agricultureBlog Livecurrent AffairsFeaturedfoodVillage Tour

Video: ‘बीजों के गांधी’ जड़धारी जी बता रहे हैं, जब लोगों ने बीजों के लिए जान तक दांव पर लगा दी

1986 में टिहरी के जड़धार गांव से की गई बीज बचाने की पहल आज विश्वव्यापी हो गई

राजेश पांडेय। न्यूज लाइव

”शुरुआत में जब हमने बीजों को बचाने और प्राकृतिक खेती की बात कही, तो कहा जाता था कि हमारा विचार सभी को 18वीं शताब्दी की ओर ले जाने वाला है। उस समय हरितक्रांति के नाम पर खेतों में कैमिकल डालने और हाइब्रिड बीजों का इस्तेमाल करने वाले हमें पसंद नहीं करते थे। हमारे  विचार को एंटी डेवलपमेंट कहा गया, पर शुक्र है वो लोग अब उसी अवधारणा पर आ रहे हैं, जिसको हम प्रकृति की खेती कहते हैं। हजारों हजार लोग इस पर काम कर रहे हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद प्राकृतिक खेती पर बात कर रहा है, नीति बनाई जा रही है। बीजों के संरक्षण पर काम होने लगा है। उत्तराखंड में सरकार पारंपरिक अनाज मंंडुआ, झंगोरा पर बात कर रही है।”

उत्तराखंड के गांव जड़धार से 1986 में बीज बचाओ आंदोलन की शुरुआत करने वाले विजय जड़धारी न्यूज लाइव के साथ अपने अनुभवों का साझा कर रहे थे। पारंपरिक बीजों को बचाने और प्राकृतिक खेती की पैरवी करने वाला यह आंदोलन विश्वव्यापी हो गया है।टिहरी गढ़वाल के चंबा ब्लाक का जड़धार गांव मां सुरकंडा का मायका है। सामाजिक मुद्दों के पैरोकार मोहित उनियाल और गजेंद्र रमोला के साथ जड़धार गांव पहुंचकर उनसे मुलाकात की। हम यह मानते हैं कि कुछ घंटे या एक दिन में जड़धारी जी के कार्यों को नहीं समझा जा सकता। इसके लिए उनके साथ रहना होगा, खेतों को समय देना होगा, बीज बचाने की उनकी मुहिम में सक्रियता से शामिल होना होगा।

यह भी पढ़ें- Video: महिला किसान गीता उपाध्याय ने मशरूम की खेती में कमाल कर दिया

यह भी पढ़ें- Video- बच्चों, हम शर्मिंदा हैंः दिन में एक बार खाना, स्कूल के लिए 12 किमी. के पैदल रास्ते में तीन किमी. की चढ़ाई

जड़धारी जी कहते हैं, बीज हमारी बहुत बड़ी धरोहर हैं, अगर ये एक बार खत्म हो गए तो दोबारा नहीं मिलेंगे। जो हमारा पारंपरिक ज्ञान है, उसको खत्म नहीं करना है। इसलिए हमारा दायित्व है कि बीजों को पीढ़ी दर पीढ़ी इन ज्ञान को आगे बढ़ाएं।

प्रस्तुत है, बीज बचाओ आंदोलन के प्रणेता विजय जड़धारी के अनुभवों, कार्यों और कृषि ज्ञान पर सीरीज का पहला भाग-

किसानों की आजादी की प्रतीक हैं बीज रखने वाली तोमड़ियां

लौकी की तरह, परन्तु आकार में बड़ी वनस्पति दिखाते हुए जड़धारी जी बताते हैं, यह तोमड़ी है। यह बीज रखने का बर्तन है, इसलिए इसको बिजुंडा भी कहा जाता है। यह किसानों की आजादी (Freedom of Farmers) की प्रतीक है, बीज की आजादी (Freedom of Seeds) का प्रतीक है। लोगों ने इसे अपने दिल में स्थान दिया है, इसको अपने प्राणों से भी ज्यादा माना है। तोमड़ियों में बीजों के संरक्षण  पर दो कहानियां सुनाते हैं।

बीज बचाओ आंदोलन के प्रणेता विजय जड़धारी ने बीजों को संरक्षित रखने में इस्तेमाल की जाने वाली तोमड़ियों, जिन्हें बिजुंडा भी कहते हैं, के बारे में बताया। फोटो- मोगली

एटकिंसन के द हिमालयन गजेटियर (Himalayan Gazetteer Edwin Atkinson) का जिक्र करते हुए बताते हैं, संवत् 1852 में बहुत बड़ा अकाल पड़ा, जिसको बावनी का अकाल कहते हैं। लोगों की मृत्यु होने लगी। अंग्रेज गांवों में लोगों को देखने गए। उन्होंने देखा कि अकाल से तड़प रहे लोगों के घरों पर तोमड़ियां (लौकी की आकार की वनस्पतियां ) टंगी हुई थीं। उन्होंने इनको उतारकर देखा तो इनमें बीज भरे हुए थे। लोग चाहते तो कुछ दिन बीज खाकर जिंदा रह सकते थे। पर, वो अपनी पीढ़ियों के लिए बीजों को बचाना चाहते थे। एटकिंसन ने लिखा है, पहाड़ का आदमी मर जाएगा, लेकिन बीज नहीं खाएगा। उन लोगों ने सोचा था, हम मर जाएंगे, लेकिन आने वाली पीढ़ियां इन बीजों का इस्तेमाल करेगी।

यह भी पढ़ें- Video- बच्चों, हम शर्मिंदा हैंः दिन में एक बार खाना, स्कूल के लिए 12 किमी. के पैदल रास्ते में तीन किमी. की चढ़ाई

यह भी पढ़ें- Video- हम शर्मिंदा हैंः इसलिए एक दिन घस्यारी बनते हैं, बोझ उठाकर कुछ दूर चलते हैं

1803 में गढ़वाल में भूकंप से बड़ी संख्या में लोगों को मृत्यु हो गई। नेपाल के राजा ने देखा कि गढ़वाल बुरी तरह टूट चुका है। 1804 में उन्होंने गढ़वाल पर हमला कर दिया। 1804 में गोरखा से युद्ध के समय लोगों ने खुद को बचाने के लिए घरों को छोड़ दिया। वो अपने कुछ और सामान ले गए या नहीं ले गए, पर बीज से भरी तोमड़ियां जरूर ले गए।

वो बताते हैं, तोमड़ी को ऊपरी सिरे से काटकर खाली कर लिया जाता है। फिर इसमें बीजों को रखते हैं। आप बीजों को अच्छी तरह सुखाकर किसी अन्य बर्तन में भी रख सकते हैं। उसमें टिमरू और अखरोट के पत्ते रख सकते हैं, फिर आपको कीटनाशक रखने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।

एक बीज के लिए किसान चार मील चलकर वापस लौटा खेत में

जड़धारी जी अपनी किताब ‘बारहनाजा’ में एक किस्सा बताते हैं, एक बार एक किसान अपने खेतों में धान का बीज बोकर घर लौट रहा था। चार मील चल चुका था। गर्मियों के दिन थे। किसान को पसीना आ रहा था। अत्यधिक गर्मी से परेशान होकर किसान पेड़ की छांव में बैठ गया। उसने सिर से टोपी उतारी तो देखा कि टोपी में एक अंगरा (अंकुरित बीज) चिपका है। शायद किसान ने अंकुरित बीज को अपनी टोपी में रखकर बोया था और एक बीज टोपी में ही रह गया।

किसान परेशान हो गया कि उसने बड़ी गलती कर दी। किसान ने तुरंत निर्णय लिया और उस बीज को टोपी में सुरक्षित संभालकर खेती की ओर लौट गया। किसान ने पानी से लबालब भरे खेत में धान के उस बीज को रोप दिया। जड़धारी कहते हैं, निसंदेह वो बीज, जब पौधा बना तो उसमें से कई शाखाएं भी निकली होंगी और उसके दर्जनों बालों से हजारों दाने आए होंगे। कितना महान था वो किसान, जिसने बीज के महत्व को समझा। यह कहानी आज भी पारंपरिक ज्ञान को आगे बढ़ाते हुए बीज संरक्षण का संदेश दे रही है।

फसल से बीज चुनने और सुरक्षित रखने का तरीका

बीज बचाओ आंदोलन के प्रणेता जड़धारी गांव-गांव बीज बैंक बनाने की पहल करते हैं। गांवों में पदयात्राएं करते हैं। आने वाली पीढ़ियों के लिए बीजों की उपयोगिता पर जोर देते हैं। उनका मानना है कि उत्तराखंड में महिलाएं ज्यादा अच्छी तरह से बीजों को बचाती हैं। बीज को पहचानने का तरीका बताते हैं, फसल में उस हिस्से पर ध्यान दें, जहां ज्यादा पौधे लहलहा रहे हों। जब भी फसल काटें, इन पौधों की बालियों या फलियों को अन्य फसल से अलग कर लें। खरपतवार और बीमार दानों को हटा दें। बीजों को अच्छी तरह सुखाकर किसी बर्तन में रख दें। उसमें टिमरू, अखरोट के पत्ते रख दीजिए, बीज सुरक्षित रहता है, किसी प्रकार के कीटनाशक की जरूरत नहीं होगी।

बीजों के गांधी विजय जड़धारी ने कोदा, झंगोरी और कौंणी. चींणा के बारे में विस्तार से बताया। फोटो- मोगली
मोटा अनाज नहीं, पौष्टिक अनाज कहिए

बीज हमारी धरोहर हैं, अगर ये एक बार खत्म हो जाएंगे तो दोबारा नहीं मिलेंगे। बीजों को बचाने का तरीका उनको उगाना और एक्सचेंज करना है। अधिकतर बीजों की उम्र एक-दो साल ही होती है, कुछ बीज ऐसे भी हैं, जिनकी आयु पांच-छह साल हो सकती है। ये बीज पौष्टिक अनाजों की होती है, जिनको मोटा अनाज कहा जाता था। हमने भारत सरकार को एक ज्ञापन दिया था, जिसमें कहा था कि इस अनाज को मोटा अनाज नहीं बल्कि पौष्टिक अनाज कहा जाए। 25 साल बाद ही सही, सरकार ने 2018 में इस संबंध में बाकायदा एक नोटिफिकेशन के माध्यम से मोटा अनाज को पौष्टिक अनाज कहे जाने की व्यवस्था की।

नौरंगी की दाल के परांठे और भंगजीर की चटनी

इंदिरा गाँधी पर्यावरण पुरस्कार (Indira Gandhi Paryavaran Puraskar) 2009 से सम्मानित तथा देशभर की कई संस्थाओं और विश्वविद्यालयों सहित साउथ अफ्रीका, बेल्जियम, जर्मनी, नेपाल सहित कई देशों में प्रकृति की खेती और पारंपरिक बीजों के महत्व पर व्याख्यान दे चुके विजय जड़धारी सादगी पसंद हैं। खादी पहनना और ओढ़ना पसंद करने वाले 71 वर्षीय जड़धारी गांधीजी के विचारों को आगे बढ़ाते हैं। सरल व्यवहार वाले जड़धारी जी नाश्ते में नौरंगी की दाल के परांठे, आंवले का अचार, मक्खन और सिलबट्टे पर पिसी गई भंगजीर की चटनी परोसते हैं। उनके स्नेह और लजीज नाश्ते को कोई कैसे भूल सकता है।

नौरंगी की नौ नहीं, बल्कि 25 किस्में मौजूद

जड़धारी बताते हैं, नौरंगी की दाल, जैसा कि नाम से पता चलता है नौ रंग की दाल। पर, अब हमारे पास इसकी 25 किस्में हैं। हमारे यह कहने पर कि क्या अब नौरंगी का नाम बदल देना चाहिए, अब इसको पच्चीस रंगी कहने में किसी को कोई हर्ज नहीं होगा। जड़धारी जी हंसते हुए कहते हैं, ऐसा हो सकता है। वैसे पौष्टिकता में नौरंगी ने उड़द और मूंग को भी पीछे छोड़ा है। इसको रैस, रैयांस, तितरया दाल और झिलंगा नाम से जाना जाता है। इसमें प्रोटीन भी खूब है और राजमा, उड़द व मूंग की तुलना में रेशा अधिक है। इसको खाने से गैस नहीं बनती और आसानी से हजम हो जाएगी।

भंगजीर को कह सकते हैं शाकाहारी मछलीः रही बात भंगजीर की, तो इसे हम शाकाहारी मछली कह सकते हैं। पहले पहाड़ में लोग भंगजीर के दानों का तेल खाने में इस्तेमाल करते थे। इसके दानों और पत्तों में कॉड लीवर ऑयल मछली की तुलना में कहीं ज्यादा होता है। इसमें ओमेगा-3 व ओमेगा-6 खूब होता है। तभी तो हम भंगजीर को शाकाहारी मछली कहते हैं। उत्तराखंड में खानपान की संस्कृति पर किताब लिखने वाले विजय जड़धारी जिस भी अनाज और दाल का जिक्र करते हैं, उसकी पौष्टिकता के बारे में जरूर बताते हैं।

बीजों के गांधी विजय जड़धारी की प्रेरणा से चल रहे बीज बचाओ आंदोलन ने राजमा की 220 किस्मों को खोज निकाला है। फोटो- राजेश पांडेय
दालों की 260 से अधिक किस्में, 220 तरह की राजमा

जड़धारी जी हमें बीजों के संग्रह को दिखाने के लिए अपने कमरे से कपड़े की बड़ी पोटली लेकर आते हैं। इसमें कपड़ों के छोटे-छोटे थैलों व पैकेट्स में रखे बीज दिखाते हुए कहते हैं, पौधों और रंग रूप के आधार पर बीज बचाओ आंदोलन ने उत्तराखंड में राजमा की 220 किस्मों को तलाश किया है। ये वो बीज हैं, जो प्राकृतिक खेती से प्राप्त किए गए हैं। उत्तराखंड की ऊंचाइयों और घाटियों में दालों की 260 से ज्यादा किस्म हैं, जो समृद्ध विविधता को पेश करती है। कई तरह के अनाज हैं, जो प्राकृतिक रूप से उग जाते हैं। वनस्पतियों की विविधता, अनाज की विविधता ही हमारी शक्ति है।

उत्तराखंड की प्राकृतिक खाद्य प्रजातियों पर लिखी किताब में विजय जड़धारी जंगल में 130 तरह की वनस्पतियों का जिक्र करते है, जिसके आधार पर वो एक प्रसिद्ध नारे- क्या हैं जंगल के उपकार- मिट्टी, पानी और बयार। मिट्टी, पानी और बयार- जिंदा रहने के आधार। का जिक्र करना नहीं भूलते।

बीजों के गांधी विजय जड़धारी ने बासमती के बीज संरक्षित किए हैं, जो देहरादूनी बासमती के नाम से प्रसिद्ध है। फोटो- मोगली

कहते हैं,  खेती का इतिहास पांच से दस हजार वर्ष पुराना है। पहले मानव जंगल के फल-फूल, फसलों और बीजों पर निर्भर करता था। जंगल की विविधतापूर्ण प्राकृतिक खेती टिकाऊ खेती है, पर वैज्ञानिकों ने प्रकृति की इस खेती से कोई सीख नहीं ली और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली रासायनिक खेती को बढ़ाया। स्वास्थ्य खराब होने से अस्पतालों और डॉक्टरों का उद्योग विकसित हो गया। मैं किसी डॉक्टर का विरोध नहीं कर रहा, वो तो जिंदगी बचाने वाले भगवान हैं। पर, डॉक्टर को इलाज करने के साथ ही, उन पहल पर भी काम करना होगा, जो लोगों को बीमार होने से रोकती हो। जिस डॉक्टर के क्लीनिक में ज्यादा भीड़ होती है, उसका मतलब यह लगाया जाता है कि वो बेहतर इलाज करते हैं, पर यहां यह बात भी समझनी होगी कि उन डॉक्टर के इलाके में रोगियों की संख्या बढ़ी है।

…. जारी

Rajesh Pandey

उत्तराखंड के देहरादून जिला अंतर्गत डोईवाला नगर पालिका का रहने वाला हूं। 1996 से पत्रकारिता का छात्र हूं। हर दिन कुछ नया सीखने की कोशिश आज भी जारी है। लगभग 20 साल हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। बच्चों सहित हर आयु वर्ग के लिए सौ से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। स्कूलों एवं संस्थाओं के माध्यम से बच्चों के बीच जाकर उनको कहानियां सुनाने का सिलसिला आज भी जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। रुद्रप्रयाग के खड़पतियाखाल स्थित मानव भारती संस्था की पहल सामुदायिक रेडियो ‘रेडियो केदार’ के लिए काम करने के दौरान पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाने का प्रयास किया। सामुदायिक जुड़ाव के लिए गांवों में जाकर लोगों से संवाद करना, विभिन्न मुद्दों पर उनको जागरूक करना, कुछ अपनी कहना और बहुत सारी बातें उनकी सुनना अच्छा लगता है। ऋषिकेश में महिला कीर्तन मंडलियों के माध्यम के स्वच्छता का संदेश देने की पहल की। छह माह ढालवाला, जिला टिहरी गढ़वाल स्थित रेडियो ऋषिकेश में सेवाएं प्रदान कीं। बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहता हूं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता: बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी संपर्क कर सकते हैं: प्रेमनगर बाजार, डोईवाला जिला- देहरादून, उत्तराखंड-248140 राजेश पांडेय Email: rajeshpandeydw@gmail.com Phone: +91 9760097344

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button