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Video: महिला किसान गीता उपाध्याय ने मशरूम की खेती में कमाल कर दिया

मशरूम की फसल में 90 दिन में लागत से दोगुना हासिल कर सकते हैं

राजेश पांडेय। न्यूज लाइव

“मशरूम की खेती लाभ का स्वरोजगार है। लगभग तीन महीने में लगभग चार बार उपज लेकर लागत से दोगुना कमा सकते हैं। इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात है कि आपको उत्पादन कक्ष के तापमान और स्वच्छता का बहुत ख्याल रखना पड़ता है। जैविक रूप से उत्पादित मशरूम का बाजार भाव भी अधिक है। हम कई वर्ष से मशरूम उत्पादन कर रहे हैं, इस बार दो अलग-अलग कक्ष में लगभग 500 बैग्स में मशरूम उत्पादन किया है।”

महिला कृषक गीता उपाध्याय न्यूज लाइव को मशरूम उत्पादन में लागत और लाभ के गणित तथा इसमें बरती जाने वाली सावधानियों के बारे में बता रही थीं। गीता उपाध्याय देहरादून जिला के नकरौंदा गांव स्थित जीरो प्वाइंट क्षेत्र में अजय स्वावलंबन केंद्र का संचालन करती हैं। यहां समन्वित खेती, जिसमें सब्जी उत्पादन, पशुपालन और मत्स्यपालन शामिल है, के साथ मशरूम उत्पादन किया जा रहा है। गीता और उनके पति दीपक उपाध्याय वर्षों से समन्वित जैविक खेती पर काम कर रहे हैं।

मशरूम की खेती में इन सावधानियों की आवश्यकता

मशरूम उत्पादन के लिए दो कक्ष बनाए हैं, जिनमें से एक टीन की छत वाला है और दूसरा सीमेंटेंड छत का है। गीता बताती हैं कि टीन की छत वाला कक्ष गर्मियों में ज्यादा गर्म हो जाता है, इसलिए इस कक्ष का तापमान व्यवस्थित करने के लिए फूस की एक और छत बनानी आवश्यक होता है। मशरूम उत्पादन में तापमान और नमी के स्तर की बड़ी भूमिका है।

इन दिनों ढींगरी (Oyster Mushroom) मशरूम का उत्पादन कर रहे हैं, जिसमें 25 डिग्री सेल्सियस तापमान चाहिए। हम नियमित रूप से उत्पादन कक्ष का तापमान चेक करते हैं। ज्यादा सर्दियों में कक्ष में तापमान बढ़ाने के लिए ब्लोअर लगाए हैं। उचित प्रकाश के लिए बल्ब की व्यवस्था की है। भूसा, जिसमें मशरूम उत्पादन होता है, उसमें नमी का स्तर 70 से 80 फीसदी तक होना आवश्यक है। भूसा सूखा होने पर मशरूम में फफूंदी लगने की आशंका रहती है।

वो बताती हैं, जिस भी मशरूम बैग में फफूंदी लग जाती है, उसे तुरंत उत्पादन कक्ष से बाहर करना होता है। फफूंदी से बचाने के लिए कक्ष में शूज या चप्पल पहनकर जाना मना है। हाथ-पैर अच्छी तरह धोकर ही कक्ष में जा सकते हैं। हर बैग को नियमित रूप से चेक करना होता है। फफूंद की पहचान कैसे की जाती है, की पूरी जानकारी प्रशिक्षण के दौरान उपलब्ध कराते हैं।

गीता उपाध्याय ने ढींगरी मशरूम उत्पादन के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले भूसे में नमी का स्तर बढ़ाने तथा उसको कीटाणु मुक्त करने की विधि की जानकारी दी। बताती हैं, भूसे में गर्म भाप के माध्यम से नमी का स्तर बढ़ाया जाता है। भूसे में मिट्टी या कंकड़ या फिर किसी भी तरह की फफूंद नहीं होनी चाहिए। मशरूम का बीज स्थानीय स्तर पर मिल जाता है। आप बीज बनाने का प्रशिक्षण भी ले सकते हैं।

इस तरह पैकेट में बनाए गए छिद्रों से बाहर निकलती है ढींगरी मशरूम। फोटो- सार्थक पांडेय

उन्होंने दो कक्षों में 500 बैग्स में मशरूम उत्पादन किया है। तीन बार उपज मिल गई है, अब चौथी बार कुछ और उपज मिलने के बाद इस लॉट को समाप्त कर दिया जाएगा। फिर नये सिरे से रूम को पूरी तरह से फफूंद एवं कीटाणु मुक्त करने में कम से कम 15 से 20 दिन लग जाएंगे। इसके बाद मशरूम की दूसरी प्रजाति लगाई जाएगी, जिसको अधिक तापमान में उगा सकते हैं, क्योंकि अब गर्मियों का मौसम आ रहा है। गर्मियों में दूधिया मशरूम, जिसको हम मिल्की मशरूम (Calocybe Indica), भी कहते हैं, ज्यादा मुफीद होती है। इसको 35 डिग्री तक तापमान की आवश्यकता होती है। इसके लिए नमी 80-90 प्रतिशत होनी चाहिए। वहीं, बटन मशरूम को कम 18 से 20 डिग्री सेल्सियस तक तापमान रखना होता है। इसलिए कह सकते हैं, मशरूम की अलग-अलग किस्मों को सालभर में कम से कम नौ माह उगाया जा सकता है।

यह है मशरूम उत्पादन में लागत और आय का गणित

लागत और आय के गणित पर उनका कहना है, 90 दिन में आप लागत से दोगुना हासिल कर सकते हैं। उन्होंने 500 बैग्स पर सभी तरह के खर्चे मिलाकर लगभग 50 से 60 हजार रुपये तक का निवेश किया है। इसमें भूसा, भूसे को उपचारित करने की विधि पर व्यय, बीज की लागत, पॉलिथीन बैग्स की कीमत, बिजली का खर्चा, पैकिंग और पारिश्रमिक यानी सभी तरह के छोटे-बड़े व्यय शामिल हैं। हमें चार बार में प्रति बैग लगभग डेढ़ से दो किलो मशरूम प्राप्त हो जाएगी। कुल मिलाकर 500 बैग्स से लगभग 750 किलो से लेकर दस कुंतल मशरूम मिलने की उम्मीद है। ढींगरी की बिक्री लगभग 150 से 200 रुपये प्रति किलो हो जाती है। मशरूम की 250-250 ग्राम की पैकिंग करके बिक्री कर सकते हैं। कुल मिलाकर इस पर आपको डेढ़ से दो लाख रुपये हासिल हो जाएंगे। लागत को हटाकर दोगुने के अधिक का लाभ मशरूम की खेती में हो सकता है। पर, आपको मशरूम की खेती के लिए बहुत अनुशासित, नियमित और स्वच्छता का ध्यान रखने की आवश्यकता है।

शाकाहार को बढ़ाता है मशरूम

गीता उपाध्याय के पुत्र नमन पढ़ाई के साथ-साथ माता-पिता को खेती में भी सहयोग कर रहे हैं। वो बताते हैं, मशरूम खाने में चिकन की तरह लगती है। इसमें प्रोटीन ज्यादा होता है। जो लोग मांसाहार नहीं करते, उनको इसमें भरपूर प्रोटीन मिलता है। डॉक्टर भी मशरूम खाने की सलाह देते हैं। किसी रोग में या रोग से बचने के लिए डॉक्टर की सलाह पर मशरूम का सेवन करें।

देहरादून के नकरौंदा में युवा नमन ने हमें मशरूम उत्पादन के बारे में बहुत सारी जानकारियां दीं। फोटो- सार्थक पांडेय

गीता उपाध्याय बताती हैं, कोरोना संक्रमण के समय मशरूम की डिमांड बढ़ गई थी। इसका सूप स्वाद में अच्छा होने के साथ ही बहुत फायदेमंद होता है। इसको संरक्षित किया जा सकता है। उन्होंने बताया, मशरूम को सुखाकर किसी ऐसे डिब्बे में बंद कर लो, जिसमें हवा नहीं जा पाए। जब भी जरूरत हो, सूखी मशरूम को कुछ देर पानी में रखकर इसकी सब्जी बना सकते हैं। सूखी हुई मशरूम को पीसकर पाउडर बना सकते हैं, जो सूप बनाने में काम आता है।

गीता बताती हैं, जैविक मशरूम की फसल जीरो वेस्ट है। फसल पूरी होने के बाद भूसे को चारे के साथ मिलाकर पशुओं को खिला सकते हैं। क्योंकि आपने इसमें किसी भी तरह का कोई कैमिकल नहीं मिलाया होता है।

छोटी जोत की खेती बचाने के बहुत सारे विकल्प

प्रगतिशील किसान दीपक उपाध्याय का कहना है, खासकर छोटी जोत वाले किसानों के सामने गंभीर आर्थिक संकट गहरा जाता है। उनके लिए खेती को बचाए रखना कठिन होता है। हम उन विकल्पों पर बात करते हैं, जिनसे आप कम भूमि में लाभकारी खेती कर सकते हैं। इसके लिए एकीकृत खेती (Integrated Farming) सबसे बेहतर उपाय है। ये खेती एक दूसरे पर निर्भर होती है, कुल मिलाकर आपका कोई भी उत्पाद या अपशिष्ट बेकार नहीं जाएगा। जैसे, पशुपालन का अपशिष्ट यानी गोबर, गोमूत्र या फिर गौशाला धुलाई से निकलने वाला पानी ही क्यों न हो। मत्स्य पालन, गोबर गैस प्लांट, जैविक खेती, सब्जी एवं फल उत्पादन, पोल्ट्री फार्म, बतख एवं बकरी पालन सहित बहुत सारे विकल्प हैं। उन्होंने गोबर से धूपबत्ती बनाने, गोमूत्र का अर्क तैयार करने के लिए उपकरण लगाए हैं।

प्रोगेसिव फार्मर दीपक उपाध्याय कृषि एवं मशरूम पर प्रशिक्षण भी उपलब्ध कराते हैं। आप संपर्क कर सकते हैं- 9045045527

 

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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