agricultureBlog LiveFeaturedUttarakhand

Uttarakhand: पहाड़ में खेती बचाने के लिए क्या जरूरी है गीदड़ों की संख्या बढ़ाना

जंगली सुअरों से फसलों की सुरक्षा नहीं कर पा रहे किसानों को बड़ा नुकसान

राजेश पांडेय। न्यूज लाइव

कोरोना संक्रमण से पहले देहरादून में रेस्टोरेंट चलाने वाले आशीष सिंह बिष्ट ने एक महीना लॉकडाउन खत्म होने का इंतजार किया। जब बाजार खुलने की कोई उम्मीद नहीं दिखी तो किराये के कमरे में चल रहे रेस्टोरेंट का सारा सामान देहरादून में ही बेच दिया, जो रकम लेकर वो घर पहुंचे थे, वो भी कुछ माह में खत्म हो गई। रिवर्स माइग्रेशन करने वाले रुद्रप्रयाग जिला के खड़पतिया गांव निवासी आशीष पूरी तरह उस खेती पर निर्भर हो गए हैं, जो अंधेरा होते ही जंगली जानवरों के हमले का शिकार होती है।

आशीष सुबह होते ही पत्नी पायल और मां राजेश्वरी देवी के साथ खेतों में पहुंच जाते हैं, जहां इन दिनों मंडुआ के साथ राजमा, सोयाबीन और चौलाई के बीज बोए जा रहे हैं। बैलों की जोड़ी और हल के साथ उनका दिन खेत में बीत रहा है। मिश्रित खेती के फायदे बताने वाले आशीष, खेती में पहले जैसा लाभ मिलने की बात पर शंका जाहिर करते हैं। वो कहते हैं, खेती में बहुत संभावनाएं हैं, पर ऐसा तभी हो सकता है, जब हमारे खेतों पर जंगली जानवरों, जिनमें सुअर, बंदर, लंगूरों का हमला बंद हो जाए।

रुद्रप्रयाग के खड़पतिया गांव में आशीष बिष्ट खेत में मंडुआ के बीज डालने के बाद जुताई करते हुए। फोटो- राजेश पांडेय

बताते हैं, हमने खूब लाभ वाली खेती भी की है, तब यहां इतनी बड़ी संख्या में जंगलों से जानवर नहीं आते थे। उन्होंने खुद आलू की खेती की है, जिसमें काफी लाभ होता था। पहाड़ के आलू की डिमांड खूब है। उन्होंने सीजन पर लगभग 60 हजार रुपये तक का आलू बेचा। मंडुआ, चौलाई, राजमा, ,सोयाबीन खूब होता था, अब भी हो सकता है, पर बस्तियों के पास के जंगलों में गीदड़ों की संख्या बढ़ानी होगी। पहले यहां गीदड़ खेतों में घूमते थे, पर वो खेती को इतना नुकसान नहीं पहुंचाते थे।

खड़पतिया गांव के सतीश बताते हैं,  पहले उनके गांव में जंगली जानवर खेती को ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचाते थे। पर, कुछ साल से इनकी संख्या बढ़ गई है। यहां अब दिन में बंदर, लंगूर और रात को सुअर खेती पर हमला करते हैं। बीज बो कर घर लौटे किसान को दूसरे दिन सुबह अपने खेत उजाड़ दिखते हैं।

“कई बार मैंने बंदरों और लंगूरों से भरी गाड़ियों को पास के जंगलों में खाली होते देखा। शहर से बंदरों को लाकर यहां छोड़ा जाता है। लंगूर और बंदर इतने ढीठ हो गए हैं कि ये हमारे शोर मचाने से भी नहीं भागते। सैकड़ों की संख्या वाले झुंड हमें ही डरा देते हैं। ये घरों में घुसकर खाने का सामान उठा ले जाते हैं,” सतीश बताते हैं।

ढिमकला गांव निवासी बुजुर्ग किसान रामदयाल। फोटो- राजेश पांडेय

ढिमकला गांव निवासी 93 वर्षीय किसान रामदयाल का कहना है कि कौन सी फसल है, जो उनके गांव में नहीं हो सकती। पहले एक सीजन में 70 हजार रुपये से ज्यादा का आलू बेच देते थे, तब आलू का बाजार भाव कम होता था। अब उतना उत्पादन नहीं हो पाता। अभी भी यहां खेती की बहुत संभावनाएं हैं, पर फसल को जंगली जानवरों से बचाने के लिए बड़ी मेहनत करनी होती है। अपने बेटे बसंत सिंह के साथ खेती करने वाले बुजुर्ग रामदयाल बताते हैं, खासकर सुअरों से बड़ा खतरा है। कुछ साल पहले, क्यूड़ी गांव के एक किसान पर सुअरों ने हमला कर दिया था। जिस समय उन पर हमला हुआ था, उस समय वो बकरियां चरा रहे थे। बड़ी मुश्किल से उनकी जान बची। जानवरों से फसल की सुरक्षा के लिए छत पर खड़े होकर कनस्तर बजाकर शोर मचाते हैं। वैसे तो जंगली जानवरों के खेतों में घुसने का कोई समय निर्धारित नहीं होता, पर रात दस बजे और सुबह चार बजे ये बड़ी संख्या में होते हैं। यह समझ लीजिए, कई बार तो दिन-रात जागना होता है।

करीब 68 वर्षीय किसान भगत सिंह बताते हैं, पहले गांव के पास जंगल में गीदड़ों की संख्या ज्यादा थी। गीदड़ गांव तक आते थे, पर खेती को ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचाते थे। पर, धीरे-धीरे इनकी संख्या कम हो गई। हालांकि कुछ समय से ये फिर दिखने लगे हैं। गीदड़ों की संख्या बढ़ने से सुअरों की संख्या कम हो जाएगी। इसीकी वजह यह है कि गीदड़ और सुअर एक दूसरे के दुश्मन होते हैं। सुअरों के बच्चों को गीदड़ खत्म कर देते हैं। ये उनकी संख्या को बढ़ने ही नहीं देते।

ढिमकला गांव की राजेश्वरी देवी बताती हैं, हम अपने घर के पास वाले खेतों की सुरक्षा नहीं कर पाते, आप दूर के खेतों का अंदाजा लगा सकते हैं। सुबह चार बजे उठकर शाम पांच बजे तक खेतों में मेहनत करने के बाद भी खेती से गुजारा नहीं होता। जंगली जानवरों के फसलों को नुकसान पहुंचाने पर, हम क्या कर सकते हैं। हमारे हाथ में कुछ नहीं है।

“आप यहां देख रहे हो कि किसानों ने पकने से पहले ही गेहूं काट लिया। हरी बालियों से गेहूं ज्यादा नहीं मिलेगा। गेहूं जल्दी काटने की वजह जंगली जानवर ही हैं। गेहूं को खेतों की जगह आंगन में सुखाया जा रहा है। उन्होंने घर के पास ही आलू बोया है, जिसकी सुरक्षा के लिए दीवार बनाई है। ” किसान शूरवीर सिंह बताते हैं।

Rajesh Pandey

उत्तराखंड के देहरादून जिला अंतर्गत डोईवाला नगर पालिका का रहने वाला हूं। 1996 से पत्रकारिता का छात्र हूं। हर दिन कुछ नया सीखने की कोशिश आज भी जारी है। लगभग 20 साल हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। बच्चों सहित हर आयु वर्ग के लिए सौ से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। स्कूलों एवं संस्थाओं के माध्यम से बच्चों के बीच जाकर उनको कहानियां सुनाने का सिलसिला आज भी जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। रुद्रप्रयाग के खड़पतियाखाल स्थित मानव भारती संस्था की पहल सामुदायिक रेडियो ‘रेडियो केदार’ के लिए काम करने के दौरान पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाने का प्रयास किया। सामुदायिक जुड़ाव के लिए गांवों में जाकर लोगों से संवाद करना, विभिन्न मुद्दों पर उनको जागरूक करना, कुछ अपनी कहना और बहुत सारी बातें उनकी सुनना अच्छा लगता है। ऋषिकेश में महिला कीर्तन मंडलियों के माध्यम के स्वच्छता का संदेश देने की पहल की। छह माह ढालवाला, जिला टिहरी गढ़वाल स्थित रेडियो ऋषिकेश में सेवाएं प्रदान कीं। बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहता हूं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता: बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी संपर्क कर सकते हैं: प्रेमनगर बाजार, डोईवाला जिला- देहरादून, उत्तराखंड-248140 राजेश पांडेय Email: rajeshpandeydw@gmail.com Phone: +91 9760097344

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button