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यह बच्चा तो बातों की ‘खिचड़ी’ बनाने में माहिर है  

बचपन की बातें
पिछली बार, जो बचपन की बातें आपके साथ साझा की थीं, क्या फिर से याद दिलाने की आवश्यकता है। कोई बात नहीं, एक बार दोहरा लेते हैं। मैं बता रहा था, जब मैं छोटा था, तब किताबें लेने के लिए पापा के साथ साइकिल पर दुकान पर जाता था। किताबों को घर लाकर मन भर के देखता। खासकर, किताबों में बने चित्रों को मैंने खूब पसंद किया।
हमारे बचपन में मोबाइल फोन की एंट्री नहीं थी, इसलिए हम स्कूल की छुट्टी के बाद घर में बंद नहीं रहे। उस समय घर के पास मैदान हुआ करते थे।दूर दूर तक खेत दिखाई देते थे। इसलिए खेलने, दौड़ने के लिए जगह की कोई कमी नहीं थी। हां, टेलीविजन था, वो भी कुछ घरों में। उसका भी समय तय था, शाम को चार बजे के बाद ही। रात को सप्ताह में दो दिन चित्रहार, शायद बुधवार और शुक्रवार को आता था, समय यही कोई रात आठ से साढ़े आठ बजे तक। चित्रहार में फिल्मों के गाने दिखाए जाते थे। वो ब्लैक एंड व्हाइट का जमाना था, और कोई विकल्प भी नहीं था।
रविवार की फिल्म शाम पांच बजे शुरू होती थी और फिर बीच में इंटरवल का समय होता था। टेलीविजन कम ही घरों में था, इसलिए रविवार की शाम टीवी वाले घरों में पूरे मोहल्ले के सिनेमा प्रेमी जमा हो जाते थे। किसी को भी मना नहीं किया जाता था। रात करीब आठ बजे तक टीवी वाले घर में पूरी भीड़ जमा रहती थी। सबको फिल्म दिखाने के लिए उस घर में दरी बिछा दी जाती थी। फिल्म के समय कोई बातचीत नहीं करेगा, ऐसा बार बार बोलकर सबको समझाया जाता था।
उस समय पड़ोसी के घर जाने वालों को चाय मिल जाती थी, पर टीवी देखने आई भीड़ को कौन चाय पिलाएगा? इसलिए फिल्म देखने घर पर जमा भीड़ को चाय नहीं। किसी ने पानी भी पीना है तो अपने घर जाओ। सबसे आगे यानी टीवी के सामने बैठने वालों को जहां आवाज और फिल्म साफ सुनाई और दिखाई देते थे, वहीं सबसे बाद में आकर पीछे बैठने वालों को थोड़ा दिक्कत होती थी।
पर, सबसे आगे बैठने वालों को अगर फिल्म के बीच में से उठकर जाना पड़ जाए तो दरवाजे तक जाते-जाते वो बेचारा, सबकी बातें सुनता था। कुछ तो यह भी कह देते थे कि अब वापस मत आना। इसलिए बुरा भला सुनने से बचने के लिए कोई उस समय तक नहीं उठता था, जब तक कि बहुत इमरजेंसी न हो।
हां, रविवार को फिल्म से पहले विक्रम बेताल धारावाहिक भी बहुत सारे लोगों की पसंद था। रविवार को कौन सी फिल्म आनी है, अखबार से या टीवी से ही सूचना मिल जाती थी। उस समय टेलीविजन का मतलब होता था दूरदर्शन। उस समय दूरदर्शन को ही ऑनलाइन पढ़ाई का माध्यम कह सकते थे। दूरदर्शन पर दिन में यूजीसी (विश्वविद्यालय अनुदान आयोग)  के कार्यक्रम चलते थे।
रविवार की फिल्म पर स्कूल में दोस्तों से खूब बातें होती थीं। डायलॉग याद हो जाते थे और बार-बार एक्शन करके बताने वाले दोस्त भी हमारी क्लास में पढ़ते थे। फाइटिंग के सीन तो सबकी पसंद थे। मंगलवार, बुधवार के साथ सप्ताह के आगे बढ़ते बढ़ते फिल्मी बातें कुछ हो जाती थीं। सच बताऊं, उस समय हमें कोई पाठ याद हो या न हो, पर फिल्में पूरी की पूरी रट जाती थीं। पता है क्यों? इसकी वजह है मन लगाकर की गई चर्चा आपकी समझ में आ जाती है और याद भी हो जाती है।
अगर हम अपनी क्लास की पढ़ाई की बात करें तो मेरा तो यही मानना है कि रटना मना है। समझिएगा और फिर अपने शब्दों में लिखिएगा। आपका संवाद ऐसा होना चाहिए कि दूसरों की समझ में आ जाए कि आप क्या कहना चाहते हो।
वैसे आपको एक सीक्रेट की बात बताऊं, अपने बारे में। आप वादा करो कि बिल्कुल भी नहीं हंसोगे। वादा करो कि मुस्कुराओगे भी नहीं। चलो बता ही देता हूं। मैं बचपन में बहुत बहाने बनाता था। होमवर्क नहीं करने के पीछे मेरे पास बहुत सारे बहाने थे। अपनी मैथ के बारे में तो आपको पहले ही बता चुका हूं। मेरी मैडम जानती थीं कि मैं पक्का बहानेबाज हूं।
हां, एक बात की तो मैडम और मेरी मां, बहुत तारीफ करते थे। उनकी बातों से तो मुझे यही लगता था कि तारीफ हो रही है। पर, आज समझ में आता है कि वो मेरी तारीफ नहीं करते थे, बल्कि बातों ही बातों में सबको यह बता देते थे कि यह बच्चा तो बातों की ‘खिचड़ी’ बनाने में माहिर है। पता है, यह कमाल तो मैं आज भी करता हूं।
मैं  आज भी बातें बनाने में माहिर हूं। मेरे इस टैलेंट को पहचान बहुत बाद में मिली। आप पूछोगे कि बातें बनाने में कौन सा टैलेंट है। बातें बनाना और उनको सिलसिलेवार जोड़कर इस तरीके से प्रस्तुत करना कि सुनने वाले को आनंद आ जाए, यह भी तो टैलेंट है। अभी तक मैं क्या कर रहा हूं, मैं बातें ही तो कर रहा हूं। मेरा यह टैलेंट मेरा प्रोफेशन बन गया।
हां, ध्यान रहे, आपकी बातें उस विषय का हिस्सा हों, जिसे जानना आवश्यक है। बातों में थोड़ा सा अनुभव और थोड़ी सी सीख हो। बातें मन को शांत और खुश करने वाली हों। ये बातें, चेहरे पर मुस्कुराहट की वजह बन जाएं। ये बातें फिर से अतीत में झांकने का मौका दें और अनुभवों के सहारे वर्तमान में जीने की राह दिखाती रहें। हमारी आपकी बातें, भविष्य के सपनों को धरातल पर उतारने में सहयोग करें।
अभी के लिए बस इतना ही…अगली बार आपसे और भी बहुत सारी बातें करेंगे। हमें इंतजार रहेगा, आपके सुझावों का। हमारा व्हाट्सएप नंबर-9760097344

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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