क्या किसी अंग्रेज के नाम पर है डोईवाला का नाम
हरियाणा के यमुनानगर जिले में भी है एक डोईवाला
राजेश पांडेय। न्यूज लाइव ब्लॉग
डोईवाला (Doiwala) देहरादून जिले का हिस्सा है, जिससे सटे हुए ग्रामीण इलाकों की आय का प्रमुख स्रोत कभी कृषि होता था, लेकिन समय के साथ-साथ खेती कम होती जा रही है और अब किसान परिवार आय के अन्य स्रोतों, जैसे सरकारी एवं गैर सरकारी नौकरियों, उद्योगों एवं व्यापार से भी जुड़ रहे हैं।
डोईवाला नाम कैसे पड़ा, यह जिज्ञासा आज भी बनी है, पर इस पर बात करने से पहले, हम आपको बता दें, देहरादून वाला डोईवाला ही अकेला डोईवाला नहीं है, देश में एक और डोईवाला है, जो हरियाणा के यमुनानगर जिले के तहसील छछरौली का एक गांव है, जहां 2011 की जनगणना के अनुसार, 34 घर हैं, जिनमें 144 आबादी है, जिनमें 81 पुरुष और 63 महिलाएं शामिल हैं। यह उप-जिला मुख्यालय छछरौली (तहसीलदार कार्यालय) से 16 किमी दूर और जिला मुख्यालय यमुनानगर से 25 किमी दूर स्थित है।
देंखें- https://censusindia.gov.in/census.website/data/population-finder उपलब्ध है।

DOIWALA (69) VILLAGE
State | District | Sub-district | Village/Town | Urban/Rural | Indicator | Value |
Haryana | Yamunanagar | Chhachhrauli | Doiwala (69) | Rural | Number of households | 34 |
Haryana | Yamunanagar | Chhachhrauli | Doiwala (69) | Rural | Total population – Person | 144 |
Haryana | Yamunanagar | Chhachhrauli | Doiwala (69) | Rural | Total population – Males | 81 |
Haryana | Yamunanagar | Chhachhrauli | Doiwala (69) | Rural | Total population – Females | 63 |
वहीं देहरादून के डोईवाला ने गांव से लेकर नगर पालिका का सफर तय कर लिया है। इसमें वर्तमान में कई ग्रामीण इलाकों को शामिल किया गया है।
DOIWALA (NP) TOWN
State | District | Sub-district | Village/Town | Urban/Rural | Indicator | Value |
Uttarakhand | Dehradun | Dehradun | Doiwala (NP) | Urban | Number of households | 1791 |
Uttarakhand | Dehradun | Dehradun | Doiwala (NP) | Urban | Total population – Person | 8709 |
Uttarakhand | Dehradun | Dehradun | Doiwala (NP) | Urban | Total population – Males | 4659 |
Uttarakhand | Dehradun | Dehradun | Doiwala (NP) | Urban | Total population – Females | 4050 |
अंग्रेज व्यवसायी मिस्टर डोई का नील कारखाना और जमीन से ऊपर बहती नहर
बात खास रूप से डोई शब्द को लेकर हो रही है, वाला शब्द तो देहरादून के कई स्थानों के साथ जुड़ा है, जैसे भानियावाला, मियांवाला, बाजावाला, तेलीवाला, अनारवाला, बालावाला, झबरावाला, बालावाला, कुआंवाला, बुल्लावाला, कुड़कावाला, सत्तीवाला, माधोवाला, सारंधरवाला, नियामवाला, रायवाला… आदि स्थान हैं।

डोई शब्द को लेकर दो बातें खासतौर पर सामने आईं, और इनसे जुड़ी बातें इस शानदार नगर के अतीत में भी ले गईं। खालसा फर्नीचर मार्ट के स्वामी सरदार सुरेंद्र सिंह खालसा बताते हैं, उनके पूर्वज 1898 में डोईवाला में आ गए थे, उस समय हरिद्वार से देहरादून तक रेलवे लाइन बिछाई जा रही थी। पंजाब से आए पूर्वजों ने कांसरो से रेलवे लाइन बिछाने का कांट्रेक्ट एक बड़े कांट्रेक्टर से लिया था, जिसे आप पेटी कांट्रेक्ट कह सकते हैं, उसके बाद वो यहीं बस गए।
बताते हैं, हमारे पूर्वजों को डोईवाला की आबोहवा, मौसम इतना अच्छा लगा कि उन्होंने यहीं का बाशिंदा बनने का निर्णय ले लिया। हमें तो अपने डोईवाला और गांव से बहुत प्यार है।

उन्होंने अपने पिता जी से सुना है, यहां खत्ता, जो वास्तव में डोईवाला था, में एक अंग्रेज व्यवसायी, जिनको लोग मिस्टर डोई कहकर पुकारते थे, ने नील बनाने का कारखाना खोला था। जहां नील घर था, उस जगह को डोईवाला कहते थे। उन्होंने नील बनाने के लिए सौंग नदी से नहर पहुंचाई गई थी। नील घर और नहर के निशान आज भी मौजूद हैं। यह कारखाना घिस्सरपड़ी में है, जो तेलीवाला फाटक के ठीक सामने से खत्ता को जोड़ने वाली पक्की सड़क के किनारे का इलाका है।

वो बताते हैं, सौंगनदी के पानी को नहर में डालने की व्यवस्था के बारे में बताया जाता है, जहां से नहर में पानी जाता था, उसको इंजन नाली कहा जाता था। आप मौके पर जाकर देख सकते हो। इसको वर्तमान में लोग ऊंची पुलिया के नाम से भी जानते हैं।
हम सरदार सुरेंद्र सिंह खालसा के बताए अनुसार, तेलीवाला फाटक के सामने से होते हुए घिस्सरपड़ी पहुंचे। तेलीवाला फाटक के ठीक सामने से खत्ता गांव जा रही रोड के दाहिनी ओर ईंटों से बने अर्द्ध गोलाकार स्ट्रक्चर दिखाई देते हैं, जो अंदाजन डेढ़ मीटर तक चौड़े हैं। ये तेलीवाला फाटक से लगभग आधा किमी. दूरी पर हैं।
हमारी प्रदीप कुमार और सुरेश से मुलाकात हुई, जिनका कहना है वो अपने बुजुर्गों से इनके बारे में यही सुनते रहे कि ये अंग्रेजों के बनाए हैं। इसके बारे में और ज्यादा जानकारी हमें नहीं है। सुरेश बताते हैं, ये नील घर तक जाने वाली नहर के अवशेष हैं, ऐसा मैंने सुना है।

घिस्सरपड़ी निवासी पूर्ण सिंह वर्मा, जिनकी आयु लगभग 75 साल है, बताते हैं, मैं बचपन से इनको देख रहा हूं। हमारे पूर्वज बताते थे, ये किसी अंग्रेज ने बनाए थे, इनके ऊपर से एक नहर गुजरती थी। सौंग नदी से जोड़ी इस नहर का पानी नील घर तक आता था। नील का कारखाना उनके घर से कुछ दूरी पर ही है, जिसकी दीवारें बड़े पत्थरों और सुर्खी से बनाई गई थीं।
पूर्ण सिंह वर्मा हमें, नील घर वाले क्षेत्र में ले जाते हैं, जहां अब मकान बन चुके हैं, पर कारखाने की पुरानी पत्थरों वाली दीवार का थोड़ा सा हिस्सा अब भी दिखाई देता है। कारखाने के पास रह रहे एक व्यक्ति बताते हैं, हमने तो नहीं देखा, पर हमारे बुजुर्गों से बताया था कि यहां धागा भी बनता था।
पूर्ण सिंह वर्मा हमें खत्ता रोड पर ले गए। यह रोड सीधा डोईवाला से जुड़ती है। डोईवाला यहां से लगभग एक या डेढ़ किमी. दूर है।
मुख्य रोड पर एक सिंचाई नहर दिखाते हुए कहते हैं, यहां से शुरू होती थी नील घर वाली नहर। यहीं से अर्द्धगोलाकार स्ट्रक्चर के ऊपर से होते हुए नहर नील घर तक जाती थी। इस दूरी के आधार पर कह सकते हैं, लगभग एक किमी. लंबी होगी। यह जमीन से ऊपर उठी हुई नहर थी, जो वक्त के साथ अब नहीं दिखती, पर उसके पिलर के रूप में ये स्ट्रक्चर नजर आते हैं।
हालांकि पूर्ण सिंह वर्मा, उस समय नील कारखाना चलाने वाले शख्स के बारे में नहीं जानते। बताते हैं, उनको नहीं मालूम कि यह डोई शब्द कहा से आया। मिस्टर डोई का नाम पहले कभी नहीं सुना। पर, यह बात सही है कि जिस इलाके को अब घिस्सरपड़ी कहा जाता है, वो ही पहले डोईवाला था।
डोई यानी लकड़ी की चम्मच
मोहम्मद इशहाक बताते हैं, “जहां हम बैठे हैं, वो जगह डैशवाला के नाम से जानी जाती थी। डोईवाला तो उस जगह को कहते थे, जिसे खता गांव बोलते हैं। मोहम्मद इशहाक भी घिस्सरपड़ी वाले इलाके को ही डोईवाला कहे जाने की पुष्टि करते हैं।”

“उन्होंने अपने वालिद से सुना था, पूर्व में मसूरी में राजाओं के बीच जंग हुई थी। एक राजा ने अपने सैनिकों को, डोईवाला से लगभग डेढ़-दो किमी. दूर तेलीवाला के पास रोका था। बड़ी संख्या में आए सैनिकों के लिए मिट्टी और लकड़ियों के बरतन बनाए गए थे, जिनमें खासकर, लकड़ी की चम्मचें, जिनको डोई कहा जाता है, यहां बनाई जाती थीं, क्योंकि यहां लकड़ी का साधन बहुत था। इसलिए इस जगह का नाम डोईवाला पड़ने की जानकारी बुजुर्गों से मिली है। बताते हैं, अब तो स्टील के चम्मच प्रचलन में हैं, पर ज्वालापुर (हरिद्वार) में आपको लकड़ी के चम्मच यानी डोई मिल जाएंगे। हालांकि सैनिकों के लिए मिट्टी की हांडियां भी बनाई गई थीं।”
Doi (डोई या दोई) शब्द कहीं यहां से तो नहीं आए
अब जानने की कोशिश करते हैं, DOI (डोई या दोई) कहां से आ सकता है। सबसे पहले डोई या दोई शब्द का अर्थ जानते हैं। “दोई” शब्द के विभिन्न भाषाओं में अलग-अलग अर्थ हो सकते हैं।
“दोई” शब्द आमतौर पर बांग्ला और असमिया सहित विभिन्न दक्षिण एशियाई भाषाओं में दही को संदर्भित करता है। भारत और बांग्लादेश के कई हिस्सों में, दही को अक्सर मीठा और स्वादिष्ट बनाया जाता है, जिससे एक स्वादिष्ट और लोकप्रिय मिठाई बनती है, जिसे बंगाली में “मिष्टी दोई” या हिंदी में “दही” के नाम से जाना जाता है।
दोई या दही का उपयोग विभिन्न तरह के व्यंजन बनाने में किया जाता है, रायता जैसे स्वादिष्ट व्यंजनों से लेकर दही-आधारित डेसर्ट जैसे मीठे व्यंजनों तक। “दोई” शब्द का उपयोग कुछ अन्य भाषाओं और क्षेत्रों में दही के संदर्भ में भी किया जा सकता है, लेकिन इसका सबसे आम संबंध दक्षिण एशियाई व्यंजनों से है।
“डोई” या दोई शब्द का प्रयोग आमतौर पर उत्तरी थाईलैंड में पर्वत या पर्वत श्रंख्लाओं के संदर्भ में किया जाता है। यह अपने आप में किसी स्थान का नाम नहीं है, बल्कि थाई भाषा में किसी पर्वतीय क्षेत्र को दर्शाने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला शब्द है। उत्तरी थाईलैंड में जगह के नाम मिलेंगे जो “दोई” से शुरू होते हैं, उसके बाद पहाड़ या पहाड़ी क्षेत्र का विशिष्ट नाम आता है, जैसे “दोई माए सालोंग” या “दोई सुथेप।”

दोई माए सालोंग (Doi Mae Salong) थाईलैंड के चियांग राय प्रांत में है। दोई माई सालोंग, जिसे सांतिखिरी के नाम से भी जाना जाता है, थाईलैंड के उत्तरी भाग में स्थित एक गाँव और हिल स्टेशन है। यह म्यांमार (बर्मा) की सीमा के पास स्थित है। यह क्षेत्र अपनी प्राकृतिक सुंदरता, चाय बागानों के लिए जाना जाता है।
वाट फ्रा दैट दोई सुथेप सबसे प्रसिद्ध – पहाड़ के किनारे पर बौद्ध मंदिर है। दोई सुथेप-पुई राष्ट्रीय उद्यान चियांग माई शहर से कुछ ही किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में है और शहर से सुविधाजनक एक दिन की यात्रा है। उत्तरी थाईलैंड के सबसे प्रभावशाली और महत्वपूर्ण मंदिरों में से एक, वाट फ्रा दैट दोई सुथेप देखने योग्य स्थान है।
चराइदेव या चे-राय-दोई का शाब्दिक अर्थ असम की भाषा में पहाड़ियों पर चमकता शहर है। असम के चराइदेव जिले में एक शहर है और यह पहले अहोम राजा चाओ द्वारा स्थापित अहोम साम्राज्य की पहली राजधानी भी थी। भले ही 600 वर्षों के शासन के दौरान राजधानी अन्य स्थानों पर चली गई, चराइदेव अहोम शक्ति का प्रतीक बना रहा। “चे-राय-दोई” में “दोई” शब्द किसी पर्वत या पहाड़ी क्षेत्र को संदर्भित करता प्रतीत होता है।
“Đổi” एक वियतनामी शब्द है जिसका अर्थ है “परिवर्तन”।” इसका उपयोग आमतौर पर किसी चीज़ को एक स्थिति या स्थिति से दूसरे में बदलने या परिवर्तित करने के विचार को व्यक्त करने के लिए किया जाता है। शब्द “đổi” का उपयोग विभिन्न संदर्भों में किया जा सकता है, जैसे कि व्यक्तिगत परिवर्तन, सामाजिक परिवर्तन, या किसी भी स्थिति की चर्चा, जहां परिवर्तन हो रहा है। यह वियतनामी भाषा का एक बहुमुखी शब्द है और विभिन्न रूपों में परिवर्तन और परिवर्तन को व्यक्त करने में भूमिका निभाता है।
रोमानियाई में, “दोई” का अर्थ है “दो” या “जोड़ा।” यह एक संख्यात्मक शब्द है जिसका उपयोग संख्या दो को इंगित करने के लिए किया जाता है।
दक्षिण पूर्व एशिया में याओ लोगों द्वारा बोली जाने वाली मियां भाषा में, “दोई” का उपयोग एक गांव या समुदाय के लिए एक शब्द के रूप में किया जाता है।
सीनियर जर्नलिस्ट अंग्रेजी वेबपोर्टल द नॉर्दर्न गैजेट के संपादक एसएमए काजमी बताते हैं, “हाल ही में कोलकाता विजिट पर एक मित्र के आवास पर मिष्टी दोई परोसी गई। डोईवाला के संदर्भ में, इस स्टोरी ने मिष्टी दोई की याद दिलाई, वास्तव में इसका स्वाद बहुत शानदार था।”

” वहीं, इस स्टोरी से एक बात सामने आती है, वो यह कि देहरादून के डोईवाला से हरे भरे पहाड़ दिखाई देते हैं, वहीं यह इलाका गढ़वाल के साथ ही, सहारनपुर यानी वेस्ट यूपी से ज्यादा टच में रहा। वेस्ट यूपी में लकड़ी की करछी को डोई कहा जाता है। हो सकता है, यह शब्द वहां से आया हो। वैसे भी एक और डोईवाला, जो यमुनानगर की छछरौली तहसील का हिस्सा है, भी सहानपुर से लगा इलाका है। यह इलाका यमुनानदी के पास है। ”
“डोईवाला एरिया वन क्षेत्र से सटा है, पास में ही ऋषिकेश और हरिद्वार में गंगा नदी है। अंग्रेजों के जमाने में, नदियां लकड़ियों को परिवहन करने का माध्यम होती थीं। हो सकता है, डोईवाला से होकर जा रही सौंग नदी भी लकड़ियों के परिवहन का साधन हो। डोईवाला में लकड़ियोंं से बरतन और अन्य संसाधन बनाने का काम अधिक होता होगा। यहां की करछी, जिसे डोई कहा जाता है, खूब प्रसिद्ध हों। इस जगह को लोग डोई या करछी वाला कहकर इंगित करते हों और कहते कहते इस जगह का नाम डोईवाला हो गया।”

एक्टीविस्ट मोहित उनियाल, डोईवाला नाम के संदर्भ में कहते हैं ” इससे जुड़ी कुछ जानकारिया सुनता आया हूं। यह ग्रामीण इलाका रहा है, जहां कृषि एवं पशुपालन आजीविका का प्रमुख स्रोत था और अब तक इससे जुड़े ग्रामीण इलाकों में काफी हद तक है। दही जिसे कुछ भाषा बोलियों में “डोई” या “दोई” कहा जाता है, शायद दूध-दही वाले इस इलाके में भी यह शब्द प्रचलित रहा हो, जिस वजह से यह नाम पड़ गया। डोई या करछी से नाम पड़ा है, इस बात में भी काफी दम है। पर, डोई नाम के पीछे एक और जानकारी है कि यहां मिस्टर डोई, जो एक अंग्रेज थे, यहां कोई व्यवयास चला रहे थे। उनके नाम पर इसका नाम डोईवाला पड़ा।”
अतीत में डोईवालाः जड़ी बूटियों का तेल निकालने का कारखाना

डोई शब्द और डोईवाला के अतीत को लेकर हमने 82 वर्ष के मोहम्मद इशहाक से बात की, जिनके पिता और चाचा वर्ष 1905 में डोईवाला आए थे। हालांकि, उनके दादा-परदादा 1807 में पंजाब से देहरादून आए थे। एक परदादा पंजाब में रह गए, दूसरे गंगोह और तीसरे देहरादून पलटन बाजार आ गए। जबकि उनके पिता मोहम्मद इस्माइल 1905 में डोईवाला आ गए।
मोहम्मद इशहाक और उनके बेटे का मिल रोड पर लोहे के औजार बनाने का कारखाना है। बताते हैं, डोईवाला में एक पुरानी इमारत के अवशेष शायद आपने देखे होंगे, जो पुरानी घराट के पास हैं। ऋषिकेश रोड से दिखने वाली यह पुरानी इमारत अंग्रेजों की बनाई है, जिसमें जड़ी बूटियों का तेल निकालने के लिए कारखाना बनाया गया था। पहाड़ से आने वाली जड़ी बूटियों का तेल निकालने के लिए इसे यहां इसलिए लगाया गया था, क्योंकि पास में एक नहर बहती है, जिससे मशीनें चलाई जा सकें। पहले मशीनें पानी के तेज प्रवाह से चलती थीं।
बताते हैं, मेरे पिता मोहम्मद इस्माइल देहरादून में रहते थे, अंग्रेज उनको यहां इस कारखाने में काम करने के लिए बुलाकर लाए थे, जबकि वो यहां आने के लिए तैयार नहीं थे। उस समय देहरादून में भी उनके पास बहुत काम था। देहरादून में कुल्हाड़ियां और घोड़ों की नाल बनाने का काम बहुत था। यह कारखाना ज्यादा समय नहीं चला, पर हम यहां बस गए। हमारा परिवार वर्षों से लोहे के कृषि यंत्र बनाने का काम कर रहा था, जो अब भी जारी है।
काला पानी कहते थे डोईवाला को, पर हमारे लिए यह जन्नत है
मोहम्मद इशहाक बताते हैं, “पहले डोईवाला को काला पानी कहा जाता था, क्योंकि यहां मच्छर बहुत होते थे। जंगल का इलाका होने की वजह से दलदल और जंगली जीवों की खतरा रहता था। पानी अच्छा नहीं था, जो पचता नहीं था। सांप बड़ी संख्या में थे। यहां आज की मिल रोड पर ही उस समय बड़े बड़े पेड़ थे। सड़कें कच्ची थीं और आने जाने का साधन घोड़े या बैल गाड़ियां होती थीं। मेरे पिता जी देहरादून से पैदल यहां आए थे।”
” मैं तो पहले वाले डोईवाला को जन्नत कहूंगा, क्योंकि यहां फलों के पेड़ बहुत थे। मुझे वो नाशपती का पेड़ आज भी याद है, जो सड़क के उस पार था, पर उसकी टहनियां इस तरफ तक थीं। उस पर 12 महीने फल लगते थे। कोई कितने भी फल खाए, कितने भी फल घर ले जाए, कोई पूछने वाला नहीं था। बहुत सुंदर पर्यावरण, साफ-शुद्ध हवा थी। यहां बहने वाली अल्लाह रक्खी नहर का पानी कपड़े धोने, नहाने में तो इस्तेमाल होता ही था, लोग पीने के लिए भी इसी पानी को घर लाते थे। पानी रातभर बरतन में रखा रहता और दूसरे दिन तक साफ होने पर यह पीने के काम आता। रेलवे स्टेशन से भी लोग पानी भरकर लाते थे। नलों से पानी यहां बहुत बाद में, 1972 के आसपास यहां आया।”

अब हम आपसे डोईवाला के अतीत पर कुछ बात करते हैं, इससे पहले एक सुनी सुनाई कहानी, जो डोईवाला के नामकरण की ओर इशारा करती है। हमने दो साल पहले, राम सिंह जी से बात की थी, जो 90 वर्ष के हैं और उस समय शहतूत की डंडियों से टोकरियां बना रहे थे। 90 साल के आत्मनिर्भर बुजुर्ग ने मुलाकात में अतीत के पन्नों को पलटा। वो बताते हैं, उनका जन्म डोईवाला में हुआ। डोईवाला में रास्ता नहीं था। जहां इन दिनों डोईवाला का चौराहा है, वहां गूलर के पेड़ खड़े थे। हरियाली बहुत थी।

दुकानें भी बहुत कम थीं। कच्ची दुकानें होती थीं। ऋषिकेश जाने के लिए तो रास्ता ही नहीं था। हरिद्वार वाले कच्चे रास्ते से होकर ही ऋषिकेश जाते थे। यहां से अकेले जाने में डर लगता था।
सौंग नदी पर स्लीपर यानी लकड़ियों का पुल था। बताते हैं, पक्का पुल कब बना, पुराने खंडहर हो चुके पुल पर उसकी तारीख लिखी होगी। नदी में पानी ज्यादा होने पर उनके पिता लोगों को पुल पार करने में मदद करते थे।

देहरादून, हरिद्वार जाने के लिए बैलगाड़ियां या इक्का दुक्का छोटी बसें होती थीं। घमंडपुर के राजा और सेठ सुमेरचंद जी की गाड़ियां चलती थीं। देहरादून बैलगाड़ियों से अनाज मंडी ले जाते थे। काफी लोग साइकिलों पर भी देहरादून जाते थे। पत्थर बिछाकर कच्चा रास्ता बनाया गया था।
बताते हैं, डोईवाला का मिल रोड, आज की तरह घना नहीं था। यहां गांवों से लाए गए मक्के की मंडी सजती थीं। चीनी मिल उस समय सेठ माधो लाल हवेलिया जी की होती थी। बहुत छोटी मिल थी यहां। उन्होंने बताया, जहां इन दिनों कोतवाली है, वहां अमरुद का बाग होता था, जिसमें उन्होंने काम किया।

बुजुर्ग राम सिंह कहते हैं, उनके पुराने दोस्त अब नहीं रहे। बताते हैं, उनका स्कूल लच्छीवाला में था, जो आज भी है। लच्छीवाला का प्राइमरी स्कूल बहुत पहले का है। डोईवाला रेलवे स्टेशन भी बहुत पुराना है। अब नया भवन बन चुका है। डोईवाला बाजार से होकर एक नहर जाती थी। अब नहर तो रही नहीं, इसमें घरों, दुकानों से निकला नालियों का गंदा पानी बहता है।
बताते हैं, जब पुराने डोईवाला की यादें ताजा होती हैं तो पुराने दृश्य आंखों के सामने तैरने लगते हैं। पुराना समय आज से ज्यादा अच्छा था।
तो यह डोईवाला के बारे में कुछ जानकारियां, यदि आपके पास भी इस संबंध में कोई जानकारी है तो कृपया 9760097344 पर साझा कीजिएगा।