते हैं, जहां बरसात में पूरा गांव पानी लेने जाता है। बताते हैं कि गर्मियों में यह स्रोत लगभग सूख ही जाता है। यहां गिलास में पानी इकट्ठा करके कैन- बाल्टी भरते हैं। कुएं की तरह करीब 10 फीट गहरे इस स्रोत में बरसात में पानी भरा रहता है।
पर, गर्मियों में पानी की कहानी बड़ी तकलीफ वाली है। किरण ने बताया कि गर्मियों में जिस स्रोत से पानी लाते हैं, वो घर से लगभग ढाई से तीन किमी. दूर है। हम उनके साथ ढलान पर होते हुए करीब डेढ़ किमी. बारिश वाले स्रोत तक पहुंचे। हमारे सामने अब डेढ़ किमी. के पथरीले रास्ते को चढ़ना था। सच बताऊं, पहाड़ पर चढ़ाई मेरे बस की बात नहीं है, पर पहाड़ की चुनौतियों को जानने, समझने का जुनून यहां तक खींचकर ले जाता है।
किरण और पवित्रा, पानी से भरी कैन व बाल्टी सिर पर रखकर ऊँचे नीचे पथरीले रास्ते पर आगे बढ़ रही थीं। यहां मातृशक्ति के प्रतिदिन लगभग दस घंटे, पानी के लिए दौड़ लगाते हुए बीत जाते हैं। उनकी जिम्मेदारी सिर्फ पानी इकट्ठा करना ही नहीं है, उनको पशुपालन, कृषि बागवानी सहित घर के तमाम कामकाज भी करने होते हैं। उनके पास अपने लिए समय ही कहां है।
किरण की सास शोभनी देवी, गढ़वाली बोली में पानी की कहानी बताती हैं, “पास ही मेरा मायका है, न तो वहां पानी है और न ही यहां मेरी ससुराल में। यहां रात दिन पानी के लिए दौड़ लगाते हैं। बरसात में तो पानी मिल जाता है। बारिश का पानी इकट्ठा करके घर की साफ सफाई, पशुओं को पिलाने, कपड़े- बर्तन धोने में इस्तेमाल कर लेते हैं। पीने और खाना बनाने के लिए स्रोत से पानी लाना पड़ता है। पर, गर्मियों में तो बहुत बुरे हाल होते हैं। स्रोत पर लंबी लाइन लगती है। रात के बारह बजे तक पानी के लिए लाइन में खड़े रहने के बाद, फिर सुबह चार बजे पहुंचना पड़ता है स्रोत पर, यह क्रम जारी रहता है “।
“गर्मियों में स्रोत तक तीन किमी. ढलान पर जाना और तीन किमी. चढ़ाई पर आना, यानी छह किमी. की पथरीली पगडंडी को नापने के बाद 15 लीटर पानी मिल पाता है।यहां न तो जल है और न ही नल। हर बार चुनाव के समय, जो भी आता है, यही कहता है कि अब घर तक पानी पहुंच जाएगा। सुबह छह बजे से 12 बजे तक, कोई 15, तो कोई 20 लीटर की कैन में पानी ढोता है”, शोभनी देवी कहती हैं।
शोभनी देवी हंसते हुए कहती हैं कि यहां कोई गर्मियों में आएगा तो उसको पिलाने के लिए हमारे पास पानी नहीं है।
“आपने मुझे पीने के लिए पानी दिया और मेरे एक घूंटकर पीकर पानी छोड़ने पर आपकी क्या प्रतिक्रिया होगी”, के सवाल पर शोभनी देवी, थोड़ा गंभीर हो गईं, उनका कहना है कि हम कहेंगे, आपको पूरा पानी पीना चाहिए, यहां पानी नहीं है। पानी की बर्बादी पर हमें गुस्सा आता है।
उत्तराखंड विधानसभा के 2022 के चुनाव का जिक्र करते ही, उनका कहना है कि पहले पानी, फिर वोट। हमारे गांव तक पानी और सड़क ही नहीं है, तो वोट किस लिए दिया जाए।
करीब 59 वर्षीय सुरेंद्र सिंह ने किसी संस्था के सहयोग से छत पर इकट्ठा बारिश के पानी की निकासी को ड्रम से जोड़ा है। कहते हैं, बारिश में तो काम चल जाता है, पर गर्मियों में क्या करें। उन दिनों तो पानी की ज्यादा आवश्यकता होती है। स्रोत से 15-20 परिवारों की पूर्ति नहीं हो पाती। गर्मियों में पानी नहीं मिलने से पशुओं की मौत तक हो जाती है।
इस गांव में बेटों की शादियों के लिए रिश्ते बनाने में पानी की कमी बाधा बन जाती है। कई बार ऐसा हुआ है, लोग यहां अपनी बेटियों की शादी करने से यह कहकर मना कर देते हैं, गांव में पानी की समस्या है।
मालदेवता से वाया आनंदचौक, चंबा रूट पर स्थित रिंगालगढ़ के दुकानदार गोविंद नेगी का गांव भी पानी की दिक्कतों से जूझ रहा है। नेगी बताते हैं कि हमें पानी के लिए तीन से चार किमी. गदेरे तक जाना पड़ता है। वहां भी पानी नहीं मिल पाता। यहां सौंग नदी से चंबा के लिए पानी की सप्लाई हो रही है, पर हमें इस योजना से नहीं जोड़ा गया। कई बार मांग की गई, आंदोलन किए, पर कुछ नहीं हुआ। आनंद चौक, सतेंगल, दड़क सहित हटवाल गांव ग्राम पंचायत के गांव बाड्यौ, कूदनी तोक, मरोड़ा सहित कई गांवों में पानी की बहुत दिक्कत है।
“इस क्षेत्र में दस -बारह हजार की आबादी पानी के संकट का सामना कर रही है। चुनाव के समय नेता पानी की समस्याओं को भुनाते हैं। किसी भी दल की सरकार हो, हमारे लिए कोई काम नहीं करता” , गोविंद सिंह कहते हैं।
ग्राम पंचायत सतेंगल के निवासी भगवान सिंह राणा ने बताया कि पूर्व में आनंद चौक और सुरकुंडा पंपिंग योजना स्वीकृत हुई थीं। सुरकुंडा पंपिंग योजना का काम पूरा होने वाला है। इस योजना में दड़क, रिंगालगढ़, धोलागिरी के ऊपरी हिस्सों, हटवाल गांव ग्राम पंचायत, मरोड़ा, स्थानीय ग्राम पंचायतों को छोड़ दिया गया, जिनमें बड़ी संख्या में आबादी निवास करती है। इस योजना का स्रोत सौंगनदी है, जो हटवाल गांव ग्राम पंचायत में है। हमारे गांवों को आनंद चौक योजना से जोड़ा जाना था, पर यह योजना अभी तक कागजों से बाहर ही नहीं आई।
खेतू गांव में आनंद चौक की वर्षों पुरानी पेयजल योजना से पानी आता है। ग्रामीणों के अनुसार, 70 के दशक की इस योजना को अपग्रेड नहीं किया गया। पहले आबादी कम थी, एक स्टैंड पोस्ट से ही सब पानी भरते थे। अब यहां हर घर नल तो पहुंच गया, पर जल तो उतना भी नहीं है।
खेतू में बुजुर्ग मंगली देवी बताती हैं, अक्सर ऐसा होता है, जब सुबह उठते ही सबसे पहले पानी के लिए स्रोत तक जाना पड़ता है। पानी की लाइन टूटती रहती है। बारिश में स्रोत तक जाना बहुत मुश्किल है। वहां फिसलन बहुत होती है।
“हमें बारिश का पानी पीना पड़ता है “, दोमंजिला की टीन वाली ढालदार छत दिखाते हुए ग्रामीण दीपक रावत ने बताया। उन्होंने बताया कि टीन से गिरने वाला पानी बाल्टियां लगाकर इकट्ठा करते हैं। ग्रामीणों का कहना है कि इस पानी को उबालकर पीते हैं।
ग्रामीण त्रिलोक सिंह रावत का कहना है कि पानी के साथ स्वास्थ्य भी बड़ी परेशानी बना है। वहीं गांव में बिजली जाने के बाद आप यह नहीं कह सकते कि कब आएगी। संविदा पर तैनात एक कर्मचारी के पास कई गांवों की जिम्मेदारी है।
इन गांवों में पानी की कहानी सुनकर हम वापस लौट आए, उस देहरादून में जिसको उत्तराखंड की सत्ता का केंद्र कहा जाता है। जब, नजदीकी गांवों की आवाज यहां सुनाई नहीं दे रही है तो दुर्गम इलाकों का क्या होगा।
हकीकत ए उत्तराखंड का सफर आगे भी जारी रहेगा…।
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